हवाओं
पे कोई कहानी लिखूँ,
क्यों
अपनी मैं जिंदगानी लिखूँ?
चलते
है वो अक्सर बहारों में ऐसे,
पढ़ते
हैं खबर कोई अखबारों में जैसे।
धँसी
हुई आँखें, सूखे हुए पंजर और जो
तन्हाई है,
ये
कुछ और नहीं बूढ़े की पूरे उम्र की कमाई है।
रेत
के समंदर सी दुनिया में हम हैं,
पता
भी चले कैसे ये कैसा भरम है?
ना
तख़्त के लिए, ना ताज के लिए,
मैं
लिखता हूँ रूह की आवाज़ के लिए।
गाँव
में घर नहीं और शहरों पे जिंदा है,
उड़ता
बिन पर के ये कैसा परिंदा है?
कुछ
इस तरह से जिंदगी, कट गयी चलते हुए,
तुझे
हीं ढूंढना था, तेरे घर मे रहते में
रहते हुए।
परछाइयाँ
कुछ और नहीं बदलती हुई धूप हैं,
जानते
तो सब हैं फिर न जाने क्यों चुप हैं?
पता
नहीं किस शहर का,अजीब वो बाशिंदा है,
कि
हकीक़त से घायल,ख्वाबों पे जिंदा है।
अगर
मस्जिद में तू है, मंदिर में तू है,
मंदिर
में मस्जिद में नफरत फिर क्यूँ है?
समंदर
का होकर हवा की बातें करना क्या,
जो
करते नहीं याद उन्हें दिल मे रखना क्या।
तुम
भी ग़जब हो हथियार ले आते हो,
काँटे
हैं दिल मे, तलवार ले आते हो ।
जो
तेरा है सच सच्चाई है वो,
जरूरी
नहीं कि अच्छाई है वो।
क्या
खूब अख्तियार है, पीने पे जनाब,
कि
अच्छा पीने से पहले, और उम्दा पीने के बाद।
रूह
की आवाज को कुछ यूँ सजा रखता है,
जज्बात
अमिताभ अल्फ़ाज़ आसां रखता है।
ढूढ़ता
रहा सबक जो जाने कितने सवालों में,
जा
के मुझे मिला वो जिंदगी की किताबों में।
उसने
करके खबरदार , मारा अमिताभ को,
बेईमानी
में ईमान की जरुरत कुछ कम नहीं।
"अमिताभ" के प्यास
की, बात ही कुछ खास है,
समंदर
से कुछ भी न , कम की तलाश है।
इस
दुनिया में आने की हो गयी ऐसी खता,
बदस्तूर
अभी तक जारी है वो सिलसिला।
आप
तो नाहक ही हम पे इल्जाम लगा देते हैं,
लक्षण
हैं बदतर और हम अंजाम बता देते हैं।
न
अता होता है, न खता होता है,
जो
कुछ किया है, मुझे पता होता है।
जितने
भी घाव दिए उसने, मेरी छाती पे ही दिये,
वो
आदमी था बुरा जरूर,पर इतना बुरा भी नहीं।
सजा
सुनाई तूने,क्या खूब इस गुनाह की,
कि
हाथ उठाई भी नहीं,और वो नजरों से उतर
गया।
जग
जब भी दिखता है तुमको,
जग
सच हीं दिखता है तुमको।
ढूंढ़ता
हूँ शहर में कोई तो बाशिंदा हो,
जो
जगा हुआ भी हो और जिन्दा हो।
जब
मन डोला, उड़न खटोला।
नफरतों
के दामन में,जल रहे जो सभी है,
कौन
सा है मजहब इनका ,कौन इनके नबी हैं?
बात
तो है इतनी सी जाने क्यों खल गई,
अहम
की राख थी बुझाने पे जल गई।
काल
बुरा कल जीवन आए,कल की कुछ तो राह बताए
,
विगत
काल जो भी था गुजरा, जग में नूतन चाह जगाए।
लाख
कह ले तू अशफ़ाक हूँ मैं,
मैं
राख हूँ मिट्टी की ख़ाक हूँ मैं।
ना
तख़्त के लिए, ना ताज के लिए,
मैं
लिखता हूँ रूह की आवाज़ के लिए।
जमाने
की बात भुलाने से उठा,
सोचता
हूँ क्यों मैखाने से उठा?
बेहतर
ही था जो वो दाग दे गया,
ठंडा
था दिल मेरा आग दे गया।
ख़्वाहिशों
और चादरों में कुछ इस तरह अमन रखा,
ना
चादरें लम्बी रखी ना ख़्वाहिशों को दफ़न रखा।
न
पूछ हमसे हमने क्या इस दिल में पाले हैं,
कि
सर से पाँव तलक छालें ही छालें हैं।
ना
मय के लिए ना मयखाने के लिए,
जुनून-ए-जिगर
है मर जाने के लिए।
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