मणिकर्णिका घाट, वाराणसी—जहाँ चिताओं की आग रात-दिन टिमटिमाती है, और राख हवा में मोक्ष की स्टोरी डालती है। अगर आपको लगता है कि श्मशान सिर्फ़ आँसुओं की जगह है, तो मिलिए चार अनोखे पात्रों से: ब्रिजमोहन तिवारी, पंडित से यूट्यूबर बने, जिनका श्लोक और UPI लिंक एक साथ ट्रेंड करता है। डॉ. अनिरुद्ध झा, दर्शनशास्त्री, जो मृत्यु को सॉफ्टवेयर बग और मोक्ष को दार्शनिक गड़बड़ कहते हैं। बाबा भूतनाथ, 5G त्रिशूल (आईफोन) लिए अघोरी, जिनकी इंस्टा रील्स हैश टैग मोक्ष वाईब्स से वायरल हैं। और एक काला कुत्ता, जो भौंकता नहीं, भूतों को सूँघता है! एक राख-भरी रात, ये चारों घाट पर टकराए—हर कोई दूसरे को भूत समझ रहा था। ब्रिजमोहन का कैमरा हिला, झा जी की डायरी गिरी, बाबा की रील रुक गई, और कुत्ता सबको घूर रहा था। कौन है असली भूत? ये हास्य, डर, और दर्शन का तमाशा आपको हँसाएगा, डराएगा, और सोच में डालेगा—कहीं आप भी तो भूत नहीं?
16 अगस्त, 2025 मणिकर्णिका घाट, वाराणसी—रात का सन्नाटा ऐसा कि गंगा की लहरें भी फुसफुसा रही थीं। चिताओं की आग लपटें मार रही थी, जैसे कोई प्राचीन आत्मा राख के बादलों में रहस्य उकेर रही हो। राख हवा में इस तरह उड़ती है, जैसे आत्माएँ इंस्टाग्राम पर हैश टैग मोक्ष वाईब्स और हैश टैग मोक्ष गोल के साथ इनस्टा रील डाल रही हों। एक स्याह, ठंडी, और राख-भरी रात को, जब चाँद बादलों के पीछे डरकर दुबक गया था और झींगुर श्मशान का डी.जे . बनकर "सन्नाटा ट्रैक" बजा रहे थे, मणिकर्णिका घाट पर दो परछाइयाँ टकराईं। ये थे ब्रिजमोहन तिवारी और डॉ. अनिरुद्ध झा उर्फ "फिलॉसफी वाला झा जी"। लेकिन असली मज़ा तब शुरू हुआ, जब एक मॉडर्न अघोरी बाबा भूतनाथ ने अपने 5G स्मार्टफोन के साथ एंट्री मारी, और दोनों ने उसे भूत समझ लिया। लेकिन सबसे पहले कहानी के पात्रों से जान पहचान कर ली जाए।
ब्रिजमोहन तिवारी कभी मणिकर्णिका घाट के सुपरस्टार पंडित थे। उनके श्लोकों की गूँज में लोग मोक्ष का रास्ता ढूँढते थे, और उनकी चंदे की थाली हमेशा खनकती थी। लेकिन डिजिटल युग में ब्रिजमोहन जी ने पंडिताई को "लॉग आउट" कर दिया और यूट्यूब की दुनिया में "लॉग इन" हो गए। उनका चैनल, "शास्त्र से श्मशान तक", 4.5 लाख सब्सक्राइबर्स के साथ ट्रेंडिंग में था। उनका फंडा था—हर सवाल का जवाब श्लोक में! अगर कोई पूछता, "भैया, मेरा फोन हैंग क्यों हो रहा है?" तो ब्रिजमोहन जी ड्रामैटिक अंदाज़ में बोल पड़ते, "गीता में कहा है—नैनं छिंदंति शस्त्राणि, फोन भले हैंग हो, आत्मा का प्रोसेसर कभी क्रैश नहीं होता!" और फिर डिस्क्रिप्शन में UPI लिंक डाल देते, "डोनेट करें, मोक्ष पाएँ!" उनकी दाढ़ी में राख की स्टाइलिश लेयर थी, और आँखों में ऐसी चमक जैसे यूट्यूब का "मोनेटाइज़" बटन ऑन हो। उस रात, ब्रिजमोहन मणिकर्णिका घाट पर अपने अगले वायरल वीडियो की शूटिंग के लिए आए थे। टॉपिक था—"श्मशान में भूतों से मुलाकात: लाइव स्ट्रीम!" उनके पास था एक ट्राईपोड , 4K कैमरा, और बनारसी पान, जिसे वो "श्मशान का एनर्जी बूस्टर" कहते थे। उनकी जेब में एक पुराना स्मार्टफोन भी था, जिसका स्क्रीन गार्ड टूटा हुआ था, लेकिन वो इसे "आत्मा का दर्पण" कहते थे।
