कितना अंतर बचा हुआ है,
जितना उर के हंस पड़ने या,
कहने को तो बात रही है,
जीवन के बस दो ये पहलू ,
हाथों में उग आए सोना ,
और वही जो उर छा जाए,
इस ब्लॉग पे प्रस्तुत सारी रचनाओं (लेख/हास्य व्ययंग/ कहानी/कविता) का लेखक मैं हूँ तथा ये मेरे द्वारा लिखी गयी है। मेरी ये रचना मूल है । मेरे बिना लिखित स्वीकीर्ति के कोई भी इस रचना का, या इसके किसी भी हिस्से का इस्तेमाल किसी भी तरीके से नही कर सकता। यदि कोई इस तरह का काम मेरे बिना लिखित स्वीकीर्ति के करता है तो ये मेरे अधिकारों का उल्लंघन माना जायेगा जो की मुझे कानूनन प्राप्त है। (अजय अमिताभ सुमन: सर्वाधिकार सुरक्षित :Ajay Amitabh Suman:All Rights Reserved)
कितना अंतर बचा हुआ है,
ग में डग का डगमग होना ,जग से है अवकाश नहीं ,
जग
जाता डग जिसका जग में,जग में है सन्यास वहीं
।
है
आज अंधेरा घटाटोप ,सच है पर सूरज आएगा,
बादल
श्यामल जो छाया है,एक दिन पानी बरसायेगा।
तिमिर
घनेरा छाया तो क्या , है विस्मित प्रकाश
नहीं,
जग
में डग का डगमग होना जग से है अवकाश नहीं।
कभी
दीप जलाते हाथों में, जलते छाले पड़ जाते हैं,
कभी
मरुभूमि में आँखों से, भूखे प्यासे छले जाते
हैं।
पर
कई बार छलते जाने से, मिट जाता विश्वास कहीं?
जग
में डग का डगमग होना, जग से है अवकाश नहीं।
सागर
में जो नाव चलाये, लहरों से भिड़ना तय
उसका,
जो
धावक बनने को ईक्षुक,राहों पे गिरना तय
उसका।
एक
बार गिर कर उठ जाना पर होता है प्रयास नहीं,
जग
में डग का डगमग होना जग से है अवकाश नहीं।
साँसों
का क्या आना जाना एक दिन रुक हीं जाता है,
पर
जो अच्छा कर जाते हो, वो जग में रह जाता है।
इस
देह का मिटना केवल, किंचित है विनाश नहीं।
जग
में डग का डगमग होना, जग से है अवकाश नहीं।
======
इस
देश में लाइफ झंड है,
फिर
भी इंडिया पर घमंड है।
कुछ
और नहीं साहब ये क्या,
चुतियापा
प्रचंड है।
सीधी
सादी बात है भाई,
जिसका
रुपया पैसा भाई,
उसी
बात को माने कुत्ता
वो
हीं उसका मालिक भाई।
एम.
