अपने हृदय
की पीड़ कहो किससे सुनाऊँ मैं ।
इस जिन्दगी
की टीस कहो कैसे मिटाऊँ मैं ।
मृदु कल्पना
संजोये रख क्या सोचता क्या हो रहा,
जीवन की
टेढ़ी राह में चल मैं अभागा रो रहा,
कैसे
जिन्दगी की डूबती नैया बचाउ मैं । अपने
जो निष्कलुष
कहता सदा निज को जगत के बीच में,
सारा जगत को
फेंकता वह स्वार्थ के क्यों कीच में,
कैसे छलभरी
दुनिया से अपने को बचाऊँ मैं । अपने
दुनिया
भुलावा सी नजर में दिखती है क्यों मुझे,
अपना जिसे
समझू वही बरबाद करता क्यों मुझे,
शुभचिन्तकों
से अपने को कैसे बचाऊँ मैं । अपने
सोचा था
दुनिया प्रेम की सरिता बहाएगी सदा,
मुझे प्यार
पाने की सर्वत्र बहाए आएगी सदा,
पर यह था
मेरा भ्रम किसे अपना बनाऊँ मैं । अपने'
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