तो दूसरी तरफ थे डॉ. अनिरुद्ध झा, बी.एच.यू. के दर्शनशास्त्र विभाग के प्रोफेसर, जिन्हें स्टूडेंट्स "फिलॉसफी वाला झा जी" कहते थे। उनके लेक्चर्स इतने गहरे थे कि सुनने वाला या तो नीत्शे बन जाता था या नींद का शिकार। झा जी का मानना था कि ज़िंदगी एक "कॉस्मिक सॉफ्टवेयर बग" है। उनके शब्दों में, "इंसान पैदा इसलिए हुआ, क्योंकि ब्रह्मांड ने गलती से उसका आधार कार्ड अपलोड कर दिया।" उनकी जेब में हमेशा एक पेन और डायरी रहती थी, जिसमें वो मृत्यु के नए-नए दर्शन लिखते। उनकी पेन की स्याही हर रात खत्म हो जाती, और वो इसे "मृत्यु का मेटाफर" कहते। उनके स्टूडेंट्स का कहना था कि झा जी से सवाल पूछो, तो वो ऐसा जवाब देते हैं कि आप सवाल भूलकर अपनी ज़िंदगी का मोल भाव करने लग जाते हैं। उस रात, झा जी मणिकर्णिका घाट पर "मृत्यु का एक्सपेरिमेंटल स्टडी" करने आए थे। उनकी डायरी में लिखा था: "श्मशान की राख में जीवन का सत्य छुपा है, और बनारसी चाय उसका API।" लेकिन उनकी पेन की स्याही फिर खत्म हो गई। वो बड़बड़ाए, "ये स्याही मृत्यु का प्रतीक है, लेकिन चाय ज़िंदगी का रीचार्ज!" उनकी जेब में एक पुराना लिंक्डइन प्रोफाइल का प्रिंटआउट भी था, जिसे वो "मेरे विचारों का पासपोर्ट" कहते थे।
कहानी के तीसरे पात्र है मॉडर्न अघोरी—बाबा भूतनाथ, जिसके लंबे, उलझे बालों में राख की परत थी, जैसे कोई अवंत-गार्डे हेयर स्टाइलिस्ट ने उसे डिज़ाइन किया हो। उसकी आँखें लाल LED लाइट्स की तरह चमक रही थीं, और गले में हड्डियों की माला थी, जिसके बीच में एक पान का दाग चमक रहा था, जैसे कोई बनारसी ट्रेडमार्क। लेकिन सबसे चौंकाने वाली चीज़? उसके हाथ में चमचमाता "आई फ़ोन 15 मैक्स प्रो" , जिसकी स्क्रीन पर नोटिफिकेशन आ रहे थे: न्यू रील , अघोरी स्वैग , 15K Views!" बाबा भूतनाथ तंत्र-मंत्र और टेक्नोलॉजी का अनोखा मिश्रण था। उसका दावा था, "मेरा बायाँ हाथ तंत्र-मंत्र है, दायाँ टेक्नोलॉजी। और मेरा आई फ़ोन? वो मेरा डिजिटल त्रिशूल है, 5G कनेक्शन और 512 GB स्टोरेज के साथ!" उसका इंस्टाग्राम बायो था: "अघोरी बाई सोल , इन्फ्लुएंसर बाई गोल।
और अंत में, वो काला कुत्ता, जिसे घाट का अनऑफिशियल चौकीदार माना जाता था। उसकी आँखें रात में चमकती थीं, जैसे कोई पुराना लालटेन जो बिजली की बजाय रहस्यों से जलता हो। वो हर रात घाट पर चक्कर लगाता था, जैसे कोई सिक्योरिटी गार्ड जो भूतों की भीड़ को कंट्रोल करता हो। लेकिन उस रात, उसका रोल सिर्फ़ भौंकने तक सीमित नहीं था। वो कुछ ज़्यादा ही चालाक निकला। तो ये था कहानी के पात्रों का परिचय और अब करते हैं आगे की बात।