पी. हीं तो देश चलाते,
इन
एम. पी. को कौन घुमाते।
वो
जिनके लगते हैं पैसे,
पार्टी
में ऐसे या वैसे।
वो
हीं तो कुत्ते के मालिक,
करता
ये जो कहता मालिक।
इसीलिए
तो फी है हाई,
स्कूल
या हस्पिटल भाई।
क्योंकि
सब मालिक के सारे,
कुत्ते
तलवे चाटे सारे।
जो
मालिक के तलवे चाटे,
वही
सत्ता में हैं आते।
जनता
की आवाज दबा कर,
बारी
बारी महल सजाते।
कभी
कभी घुमा करते हैं,
मजदूरों
के गाँव में।
नून
तेल का नमक चटाकर,
मरहम
देते गाँव में।
धर्म
जाति का नशा कराकर,
सुखी
हड्डी दिखा दिखाकर।
सौ
सौ करा रहें हैं उठक,
बैठक
कितने दंड हैं।
कुछ
और नहीं ये साहब,
क्या
चुतियापा प्रचंड है।
======
मेरा
नियम है सीदा साधा
मुझसे
हीं संसार सारा
मै
स्वस्थ तो दुनिया स्वस्थ
मैं
बीमार तो सब लाचार
मैं
हीं सृष्टि का आधार
मुझसे
हीं सारा संसार
======
श्रीकृष्णः
शरणं मम, करुणामय कृपालयः।
वृन्दावनविहाराय, गोवर्धनधारकाय॥ १ ॥
पीताम्बरधरं
श्यामं, मुरलीरवकुञ्जरम्।
गोपीजनविलासिनं, परमानन्दनन्दनम्॥ २ ॥
बालक्रीडाविहारिणं, नन्दगोपसुतं विभुम्।
कंसारिं
मुरलीरवम्, भक्ताभीष्टप्रदं
शुभम्॥ ३ ॥
राधाकान्तं
मनोहारं, वृन्दावनसुधाकरम्।
गोपवेषधरीं
देवम्, भजे कृष्णं
जगद्गुरुम्॥ ४ ॥
कर्मबन्धविमोक्तारं, धर्मसंस्थापनं हरिम्।
पापहारीं
जगन्मित्रं, भक्तप्रियं वसुंधराम्॥
५ ॥
कृष्णकृष्णेति
यो भक्तः, स्मरिष्यति जनार्दनम्।
सर्वपापविनिर्मुक्तः, स याति परमं पदम्॥ ६ ॥
=====
बुद्धं
शरणं प्राप्य, धीरं शान्तिं ददाति
यः।
अज्ञानतमसः
शत्रुं, ज्ञानदीपप्रकाशकम्॥ १
॥
करुणासागरं
शान्तं, दुःखत्राणं महाश्रयम्।
सर्वजीवहिते
युक्तं, तथागतं नमाम्यहम्॥ २ ॥
बोधिवृक्षसमासीनं, चिन्मुद्रामणिनायकम्।
संसरामृतनाशाय, धर्मचक्रं प्रवर्तकम्॥ ३ ॥
सम्यग्दृष्टिप्रदं
शुद्धं, सम्यक्संकल्पनायकम्।
आहिंसायाः
प्रणेतेर्यं, बुद्धं तं
प्रणमाम्यहम्॥ ४ ॥
चतुर्नयप्रदं
श्रेष्ठं, मार्गदर्शनकारकम्।
सर्वदुःखविनाशाय, तं बुद्धं शरणं व्रजे॥ ५ ॥
निर्वाणप्राप्तिकारणं, मोक्षदं सततं महम्।
संसरक्लेशहारिणं, धीरं बुद्धं नमाम्यहम्॥ ६ ॥
प्रज्ञावन्तं
तपोनिष्ठं, शीलसम्पन्नमुत्तमम्।
ध्यानसमाधिसंयुक्तं, तं बुद्धं प्रणमाम्यहम्॥ ७ ॥
सर्वक्लेशविनाशाय, सर्वजीवहिते रतम्।
सर्वत्र
विजयं यान्तं, बुद्धं धीरं नमाम्यहम्॥
८ ॥
=====
=====
मंद
मंद मन मैं मुस्काऊँ,
तुझपे
मैं इक गीत बनाऊँ।
=====
हर
पल हर क्षण इनवेस्ट कर,
यूँ
हीं जीवन ना वेस्ट कर।
ना
रेस्ट कर, जेस्ट कर, रिकुवेस्ट कर, टेस्ट
कर
===
मेट्रो
ब्रीज का काम चला हो ,कूड़ा कचरा जहाँ पड़ा हो
।
गली
नाले में जमा जो कंकड़,साफ़ सफाई कर मिल
जुलकर।
नहीं
एक की जिम्मेदारी ,हम सब की भी अपनी
बारी।
आपस
में हम सब मिल जुल कर ,अपने अपने कर्म निभाएं
।
कुड़े
कचड़े साफ कराएं , पेड़ लगाएं शहर बचाएं ।
=====
पत्थर
धर सर पर चलते हैं मजदूरों के घर मिलते हैं,
टोपी
कुर्ता कभी जनेऊ कंधे पर धारण करते हैं।
कंघा
पगड़ी जाने क्या क्या सब तो है तैयार,
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
अल्लाह
नाम भज लेते भाई राम नाम जप लेते भाई,
मंदिर
मस्जिद स्वाद लगी अब गुरुद्वारे चख लेते भाई।
जीसस
का भी भोग लगा जाते साई दरबार,
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
नैन
मटक्का पे भी यूँ ना छेड़ो तीर कमान,
चूक
वुक तो होती रहती भारत देश महान ,
गले
पड़े तो शोर शराबा क्योंकर इतनी बार?
