एक शांत दोपहरी थी। संत शुद्धानंद जी, जिनके मुख पर स्थायी मुस्कान और नेत्रों में करुणा का गहरा जलस्रोत झलकता था, अपने आश्रम में आम्रवृक्षों की छाया तले शिष्यों के साथ बैठे थे। एक शिष्य मन ही मन अस्थिर था। विचारों की भीड़ उसके भीतर एक शोर करती रहती थी — "मन शांत क्यों नहीं होता?"
वह शिष्य झुककर बोला, "गुरुदेव, कृपा कर बताएँ — यह मानसिक शांति कैसे प्राप्त हो?"
गुरु मुस्कराए। शांत, गंभीर, परंतु कोमल स्वर में बोले: "कुछ मत करो।"
शिष्य चकित हो गया।"गुरुदेव, मैं समझा नहीं। मन के इतने विचार, अशांति, उलझन — और आप कहते हैं कुछ मत करो?"
गुरु ने उसकी ओर देखा, मुस्कराए — पर अब कोई उत्तर नहीं दिया।
समय बीत गया। कुछ दिन बाद, संत शुद्धानंद जी अपने शिष्यों के साथ एक निकटवर्ती गाँव की यात्रा पर निकले। दोपहर की धूप अपने प्रचंड स्वरूप में थी। राह में चलते हुए सभी को प्यास लग आई। संत ने उसी शिष्य को कहा: "पास के तालाब से पानी ले आओ।"
शिष्य लोटा लेकर तालाब की ओर गया, पर कुछ ही देर में खाली लौट आया।
गुरु ने पूछा:"क्या बात है? पानी क्यों नहीं लाए?"
शिष्य बोला:"गुरुदेव, तालाब में कुछ बच्चे कूद-कूद कर नहा रहे थे। उनके खेलने से सारा कीचड़ ऊपर आ गया। पानी गंदा हो गया था — पीने योग्य नहीं रहा।"
गुरु ने कुछ नहीं कहा। थोड़ी देर पश्चात उन्होंने फिर उसी शिष्य को पानी लाने भेजा।
इस बार जब वह लौटा, तो लोटे में स्वच्छ, निर्मल जल था।
गुरु ने पूछा:"अब पानी साफ कैसे हुआ?"
शिष्य ने सिर झुकाकर कहा:"गुरुदेव, इस बार वहाँ कोई बच्चा नहीं था। सब चले गए थे। तालाब शांत था। पानी अपने आप साफ हो गया।"
गुरु ने स्नेहपूर्वक देखा और बोले:"क्या तुमने पानी को साफ करने के लिए कुछ किया?"
शिष्य बोला:"नहीं, गुरुदेव। मैंने कुछ नहीं किया। बस इंतज़ार किया — और पानी खुद-ब-खुद साफ हो गया।"
गुरु मुस्कराए, उनकी वाणी अब एक दीर्घ जीवन-सूत्र बन गई:
"ठीक यही तुम्हारे मन के साथ होता है। जब जीवन के बच्चे — इच्छाएँ, चिंताएँ, पछतावे, और भय — मन रूपी तालाब में कूदते हैं, तब विचारों की लहरें उठती हैं, और कीचड़ ऊपर आ जाता है। मन अशांत हो जाता है।
तब हम बेचैनी में इसे 'ठीक' करने की कोशिश करते हैं — ध्यान, विचार-नियंत्रण, तर्क — लेकिन जितनी कोशिश करते हैं, उतना ही कीचड़ और मचलता है।
पर जब हम 'कुछ नहीं करते' — जब हम बस रुक जाते हैं, बैठ जाते हैं, प्रतीक्षा करते हैं — तब मन का कीचड़ अपने आप नीचे बैठ जाता है। लहरें शांत हो जाती हैं, और स्वभावतः शांति प्रकट होती है।"
गुरु आगे बोले: "मन का स्वभाव ही शांति है। अशांति उसमें अस्थायी विक्षोभ है — जैसे तालाब में उठती अस्थायी लहरें। तुम उसे शांत नहीं कर सकते, क्योंकि वह पहले से ही शांत है। तुम केवल अपनी हस्तक्षेप की आदत को रोक सकते हो। यही 'कुछ नहीं करना' — यही सबसे बड़ा उपाय है।"
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