जब मणिकर्णिका घाट के स्याह, ठंडी, और राख-भरी रात को, जब चाँद बादलों के पीछे डरकर दुबक गया था , मणिकर्णिका घाट पर दो परछाइयाँ टकराईं थी और ये थे ब्रिजमोहन तिवारी और डॉ. अनिरुद्ध झा उर्फ "फिलॉसफी वाला झा जी"।उस दिन मणिकर्णिका घाट पर सन्नाटा ऐसा था कि झींगुरों की आवाज़ हॉरर मूवी का बैक ग्राउंड म्यूजिक लग रही थी। चिताओं की आग धीमी पड़ रही थी, और राख हवा में डांस कर रही थी। हवा इतनी ठंडी थी कि साँसें जम रही थीं, और कोहरा ऐसा कि हर छाया किसी भटकती आत्मा का भ्रम दे रही थी। घाट पर एक अधजला कुल्हड़ पड़ा था, जिसमें बनारसी मसाले की गंध अब भी तैर रही थी। पास ही एक टूटी लकड़ी पर खुरचकर लिखा था: “मोक्ष मार्ग, नो रिटर्न टिकट।
तभी एक काला कुत्ता — लंबा, लहराती पूंछ और आंखों में रहस्यमयी चमक — वहां आया, मानो किसी अदृश्य गश्त पर निकला हो। उसने चारों ओर देखा, कुछ बड़बड़ाया (कुत्तों की भाषा में), और सीधे ब्रिजमोहन जी की ओर बढ़ा।
पर जैसे ही वो डॉ. झा के पास पहुंचा, उसने उन्हें सूंघा... दो कदम पीछे हटा... और तेज भौंकता हुआ भाग गया, जैसे उसने कोई ईथर की छाया देख ली हो।
डॉ. झा (हँसते-हँसते लोटपोट होते हुए):"हा हा हा! देखा तिवारी जी? अब कुत्ते भी मुझे देखकर रिस्पेक्ट में भागते हैं!"
ब्रिजमोहन जी (नाक फुलाकर, शुद्ध बनारसी ठसक में):"कुत्ता डर के मारे भागा है, रिस्पेक्ट में नहीं। और डॉ. साहब, कुत्ता बेवकूफ नहीं होता। उसे सड़ा गोश्त और अधूरी आत्मा दोनों की बू आती है!"
डॉ. झा (हड़बड़ाकर):"कहना क्या चाहते हैं आप? मैं भूत हूं? मैं?? मैं तो फिलॉसफी पढ़ाता हूं बी.एच.यू . में!"
ब्रिजमोहन जी (ड्रामैटिक पॉज़ लेकर, अपने कैमरे की ओर इशारा करते हुए):"आप पढ़ाते हैं, पर कौन सुनता है? आत्मा बिना देह के बोले तो क्या बोले? और ज़रा गौर करो... आपकी छाया कहां है? प्रोफेसर साहब, आदमी होते तो छाया जरूर होती!"
डॉ. झा (बुद्ध की तरह ध्यान में डूबते हुए):"और आपकी छाया भी कहां है, तिवारी जी? तो क्या आप भी भूत हैं? या फिर हम दोनों ही टाइम-लूप में अटके कुछ अस्तित्वहीन स्मृतियां हैं?"
[एक क्षण का सन्नाटा, फिर दोनों एक साथ बोल पड़ते हैं:]"भूत तुम हो!"
[फिर शुरू होता है तर्क का महासंग्राम — घाट के किनारे एक तरफ शास्त्र, दूसरी ओर दर्शनशास्त्र।]
ब्रिजमोहन जी (हाथ में 'गरुड़ पुराण', ऊंची आवाज में):"शास्त्र कहता है — भूत वो होता है जो मरा नहीं, पर मरने की ज़िद में अटका है। और आप, डॉ. साहब, हर वाक्य में मृत्यु को शोध विषय बना देते हैं।"
डॉ. झा (अपने चश्मे को ठीक करते हुए, 'उपनिषद्' की ओर इशारा करते हैं):"मैं मृत्यु में नहीं, मृत्यु पार सत्य में रुचि रखता हूं। मैं विचार हूं — कोजिटो एर्गो सम ! मैं सोचता हूं, इसलिए हूं।"
ब्रिजमोहन जी:"तो सोचते-सोचते कब भूत बन गए, पता ही नहीं चला।"
डॉ. झा:"और आप? हर वीडियो में मरने के तरीके गिनवाते हैं — ‘कैसे जाने की आत्मा निकल गई है’, ‘श्मशान में कौन सी राख शुभ होती है’। आप तो यमराज के पी.आर. ऑफिसर बन चुके हैं!"
[कुत्ता फिर लौट आया , इस बार दूर बैठकर हीं तमाशा देख रहा था , मानो कह रहा हो — "इन दोनों से तो मैं ही ठीक!"]