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
=====
माना
उनके कहने का कुछ ऐसा है अन्दाज,
हँसी
कभी आ जाती हमको और कभी तो लाज।
भूल
चुक है माना पर माफी दे दो इस बार।
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
प्रजातंत्र
में तो होते रहते है एक बवाल,
चमचों
में रहतें है जाने कैसे देश का हाल।
सीख
जाएंगे देश चलाना आये जो इस बार।
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
फ़टी
जेब ले चलते जग में छाले पड़ जाते हैं पग में,
मर्सिडीज
पे उड़ने वाले क्या क्या कष्ट सहे हैं जग में।
जोगी
बन दर घूम रहे हैं मेरे राज कुमार,
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
=====
मेहनत
में कोई कमी नही पर एक बात का रोना,
किस्मत
की हीं खोट नोट का ना डिपोजल होना।
तिसपे
भारी लगती लगती ई.वी.एम.की मार,
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
जिसे
देश चलाना एक दिन ढूंढे अपना फ्यूचर,
जन्म
पत्री तो ठीक ठाक कहते हैं ये कंप्यूटर।
राहु
केतु जो आन पड़े हैं कर दो बेड़ा पार।
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
=====
कभी
जरूरत आन पड़े , टोकूंगा नहीं,
सही
काम करने पर , रोकूंगा नहीं।
उस
सब्र की आखिर दवा क्या है ?
हवा
क्या है
लमफट
चंफट बमफट संकट में
पयाम, सलाम, इंतजाम,नाम, गुलाम,बदनाम,एहतिमाम
=====
पतोह
का प्रेम दिखाना, सास को बचाना,कमासूत सास
पतली
गली से सास को जाने में दिक्कत, ट्रक है क्या
सपने
के फायदे, कहीं भी घूम आओ
======
चर्च
बन्द है टेम्पल बन्द,
गुरुद्वारा
व मस्जिद बन्द,
ठंडी
की महिमा कुछ ऐसी,
पानी
दिखता एटम बम।
=====
देश
में नए विधान की
आन
पड़ी है आज जरूरत,
देश
में नए विधान की,
नए
समय में नई समस्या ,
मांगे
नए निदान की।
कभी
गुलामी की बेड़ी थी ,
अंग्रेजों
का शासन था,
इतिहास
का काला पन्ना,
वो
काला अनुशासन था।
गुलामी
की जंजीरों को,
जेहन
में रख क्या होगा?
अंग्रेजों
से नफरत की,
बातों
को रख कर क्या होगा?
इतिहास
में जो चलता था,
आज
भी वो ही जरूरी हो,
भूतकाल
में जो फलता ,
क्या
पता आज मजबूरी हो।
आज
सभी को साथ मिलाकर ,
रचने
नए प्रतिमान की,
यही
वक्त है गाथा लिखने,
भारत
देश महान की।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
मूषक
गीता
बाबा
जी ये मुझको क्या देते हैं मूषक ज्ञान,
प्रभु
उन्हीं को मिलते देते जो चूहों को मान?
