Wednesday, December 18, 2024

उधर से भी चौकी और बेलन बरस रहे थे

क्या कहूँ जब पापा और माँ झगड़ रहे थे

बिजली कड़क रही थी, बादल गरज रहे थे

इधर से दनादन थप्पड़, टूटी थी चारपाई

उधर से भी चौकी और बेलन बरस रहे थे

 

जमने की थी बस देरी, औकात की लड़ाई

बेचारे पूर्वजों के, पुर्जे उखड रहे थे

अरमान पड़ोसियों की, मुद्दत से पड़ी थी सूनी

बारिश अब हो रही थी , वो भींग सब रहे थे

 

मिलता जो हमको मौका, लगाते हम भी चौका

बैटिंग तो हो रही थी, हम दौड़ बस रहे थे

इन बहादुरों के बच्चे, आखिर हम सीखते क्या

दो चार हाथ को बस, हम भी तरस रहे थे

 

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