ब्रिजमोहन जी (कुत्ते की ओर इशारा करते हुए):"देखिए, अब वो भी तय नहीं कर पा रहा कि असली भूत कौन है!"
डॉ. झा (मुस्कुराते हुए):"या फिर वो सोच रहा है — दोनों ही हैं, एक डिजिटल भूत और दूसरा दार्शनिक भूत!" अंत में दोनों थककर बैठ गए और गंगा जी की ओर देखने लगे , शायद दोनों हीं संशय में थे कि आखिर भुत है कौन ?
दूर किसी चिता पर धीमे-धीमे लकड़ियाँ चटक रही थीं, मानो मृत्यु स्वयं कोई गाथा कह रही हो। गंगा की लहरें आज अस्वाभाविक रूप से शांत थीं — जैसे उन्हें भी इस रात की प्रतीक्षा हो।पंडे, जो दिन में यमराज के असिस्टेंट लगते हैं, अब चुपचाप अपने झोले में पड़े सिक्कों को गिन रहे थे। पीपल का वृक्ष श्वास ले रहा था — धीमी, ठंडी और अस्पष्ट।
अचानक…श्मशान के सूनेपन को चीरती हुई एक अजीब, दहला देने वाली हँसी गूँजी—"खी–खी–खी–खी…"
यह हँसी सामान्य नहीं थी। इसमें जैसे किसी ने सूखी हड्डियाँ रगड़कर, उसकी आवाज़ को टिकटॉक की रील बना डाली हो। हवा की दिशा बदल गई। कुत्ता जो अब तक खामोशी से बैठा था, गुर्राते हुए झाड़ियों में छिप गया।
ब्रिजमोहन तिवारी एकदम सिहर उठे। झा जी, जो अभी तक “मृत्यु के बाद की चेतना” विषय पर चाय पीते-पीते ध्यान कर रहे थे, अपनी नोटबुक गिरा बैठे।
ब्रिजमोहन जी (धीरे से):"प्रोफेसर… ये पक्का भूत है…"
डॉ. झा (हकलाते हुए):"चुप रहिए… नहीं तो कहीं हमें ट्रेंडिंग टैब में डाल देगा… हैशटैग ‘श्मशान_रिटर्न्स’ के साथ!"
एक साया प्रकट होता है,घाट के सबसे पुराने कोने, जहाँ वर्षों से कोई चिता नहीं जली थी, वहाँ से एक काला साया धीरे-धीरे उठने लगा। कोई नहीं जानता, वह कौन था… पर उसका आकार जैसे धुएँ और छाया का मेल था।
बाल — घने, उलझे हुए, जैसे रात के अंधेरे ने स्वयं उन्हें बुना हो।माथा — मोटी राख से पुता हुआ, जिस पर ताजे जलते चूल्हे की गंध थी।आँखें — लाल, चमकती हुईं, मानो किसी प्रेतबाधित गली के बल्ब हों।गला — हड्डियों की माला से लिपटा हुआ।एक हाथ में त्रिशूल — जिसका सिरा चमक रहा था, और पान का ताज़ा दाग उस पर ऐसे चिपका था, जैसे ताज़ा खाया गया हो।दूसरे हाथ में… चमचमाता "आई फ़ोन पंद्रह मैक्स प्रो" — जिसकी स्क्रीन पर संदेश झिलमिला रहे थे:"नई रील प्रकाशित — ‘अघोरी स्वैग’, 15000 व्यू !"
ब्रिजमोहन जी (दाँत किटकिटाते हुए):"ये क्या बला है? भूत है या इंस्टाग्राम का प्रभावशाली?"
झा जी (सिर छुपाते हुए):"भागो… ये तो पाँच-जी युक्त आत्मा है! ये हमारी चेतना का लाइव प्रसारण कर देगा!"
पर तभी वह साया ठहर गया। उसकी आवाज़ भारी, गहरी और प्रतिध्वनियुक्त थी—"रुको… हे मेरे बनारसी भूतों…
मैं भूत नहीं…मैं हूँ — मॉडर्न अघोरी बाबा भूतनाथ!"
बाबा भूतनाथ धीरे-धीरे आगे आए। उनके त्रिशूल की चमक अब मोबाइल के फ्लैशलाइट से भी अधिक तीव्र थी।
भूतनाथ:"तंत्र-मंत्र मेरा बायाँ हाथ है, और टेक्नोलॉजी मेरा दायाँ।ये जो मोबाइल देख रहे हो, यही है मेरा डिजिटल त्रिशूल —पाँच-जी कनेक्शन, पाँच सौ बारह गिगाबाइट की स्मृति,और आत्मा विश्लेषण का अनुप्रयोग!"