ध्यान
नेत्र को थोड़ा हिला के निजआसान को जरा डुला के,
बाबाजी
ने पाठ पठाया, मूषक गीता को समझाया।
बोले
ध्यान में मूषक बाधा, कपड़ों को कर देते आधा,
पर
इनसे तुम ना घबड़ाना, निज जिह्वा में प्रेम
बसाना।
अपनी
गलती थी ना माना, गुरु ज्ञान था कदर ना
जाना,
मूषक
के खाने के हेतु , बिल्ली थी एक जरिया
सेतु।
फिर
बिल्ली की जान बचाने, रोज रोज को दूध पिलाने,
ले
आया था फिर एक गाय,वही समस्या वो ही हाय।
फिर
गाय को घास चराने, समय समय पर उसे घुमाने,
ढूंढ
ढांढ के लड़की लाया, प्रेम पाश में मैं
पछताया।
चूहे
का चक्कर कुछ ऐसा ,जग माया घनचक्कर जैसा।
मेरी
बात सच है ये जानो, मूषक को युवती हीं
जानो।
तब
हीं बेड़ा पार लगेगा, मूषक ज्ञान से ध्यान
सधेगा।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
सासू
मां को पाठ पढ़ाया
ना
जाने किस घाट घुमाया,
सासू
मां को पाठ पढ़ाया?
जाने
क्या थी घुटी पिलाई,
सासूजी
का दिल भर आया।
दिल
भर आया बोली रानी,
तुझको
है एक बात बतानी।
क्यों
सहमी सी डरती रहती,
क्यों
बात ऐसी बहुरानी?
ससुराल
भी नैयर जैसा,
अंतर
घी मैहर में कैसा?
एक
दूध से मक्खन बनता,
फिर
मठ्ठा से रैहर कैसा?
बस
तुझको बस इतना कहना,
तू
हीं मेरे दिल का गहना।
जो
इच्छा हो मुझे बताओ
ससुराल
को समझो अपना।
सासू
मां की बात जान के,
उनके
मन के राज जान के।
बहुरानी
समझी घर अपना,
बोली
उनको मां मान के।
माता
उठकर चाय बनाओ,
सूत
उठकर मुझे पिलाओ।
थोड़ा
सा सर भारी लगता,
हौले
हौले जरा दबाओ।
पैसा
रखा जो बचा बचा के,
घर
से थोड़ा दबा दबा के।
बनवा
दो मुझको तुम गहना,
सासू
मां इतना बस कहना।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
बुद्धि
अर्थ में बेहतर कौन?
बुद्धि
अर्थ में बेहतर कौन ,
प्रश्न
कठिन था उत्तर मौन ?
कठिन
प्रश्न था आखिर चिंटू ,
तन
मन उलझा भारी।
ज्ञान
या पैसे के पीछे ,
अपनी
करे सवारी।
अपनी
उलझन लेके चिंटू ,
पहुंचा
पिंटू पास।
चुटकी
में वो सुलझ गई ,
जो
भी उलझन थी खास।
पिंटू
बोला जो सुलभ हो ,
तो
क्यों भागे पीछे।
जिसे
प्राप्त करना हो मुश्किल,
चल
तू आँखे मींचे ।
अर्थ
बहुत मुश्किल से मिलता ,
जिससे
भी तू मांगे ।
और
ज्ञान तो सब देते हैं ,
बिन
बोले बिन मांगे ।
इसीलिए
कहता हूँ चिंटू ,
पैसा
रख तू पास।
यही
ज्ञान है बिन पैसे का,
कर
ले तू विश्वास।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
राजनीति
की नई मांग पर , यौवन है लाचार
वक्त
रचाता अजब स्वांग है, कुंवारों की आज मांग
है,
राहुल, ममता ,माया, मोदी इनके हीं न्यारे डिमांड है।
देखो
कुछ तो त्यागे बीबी कुछ त्यागे भातार,
राजनीति
की नई मांग पर , यौवन है लाचार।
वक्त
पड़े तो दुश्मन से भी हो सकता गठ योग,
एक
राह है सबका सबसे मिल सकता सहयोग।
है
सबके मन के अंधियारे सपने एक हजार,
एक
बार तो तब मन धन से हो जाओ तैयार।
गठबंधन
का लोभ यही है सत्ता का सुखभोग सही है,
ना
मुद्दा ना नीति भईया, कुर्सी का रस योग सही
है।
पद
पा लो किसी भांति करके , जोड़ तोड़ जुगाड़,
तब
जाके कुर्सी का बंधु , सपना हो स्वीकार ।
@अजय अमिताभ सुमन
झापड़, पापड़
=====
कौन
मेघ गर्जन में शामिल? #God #Spiritual #Poetry #Micropoetry
#Instapoem #Poetryhub #Kavita #Viral #Viralpoetry #Short
कौन
मेघ गर्जन में शामिल?झिंगुर के गायन में
शामिल?
