Monday, August 26, 2024

मरघटवासी

 मरघटवासी 


ओ मरघट के मूल निवासी,भोले भाले शिव कैलाशी।

यदा कदा मन आकुल व्याकुल,जग जाता अंतर सन्यासी। 

जब जग बन्धन जुड़ जाते हैं,भाव सागर को मुड़ जाते हैं।

इस भव में यम के जब दर्शन,मन इक्छुक होता वनवासी।

मन ईक्षण है चाह तुम्हारा,चेतन प्यासा छांह तुम्हारा।

ईधर उधर प्यासा बन फिरता,कभी मथुरा कभी काशी ।

ओ मरघट के मूल निवासी,भोले भाले शिव कैलाशी।


अजय अमिताभ सुमन

Sunday, August 25, 2024

फिर कैसे विश्राम हो कोई ?

फिर कैसे विश्राम हो कोई ?

अथक परिश्रम नहीं आराम, 
ना कर्मों को अल्प विराम। 

जीवन  के कई झगड़े सारे, 
सुलझाने  हैं  लफड़े  सारे। 

भाव कई मन को बसते हैं, 
गीत कहानी  बन फलते हैं ।

ज्ञान पड़ा इस जग में इतना, 
कैसे पढ़ सब कर लूँ अपना? 

इक्क्षाओं से उलझन  बढ़ती, 
कतिपय ना मन  सुविधा गढ़ती। 

दुविधा का परिणाम ना कोई , 
फिर कैसे विश्राम हो कोई ?
फिर कैसे विश्राम हो कोई ?

अजय अमिताभ सुमन 

Saturday, August 3, 2024

उमस

ये गर्मी उमस की है गर्मी ना बस की। 

जाती ना तन से खुजली अपरस की। 

टप टप टप टप टप टप चलता पसीना।

कि घातक दुपहरी सा जलता महीना।  

लुकछिप कर बिजली ये आती है जाती। 

कि कूलर से कमरे की गरमी ना जाती।

कपड़े सब मैले हम धोए कहाँ पर। 

रह रह कर बारिश आ जाती है छत पर। 

गिली पड़ी है चादर जस की तस की। 

ये गर्मी उमस की, है गर्मी ना बस की। 

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