ब्रिजमोहन जी:"बाबा, ये तो आईफ़ोन है! क्या इस पर किस्त चल रही है?"
भूतनाथ (क्रोधित होकर):"मूढ़ जीव! ये साधारण यंत्र नहीं —यह मेरी तीसरी आँख है,जिसमें है आठतालीस मेगापिक्सल दृष्टि,और कृत्रिम बुद्धि से युक्त भूत-ग्रहण सुविधा!"
भूतनाथ ने स्क्रीन पर एक अनुप्रयोग खोला:"भूत विश्लेषक प्रो – विशिष्ट संस्करण"एक क्षण में दो आकृतियाँ उभरीं —एक ब्रिजमोहन जी की, दूसरी झा जी की।ऊपर लिखा था:
"भूत पुष्टि — 99.9 प्रतिशत सटीकता"
भूतनाथ:"हे शिवशंकर! तुम दोनों तो पक्के भूत हो!"
झा जी (हँसते हुए):"बाबा, तुम्हारा प्रयोग झूठा है!मैंने कल ही ‘मृत्यु एक लौकिक स्माइली’ विषय पर पोस्ट डाली थी!"
ब्रिजमोहन जी:"और मेरा नवीनतम वीडियो ‘श्मशान की चाय’ हजार पसंद प्राप्त कर चुका है!"
भूतनाथ गंभीर हो गए। उन्होंने मोबाइल पर पुरानी छवियाँ दिखाईं —1970 की, धुँधली, हल्के पीले रंग की।
एक में ब्रिजमोहन जी किसी तांत्रिक से श्लोकों पर विवाद कर रहे थे।दूसरी में झा जी चिता के पास चिंतन करते हुए अपनी डायरी में कुछ लिख रहे थे।
16 अगस्त, 1975 मणिकर्णिका घाट, वाराणसी
भूतनाथ:"पचास वर्ष पूर्व…तिवारी जी ने एक तांत्रिक से शास्त्रार्थ किया, और तांत्रिक ने क्रोधित होकर श्राप दे दिया —‘जो मृत्यु को हँसी समझे, उसे मोक्ष ना मिले।’और आप, प्रोफेसर साहब…आपने ‘मृत्यु एक रूपक है’ सिद्ध करने के लिए चिता में कूदकर शरीर का त्याग किया!"
भूतनाथ (हँसते हुए):"अब तुम्हारी मुक्ति एक ही मार्ग से संभव है —रील बनाकर, आत्मा का प्रसारण कर दो!चलो, हैशटैग ‘भूत बाबा’ को ट्रेंड करवाते हैं!"
ब्रिजमोहन जी ने "श्लोक नृत्य" किया —श्लोक पढ़ते हुए ताली-नृत्य।झा जी ने "दर्शन प्रवाह" किया —दर्शन की धुन पर घूमते हुए पैंतरे।
"दो भूतों के साथ श्मशान नृत्य — #अघोरीस्वैग #मोक्षवाइब्स"
रील के अपलोड होते ही घाट पर मौन छा गया।
16 अगस्त, 2025 मणिकर्णिका घाट, वाराणसी
ब्रिजमोहन जी (धीरे स्वर में):"तो क्या… सच में हम… भूत हैं?"
डॉ. झा:"नहीं… हम वो हैं जिन्होंने जीवन से बहस की,तर्क में इतने डूब गए कि साँस लेना भूल गए।"
"भूत वह नहीं जो मर गया,भूत वह है जिसने जीवन कोतर्क की भट्ठी में जलाकर राख बना डाला।जब चिता भी कहे —‘अब और मत बोलो’,तो जानो, मौत भी थक चुकी है!"