कौन
सृष्टि को देता वाणी?सर्व व्याप्त पर रहता
मौन?
कौन
सीपी में मोती धरता, कौन आखों में ज्योति
भरता ,
चर्म
कवच कच्छप को देता,कभी सर्प का जो हर
लेता।
कौन
सुगंधि है फूलों की?और तीक्ष्ण चुभन शूलों
की?
कौन
आम के मंजर में है?मरू भूमि में, बंजर में है?
जो
द्रष्टा हर कण कण क्षण का , पर दृष्टि को रहता गौण,
और
सृष्टि को देता वाणी , सर्व व्याप्त पर रहता
मौन?
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
ना
नटखट मैं ना शैतान #Kid #Prayer #Poetry
#Micropoetry #Instapoem #Poetryhub #Kavita #Viral #Viralpoetry #Short #Humour
#Laughter
ना
नटखट मैं ना शैतान
ना
बालक हूं एक शैतान ,
कर
दे ईश्वर इतना काम,
एक
वीक छुट्टी मिल जाए ,
जो
मुझको हो जाए जुकाम।
दूध
देख के उल्टी आती ,
भिन्डी
भी है बहुत सताती,
खाने
की भी चीज है कोई ,
बैगन
कटहल लौकी भाजी।
मैगी
बर्गर गरम समोसे ,
छोले
कुलचे इडली डोसे ,
दूध
मलाई मक्खन हलवा ,
दादी
भर भर नरम पड़ोसे।
हे
भगवान तुम ज्ञानी दानी ,
और
क्या मांगू तुझसे दान,
मोच
टांग में आ जाए जो ,
टीचर
के बन जाए काम।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
आँखों
का पानी
सपनों
को मुठ्ठी में करने, के सपने ना सोने देते।
साहब
की आंखों को ऐसे,हीं सपने ना रोने
देते।
ख्वाब
नहीं ऐसे बनते हैं,सपने सच्चे बन फलते
हैं।
इनके
घर तब रोशन होता,जब गरीब जन जल पड़ते
हैं।
बेशर्मी
से सींच सींच कर, दिल से आंखे मींच मींच
कर।
एक
गरीब की आंखों में जो,दुख का दरिया दे देते,
वो
ही साहब की आंखों में,पानी ना होने देते।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
तिनका
तिनका सजा सजाकर #Creator #Existence,
#Poetry #Micropoetry #Instapoem #Poetryhub #Kavita #Viral #Viralpoetry #Short
तिनका
तिनका सजा सजाकर,अवनि को महकाता कौन?
धारण
करता जो सृष्टि को,पर सृष्टि में रहता
मौन।
कैसे
वन वन उड़े कपोती?अग्नि से निकले क्यों
ज्योति,
किस
भांति बगिया में कलरव,कोयल की गायन होती?
भिन्न
भिन्न से रंग सजाकर ,गुलों में रख आता है,
हर
सावन में इन्द्रधनुष को ,अम्बर में चमकाता कौन?
तिनका
तिनका सजा सजाकर,अवनि को महकाता कौन?
धारण
करता जो सृष्टि को,पर सृष्टि में रहता
मौन।
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
लाल
लिपस्टिक अगर लगाओ ,
मन
वांछित वर सुलभ हीं पाओ ।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
मौन
हो तुम?
