अदालत में उस दिन कुछ अलग ही माहौल था। वकील साहब पूरे जोश में अपनी दलीलें रख चुके थे। फ़ाइलें बंद हो चुकी थीं, पंखे की आवाज़ भी मानो अचानक तेज़ लगने लगी थी। तभी जज साहब कुर्सी पर थोड़ा आगे झुके। उनके चेहरे पर एक हल्की-सी मुस्कान तैर रही थी, वैसी मुस्कान जो आमतौर पर फैसले से पहले नहीं आती।
जज साहब बोले,
“काउंसल, कहना पड़ेगा, आपकी दलीलें बिल्कुल परफेक्ट थीं।”
पूरी अदालत में सन्नाटा छा गया। मुवक्किल ने राहत की साँस लेने से पहले ही रोक ली, विपक्षी वकील ने चश्मा ठीक किया, और स्टेनोग्राफ़र ने उँगलियाँ हवा में ही रोक दीं। सबको लगा अब वकील साहब आदतन सिर झुकाकर कहेंगे—“थैंक यू, योर ऑनर।”
लेकिन वकील साहब के चेहरे पर हल्की शरारत चमकी। उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा,
“धन्यवाद, योर ऑनर। मगर ये परफेक्टनेस यूँ ही नहीं आया है। ये उन तमाम गलतियों का नतीजा है, जो मैंने अपने करियर के शुरुआती दिनों में किए थे।”
एक पल को जज साहब भी चौंके, फिर खुद को रोक नहीं पाए। अदालत ठहाकों से गूँज उठी। पेशकार हँसते-हँसते खाँसने लगा, और मुवक्किल पहली बार पूरे केस में दिल खोलकर मुस्कुराया।
जज साहब हँसी दबाते हुए बोले,
“तो मतलब ये कि आपने गलतियाँ भरपूर की हैं।”
वकील साहब ने तुरंत जवाब दिया,
“जी योर ऑनर, इतनी कि अब दूसरों की गलती पहचानने में देर ही नहीं लगती।”
इस पर जज साहब ने हथौड़ा हल्के से मेज़ पर रखते हुए कहा,
“अच्छा है, आपने गलतियों से सीख ली। बस आज आपकी सीख की फीस आपका मुवक्किल न चुकाए, यही उम्मीद है।”
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