कुत्ता लौट आया…पर वह अब गुर्रा नहीं रहा था। न उसकी पूँछ तनकर खड़ी थी, न ही वह फुफकारता हुआ चारों ओर दौड़ रहा था। अब वह शांत था — एक अजीब, असामान्य, अस्वाभाविक शांति में। वह चुपचाप दोनों के पास आकर लेट गया। एक पग सामने फैलाया, दूसरा हल्के से मोड़ा, और गहरी साँस भरकर जैसे कह रहा हो —
"अब तुम मेरे हो... और मैं तुम्हारा।"
उसकी आँखें अंधेरे में चमक रही थीं, मानो मणिकर्णिका की राख से उठते किसी युगांतकारी रहस्य की परछाइयाँ उनमें झलक रही हों। उसकी नाक फड़क रही थी, मानो वह अब साँस नहीं ले रहा, बल्कि आत्माएँ सूँघ रहा हो। उसकी जुबान बाहर नहीं थी, लेकिन एक अजीब-सी मुस्कान उसके चेहरे पर फैली थी — न कुत्ते जैसी, न इंसानों जैसी। जैसे वह किसी चिरंतन सत्य से परिचित हो चुका हो।
अघोरी ने अपना यंत्र — वह जो वह त्रिशूल नहीं, पर अब त्रिशूल से कम भी नहीं था — उसकी ओर किया।
"देखते हैं अब क्या कहता है मेरा यंत्र..." उसने धीरे से कहा।
जैसे ही उसने यंत्र का विश्लेषण चालू किया, स्क्रीन पर एक और लाल आकृति उभरी। वह आकृति कुत्ते की थी।
कुछ क्षणों तक चुप्पी छायी रही। हवा रुकी, चिता की राख स्थिर हो गई, और गंगा का बहाव भी मानो शंका में ठहर गया।
अघोरी चौंका — उसकी आँखों के भीतर की चमक फीकी पड़ी।
"अरे... यह तो... यह तो कुत्ता भी... भूत है?"
ब्रिजमोहन जी ने हल्के से खाँसते हुए, अपनी दाढ़ी खुजाई और व्यंग्य में डूबी आँखों से बोले —
"बाबा, ज़रा खुद को भी स्कैन कीजिए... आप भी तो बड़ी आसानी से हमसे संवाद कर रहे हैं... वो भी हमारी भाषा में, हमारी संवेदना में... भूतों से भूत ही संवाद कर सकता है ना?"
डॉ. झा ने बिना समय गंवाए समर्थन दिया —"हाँ, बाबा! आपका त्रिशूल, आपकी राख, आपकी माला और आपकी 'स्वैग'... यह सब भूतों वाली शैली है। अब आप भी स्कैन कीजिए। कहीं आप भी तो..."
अघोरी ने हँसते हुए सिर झटक दिया। "अरे नहीं, मैं बाबा भूतनाथ हूँ! तंत्र का बादशाह, मंत्र का महारथी! मुझे भूत कहोगे? मैं तो वह हूँ जिसने मृत्यु को डिजिटल बना दिया है। मेरे पास पाँच सौ बारह जीबी का त्रिशूल है! मेरा ऐप... मेरा यंत्र... पाँच सितारा मूल्यांकन प्राप्त है!"
ब्रिजमोहन जी ने गरदन टेढ़ी कर कहा —"बाबा, ऐप सही हो सकता है, पर आप ग़लत हो सकते हैं। चलिए, एक बार खुद को भी स्कैन कीजिए। वरना मैं ‘भूत एक्सपोज़’ नाम से यूट्यूब वीडियो बनाऊँगा!"
झा जी ने लहराती आवाज़ में कहा —"और मैं उसका वैचारिक विश्लेषण करूँगा — 'भूत और आत्मा के डिजिटल युग में अस्तित्व का संकट' नाम से लेख लिख दूँगा!"
अब अघोरी बाबा का मस्तिष्क डगमगाया।
"ठीक है, करते हैं परीक्षण!"
उसने यंत्र उठाया, स्कैन चालू किया।
स्क्रीन पर धीमे-धीमे कुछ आकृतियाँ बननी शुरू हुईं।
पहले एक फीकी, फिर गाढ़ी, फिर पूरी लाल।
ऊपर लिखा था:"स्थिति : भूत।सटीकता : निन्यानवे दशमलव नौ प्रतिशत।मृत्यु का कारण : मणिकर्णिका घाट, उन्नीस सौ सत्तर।कारण : एक तांत्रिक से तर्क युद्ध में पराजय।"
बाबा की आँखों में बिजली सी कौंधी। उनकी उँगलियाँ हड्डियों की माला को मरोड़ने लगीं। उन्होंने यंत्र को घूरा, फिर गंगा की ओर देखा, फिर अपने दोनों साथियों की ओर।
"यह असंभव है! मैं... मैं तो कल ही रील डाली थी... पंद्रह हज़ार दर्शक! मेरे अनुयायी... मेरी राख में भी स्वैग है!"
ब्रिजमोहन जी ने हँसते हुए कहा —"बाबा, अनुयायी भी भूत हैं। मणिकर्णिका का हर भूत आपकी रील पर अंगूठा चढ़ाता है। आप अब पाँच जी भूत हैं। अपग्रेडेड आत्मा!"