हिंदू
हो या मुस्लिम भाई,
सिख,यहूदी या हो ईसाई।
बौद्ध
जैन का कोई सपना,
हृदय
लगाए जैसे गहना।
कौन
हो तुम?
बाल
शिशु या तरुण जवानी,
युवा
प्रौढ़ की कोई कहानी ।
या
नर का नर हुआ विकर्षण,
या
नारी से काम आकर्षण।
यौन
हो तुम?
एक
देश का एक निवासी,
बाकी
सारे लगे प्रवासी।
एक
राष्ट्र को प्रेम समर्पित,
निजजीवन
को करते अर्पित।
जौन
हो तुम?
एक
जाति के एक धर्म के,
एक
भाव हीं एक मर्म के।
निजजाति
का ज्ञान लिए हो,
गौरव
का सम्मान जिए हो।
तौन
हो तुम?
युवा
युवती या कोई मानव,
साधु
संत या कोई दानव।
जग
का रसिया या जगरागी,
या
जग से तुम चले वैरागी।
बौन
हो तुम?
छोटा
सा आधार लिए हो,
छोटा
सा विचार लिए हो।
छोटा
सा आकार लिए हो,
छोटा
सा संसार लिए हो।
गौण
हो तुम?
बसता
है जिसमें संसार,
वो
अपरिमित निराकार।
इतने
में कैसे रख लोगे?
ईश्वर
को कैसे चख लोगे?
मौन
हो तुम?
अजय
अमिताभ सुमन
=====
चिम्पू
की ना खुले जुबान
कार
में जाके कूद के चिम्पू,
जो
बैठा धपाक,
खुली
थी खिड़की सीट पर पानी,
पड़ने
लगा छपाक।
गेट
खोल के निकला चिम्पू ,
बटन
खोल के निकला चिम्पू।
गुस्से
में था आखं निकाले,
चीख
चीख के बम फोड़ डाले।
किसकी
शामत आई आज ,
किसकी
ऐसी है औकात?
कौन
है अंधा आँख नहीं हैं ,
बुद्धि
की कोई बात नहीं है ?
कौन
है ऐसा पाठ पढ़ा दूँ,
चलते
कैसे ज्ञात करा दूँ ?
शोर
सुन के आए ताऊ ,
पूछे
किसकी हलक दबाऊ?
किसकी
चर्बी आज चढ़ी है ?
बुद्धि
किसकी आज बुझी है ?
देख
के आगे एक पहलवान ,
चिम्पू
की ना खुले जुबान।
अकल
घुमाई जोर लगाया,
तब
जाके कुछ समझ में आया।
बोला
क्या कहते हैं ताऊ,
कार
थी गन्दी कामचलाऊ।
कैसा
ये शुभकाम हुआ है ,
मेरे
कार का नाम हुआ है।
चमचम
गाड़ी चमचम सीट,
और
थोड़ा पानी दें छीट ।
=====
धनिया
नींबू दाम बढ़ेगा
धनिया
नींबू दाम बढ़ेगा,
कब
तक बोलो कब तक?
सी.एन.जी.
का नाम बढ़ेगा,
कबतक
आखिर कबतक?
जनता
की पीड़ा तो हर लो,
कीमत
आटे की कम कर लो।
रोटी
के अन्धे क्या गाए ,
बेहतर
भारत कब तक?
भूख
मिटी तो सब नाचेंगे ,
बेस्ट
देश है सब गाएंगे।
पेट
क्षुधा की मार है भारी ,
देश
प्रेम पे अब तक।
भारत
की तुम गाथा गाते,
पावन
मिट्टी कथा बताते।
दिल
की अपनी पीड़ सुनाएं,
व्यथा
बताएं कब तक?
सारे
जहाँ से सच्चा कैसे?
देश
हमारा अच्छा कैसे?
कंधे
पर क्यों झंडा लाएं?
त्राण
मिलेगा कब तक?
धनिया
नींबू दाम बढ़ेगा,
कब
तक बोलो कब तक?
अजय
अमिताभ सुमन
=====
इस
जगत में वेदना का
इस
जगत में वेदना का ,
दरअसल
निदान क्या हो?
