गाँव की चौपाल पर एक दिन पंडित छन्नूलाल और मास्टर हरिराम में बहस छिड़ गई। पंडितजी ने पैर पसारकर कहा, “भाई, बैठना ही जीवन का असली सुख है। देखो, जब आदमी बैठ जाता है तभी खाना खा सकता है, पूजा कर सकता है, यहाँ तक कि राजनीति भी कर सकता है। चलना तो बस बैल और गधों का काम है।”
मास्टरजी तुरंत खड़े हो गए, मानो तर्क को पैरों पर ही खड़ा करना हो। बोले, “नहीं पंडितजी, चलना ही जीवन का सार है। बच्चा जब जन्म लेता है, तो बैठा नहीं रहता, पहले रेंगता है, फिर चलता है। बैठना तो मृत्यु की पूर्वाभ्यास है, श्मशान घाट में सब बैठे-बैठे ही लेटे रहते हैं।”
पंडितजी ने मूँछों पर ताव देते हुए प्रतिवाद किया, “अरे मूर्ख! ध्यान बैठकर ही लगता है, साधु-महात्मा बैठे-बैठे ही मोक्ष पाते हैं। चलकर किसे मुक्ति मिली?”
मास्टरजी ने ठहाका लगाया, “महात्मा बुद्ध बैठे जरूर, पर ज्ञान पाने से पहले उन्होंने घर छोड़ा और वर्षों तक चले। अगर वे बैठ ही जाते तो कपिलवस्तु में गृहस्थाश्रम चलाते रहते।”
इस पर बगल में बैठे गबरू लाला ने दार्शनिक मुद्रा में तम्बाकू मलते हुए कहा, “मेरे हिसाब से तो न चलना अच्छा है न बैठना—बल्कि लेटना ही उत्तम है। लेटने से नींद आती है, और नींद ही सब दुःखों की दवा है। जब सो रहे हो तो न बहस है, न भूख, न राजनीति, न फिक्र।”
चौपाल ठहाकों से गूँज उठी। पंडितजी और मास्टरजी दोनों क्षण भर चुप रहे, फिर बोले, “सही कहा, जब तक जागे रहेंगे, बहस करते रहेंगे। चलो, अब लेटकर सोते हैं।”
दर्शन यही है कि आदमी बैठने और चलने की बहस में उलझा रहता है, पर जीवन का असली सुख वही पाता है, जो समय-समय पर दोनों करता है—और जब थक जाए तो गबरू लाला की तरह लेट भी जाता है।
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