झा जी ने गम्भीर मुद्रा में कहा —"बाबा, मृत्यु सत्य नहीं, प्रतीक है। आपका यंत्र आपका माया है। आप भूत हैं — लेकिन वह, जो स्वयं को भूत मानने से डरता है।"
अघोरी अवाक्।
अचानक, काला कुत्ता उठ खड़ा हुआ। वह अब वैसा कुत्ता नहीं था जैसा पहले दिखा था। उसकी चाल में संयम था, आँखों में ध्रुवता, और आवाज़...
आवाज़? अब वह भौंक नहीं रहा था।वह बोला।हाँ, उसने मानवों की भाषा में शब्द कहे।
"बाबा... आपका यंत्र सही है। क्योंकि आप भी भूत हैं। भूत ही भूत को पहचानता है।"
अघोरी ने उसे देखा — उसका मुँह हिल रहा था, पर आवाज़ भीतर से आ रही थी — जैसे किसी पुराने रेडियो की।
"तू... तू भी भूत है?" बाबा ने धीरे से पूछा।
कुत्ते ने गर्दन झुकाकर उत्तर दिया —"मैं हर उस आवाज़ का दर्पण हूँ, जो सुनकर भी न सुनी जाए। तुम सब — तुम तीनों — वही हो। तर्कों के भूत। इगो के दास। विचारों के शव।"
उसने आगे कहा —"तुम सबके हर संवाद, हर दावा, हर चीख को मैंने सुना है। और हर बार जब तुमने कहा, ‘मैं ही सत्य हूँ’, उसी क्षण तुम्हारी आत्मा ऑफलाइन हो गई। अब तुम सब केवल वही हो — जो स्वयं को नहीं पहचानता, पर दूसरों को साबित करता है। यही भूत है।"
अघोरी ने अपना यंत्र गिरा दिया। उसकी आँखें नम थीं, पर उसमें आँसू नहीं, स्वीकृति थी।
"हाँ... मैं भूत हूँ... लेकिन अपग्रेडेड भूत!"
कुत्ते ने मुस्कुराकर कहा —"भूत वही, जो भय और अहंकार से जकड़ा हो। तुम्हारा त्रिशूल, तुम्हारा ऐप, तुम्हारा स्वैग — सब तुम्हारे भय की अभिव्यक्ति हैं।"
झा जी ने शून्य की ओर देखा —"तो क्या... हम सब आत्मा नहीं... बल्कि तर्कों के फँसे हुए संस्करण हैं? एक ग्लिच? एक कोड में अटका हुआ भाव?"
ब्रिजमोहन जी बोले —"शायद हम वही हैं — जिनकी सिग्नल खो चुकी है। अब सिर्फ बफर हो रहे हैं..."
कुत्ता धीरे-धीरे पीछे हटा।
घाट के धुएँ में विलीन होता हुआ उसने अंतिम वाक्य कहा —"जब तक तुम सच को साबित करते रहोगे, तुम मृत हो। जब तुम चुप हो जाओगे... तभी तुम जीवित होगे।"
मणिकर्णिका की अंतिम रात
चिता बुझ चुकी थी, राख अब ठंडी थी, पर हवा में कोई सुलगता हुआ रहस्य अब भी तैर रहा था।
अघोरी ने हवनकुंड के बचे हुए अंगारों में आख़िरी चमक भरी। उसने अपने मोबाइल में फिर से "महामृत्युंजय मंत्र" बजाया—लेकिन इस बार वह मंत्र किसी ऐप से नहीं, किसी और ही लोक से गूंजा।
शब्द नहीं, कंपन्न था। आवाज़ नहीं, अस्तित्व का हिलना था।
ब्रिजमोहन जी की दाढ़ी अपने आप कांपी। झा जी की आँखों में कोई भूली हुई डायरी की पंक्तियाँ तैरने लगीं। कुत्ता—हाँ वही काला कुत्ता—धीरे से चलकर उनके पास लेट गया।उसकी आँखों में शांति थी, लेकिन कोई ऐसा प्रश्न भी, जिसे टाला नहीं जा सकता।
कुत्ता बोल उठा—"अहंकार छोड़ो, मोक्ष पाओ। और हाँ, बनारसी पान की आदत अगले जन्म में भी रखना।"
यह कहते ही, घाट पर एक ज़ोर की आवाज़ हुई।चिता के पास रखा आधा जला कुल्हड़ अचानक फट पड़ा।
धुआँ उठा।धीरे-धीरे, वह धुआँ सबको घेरने लगा—अघोरी बाबा, ब्रिजमोहन, झा जी, कुत्ता—सब।जैसे किसी ने डिलीट बटन दबा दिया हो। जैसे किसी फ़ाइल को "परमानेंट इरेज " कर दिया गया हो।
अब घाट ख़ाली था।शून्य।सिर्फ़ एक बात हवा में बची थी—“जब तुम यह मान लो कि तुम ‘कुछ’ हो, तभी तुम मिट जाते हो।”
20 साल बाद, 16 अगस्त, 2045 मणिकर्णिका घाट, वाराणसी
वहीं घाट — लेकिन अब नया अवतार
सीढ़ियों पर रोशनी थी। घाट पर वाई-फ़ाई था। और वहाँ एक चाय की दुकान खुली थी—“भूतनाथ ब्लेंड – मोक्ष के बाद वाली चाय”
उसके बैनर पर लिखा था—"इसे पीने के बाद आत्मा डिलीट नहीं होती... बस रीफ्रेश हो जाती है।"
लोगों की भीड़ थी, लेकिन उनके चेहरों में एक अजीब समानता थी—सभी के चेहरे जैसे अधूरे थे। जैसे प्रोफ़ाइल पिक्चर लोड न हो रही हो।
और दुकान के सामने एक पोस्टर—“श्मशान से मोक्ष तक—सिर्फ़ ₹९९ में”पाठ नीचे था—"हमारी चाय पीकर आप भी जानिए, आप इंसान हैं या भूत?"