कष्ट
पीड़ा से हो मुक्ति,
वेदना
परित्राण क्या हो?
शक्ति
संचय से अगर हीं,
वेदना
का त्याग हो तो,
पद
प्रतिष्ठा से अगर ,
संवेदना
परित्याग हो तो।
जग
को जीता हुआ जग,
त्याग
बिन बोले हुए,
क्यों
सिकंदर जा रहा था,
हाथ
को खोले हुए।
हिम
शिखर सी भी ऊंचाई,
प्राप्त
कर निर्मुक्त हो,
क्या
तुझे दृष्टति है मानव,
जो
पीड़ा से मुक्त हो?
शक्ति
संचय से कदाचित,
नर
की चाहत बढ़ हीं जाती,
पद
प्रतिष्ठा मान शक्ति ,
नर
के सर में चढ़ ही जाती।
किंतु
हासिल सुख हो अक्षय,
धन
आदि परिमाण क्या हो?
इस
जगत में वेदना का ,
दरअसल
निदान क्या हो?
अजय
अमिताभ सुमन
=====
ओ
मरघट के मूल निवासी,
भोले
भाले शिव कैलाशी।
यदा
कदा मन आकुल व्याकुल,
जग
जाता अंतर सन्यासी।
जब
जग बन्धन जुड़ जाते हैं,
भाव
सागर को मुड़ जाते हैं।
इस
भव में यम के जब दर्शन,
मन
इक्छुक होता वनवासी।
मन
ईक्षण है चाह तुम्हारा,
चेतन
प्यासा छांह तुम्हारा।
ईधर
उधर प्यासा बन फिरता,
कभी
मथुरा कभी काशी ।
ओ
मरघट के मूल निवासी,
भोले
भाले शिव कैलाशी।
ओ
मरघट के मूल निवासी
अजय
अमिताभ सुमन
=====
ये
ढूंढ रहे किसको जग में शामिल तो हूँ तेरे रग में,
तेरा
हीं तो चेतन मन हूँ क्यों ढूंढे पदचिन्हों में डग में।
नहीं
कोई बाहर से तुझको ये आवाज लगाता है,
अब
तक भूल हुई तुझसे कैसे अल्फाज बताता है ।
है
फर्क यही इतना बस कि जो दीपक अंधियारे में,
तुझको
इक्छित मिला नही दोष कभी उजियारे में।
=====
सूरज
तो पूरब में उगकर रोज रोज हीं आता है,
जो
भी घर के बाहर आए उजियारा हीं पाता है।
ये
क्या बात हुई कोई गर छिपा रहे घर के अंदर ,
प्रज्ञा
पे पर्दा चढ़ा रहे दिन रात महीने निरंतर।
बड़े
गर्व से कहते हो ये सूरज कहाँ निकलता है,
पर
तेरे कहने से केवल सत्य कहाँ पिघलता है?
========
सूरज
भी है तथ्य सही पर तेरा भी सत्य सही,
दोष
तेरेअवलोकन में अर्द्धमात्र हीं कथ्य सही।
आँख
मूंदकर बैठे हो सत्य तेरा अँधियारा है ,
जरा
खोलकर बाहर देखो आया नया सबेरा है।
इस
सृष्टि में मिलता तुमको जैसा दृष्टिकोण तुम्हारा,
तुम
हीं तेरा जीवन चुनते जैसा भी संसार तुम्हारा।
=====
बुरे
सही अच्छे भी जग में पर चुनते कैसा तुम जग में,
तेरे
कर्म पर हीं निर्भर है क्या तुमको मिलता है डग में।
बात
सही तो लगती धीरे धीरे ग्रंथि सुलझ रही थी ,
गाँठ
बड़ी अंतर में पर किंचित ना वो उलझ रही थी।
पर
उत्सुक हो रहा द्रोणपुत्र देख रहा आगे पीछे ,
कौन
अनायास बुला रहा उस वाणी से हमको खींचे?
