दो राही चुपचाप चल रहे,ना नर दोनों एक समान,
एक मोह था लोभ पिपासु ,और ज्ञान को निज पे मान।
कल्प गंग के तट पे दोनों,राही धीरे चल पड़े ,
एक साथ थे दोनों किंतु,मन से दोनों दूर खड़े।
ये ज्ञान को अभिमान कि,सकल विश्व ही उसे ज्ञात था,
और मोह की तृष्णा भारी,तुष्ट नहीं जो उसे प्राप्त था।
मोह खड़ा था तट पे किंचित,फल फूलों की लेकर चाह,
ज्ञान गड़ा था गहन मौन में,अन्वेषित कर रहा प्रवाह।
पास ही गंगा बह रही थी,अमर तत्व का लेकर दान,
आओ खो जाओ दोनों कि,अमर तत्व मैं करूँ प्रदान।
बह रही हूँ जन्मों से मैं,आ मधुर रस पान कर,
निज की पहचान कर ले,अमरत्व वरदान भर।
मोह ने सोचा कुछ पल को,लोभ पर भारी पड़ा,
और उस पे हास करके,ज्ञान बस अकड़ा रहा।
कल्प गंगे भी ये मुझको ,सिखला सकती है क्या?
और विहंसता मोह पे वो,देखता डुबकी लगा।
कल्प गंगे में उतरकर,मोह तो पावन हुआ,
हो रही थी पुष्प वर्षा,दृश्य मन भावन हुआ।
पूज्य हुआ जो पतित था,स्वयं का अभिमान खोकर,
और इसको ज्ञात था क्या,ज्ञान का अभिमान लेकर?
पात्रता असाध्य उनको,निज में हीं जकड़े रहे,
ना झुके बस पात्र लेकर,राह में अकड़े रहे?
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