ब्रिजमोहन अब सोशल मीडिया पर "ब्रिज सोहन" बन चुके थे।उनकी वायरल रील—"मोक्ष के ५ आसान स्टेप्स"
झा जी का पुनर्जन्म हुआ—नाम रखा "सनिरुद्ध जी"।उनकी किताब — "मैं और मेरा मृत चिंतन"पहला अध्याय था—"लॉजिक एक प्रेत है, और मैं उसका ज़िंदा उदाहरण हूँ।"
और अघोरी बाबा?अब ऑनलाइन कोर्स चलाते हैं—“भूत मैनेजमेंट और डिजिटल मोक्षशास्त्र”
पहला मड्यूल—"अपनी आत्मा को कैसे मोनेटाइज करें?"
छात्र सवाल पूछते—"बाबा, क्या भूत भी रील बना सकते हैं?"
बाबा मुस्कुराते हैं—"बेटा, तुम्हारी हर स्टोरी, हर तर्क, हर ‘मैं’ ही तो एक रील है। और तुम उसे देखकर खुद को ‘सच’ मान लेते हो। यही तो असली भूतगिरी है!"
अब बात आती है उस कुत्ते की।घाट का मेयर बन चुका है—“श्री भूतनायक कुक्कुर महाराज”उसका स्लोगन है—"हम भौंकते नहीं, सच्चाई सूंघते हैं।"
वह अब घाट पर किसी इंसान की आत्मा का स्कैन करने से पहले बस एक बार सूंघता है—अगर उसमें अहंकार हो, तो सिर हिलाता है—"भूत कनफर्म्ड।"
और अब…तुम।हाँ, तुम, जो ये कहानी पढ़ रहे हो।क्या तुमने अभी खुद को महसूस किया?क्या तुम्हारे भीतर कोई शब्द कांपा?क्या तुम्हें लगा कि कहानी में जो चल रहा है, वह किसी और की बात है?
अगर हाँ—तो रुको।
थोड़ा ठहरो।
अपना चेहरा छुओ…अपनी साँस महसूस करो…
अब ज़रा यह सोचो—तुम दिनभर कितनी बार कहते हो—"मैं सही हूँ", "मैंने कहा था", "मेरा लॉजिक ठीक है", "मुझे मानो", "मेरी बात सुनो"
हर बार, जब तुम अपने 'मैं' को ज़्यादा ऊँचा करते हो,हर बार, जब तुम दूसरों की बात सुनने से पहले ख़ुद को साबित करना ज़रूरी समझते हो,हर बार, जब तुम्हारा मौन डर से नहीं, अहंकार से आता है…
तब... क्या तुम थोड़े भूत नहीं बन जाते?
क्या तुम अभी भी सोचते हो कि ये कहानी सिर्फ़ अघोरी, ब्रिजमोहन, झा जी और उस कुत्ते की थी?
या कहीं ये कहानी,तुम्हारे ही ‘मैं’ की राख से निकली कोई भूली हुई चिंगारी थी?
तुम्हारी सोच, तुम्हारा तर्क, तुम्हारा मोबाइल, तुम्हारी रील—क्या सब कुछ एक डिजिटल आत्मा बन चुका है?
तो अब...कृपया उत्तर दो—तुम भूत हो या इंसान?
और जवाब देने से पहले…चारों ओर देख लेना…कहीं कोई कुत्ता भौंक तो नहीं रहा?
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