========
ना
पेड़ पौधा खग पशु कोई ना दृष्टिगोचित कोई नर,
बार
बार फिर बुला रहा कैसे मुझको अगोचित स्वर।
गंध
नहीं है रूप नहीं है रंग नहीं है देह आकार,
फिर
भी कर्णों में आंदोलन किस भाँति कंपन प्रकार।
क्या
एक अकेले रहते चित्त में भ्रम का कोई जाल पला,
जो
भी सुनता हूँ निज चित का कोई माया जाल फला।
=====
या
उम्र का हीं ये फल है लुप्त पड़े थे जो विकार,
जाग
रहें हैं हौले हौले सुप्त पड़े सब लुप्त विचार।
नहीं
मित्र ओ नहीं मित्र नहीं ये तेरा कोई छद्म भान,
अंतर
में झांको तुम निज के अंतर में हीं कर लो ध्यान।
ये
स्वर तेरे अंतर हीं का कृष्ण कहो या तुम भगवान,
वो
जो जगत बनाते है वो हीं जगत मिटाते जान।
========
बात
मानकर इसकी क्षण को देखे अब होता है क्या,
आँख
मूंदकर बैठा था वो देखें अब होता है क्या?
कुछ
हीं क्षण में नयनों के आगे दो ज्योति निकट हूई,
तन
से टूट गया था रिश्ता मन की द्योति प्रकट हुई।
इस
धरती के पार चला था देह छोड़ चंदा तारे,
अति
गहन असीमित गहराई जैसे लगते अंधियारे।
-----
सांस
नहीं ले पाता था क्या जिंदा था या सपना था,
ज्योति
रूप थे कृष्ण साथ साथ मित्र भी अपना था।
मुक्त
हो गया अश्वत्थामा मुक्त हो गई उसकी देह ,
कृष्ण
संग भी साथ चले थे और दुर्योधन साथ विदेह।
द्रोण
पुत्र को हुआ ज्ञात कि धर्म पाप सब रहते हैं ,
ये
खुद पे निर्भर करता क्या ज्ञान प्राप्त वो करते हैं ?
फुल
भी होते हैं धरती है और शूल भी होते हैं ,
चित्त
पे फुल खिले वैसे जैसे धरती पर बोते हैं ।
========
आओ
एक किस्सा बतलाऊँ,
एक
माता की कथा सुनाऊँ,
कैसे
करुणा क्षीरसागर से,
ईह
लोक में आती है?
धरती
पे माँ कहलाती है।
स्वर्गलोक
में प्रेम की काया,
ममता, करुणा की वो छाया,
ईश्वर
की प्रतिमूर्ति माया,
देह
रूप को पाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
ब्रह्मा
के हाथों से सज कर,
भोले
जैसे विष को हर कर,
श्रीहरि
की वो कोमल करुणा,
गर्भ
अवतरित आती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
दिव्य
सलोनी उसकी मूर्ति ,
सुन्दरता
में ना कोई त्रुटि,
मनोहारी, मनोभावन करुणा,
सबके
मन को भाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
======
मम्मी
के आँखों का तारा,
पापा
के दिल का उजियारा,
जाने
कितने ख्वाब सजाकर,
ससुराल
में जाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
नौ
महीने रखती तन में,
लाख
कष्ट होता हर क्षण में,
किंचित
हीं निज व्यथा कहती,
सब
हँस कर सह जाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
किलकारी
घर में होती फिर,
ख़ुशियाँ
छाती हैं घर में फिर,
दुर्भाग्य
मिटा सौभाग्य उदित कर,
ससुराल
में लाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
जब
पहला पग उठता उसका,
चेहरा
खिल उठता तब सबका,
शिशु
भावों पे होकर विस्मित ,
मन्द
मन्द मुस्काती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
=====
बालक
को जब क्षुधा सताती,
निज
तन से हीं प्यास बुझाती,
प्राणवायु
सी हर रग रग में,
बन
प्रवाह बह जाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
माँ
की ममता अतुलित ऐसी,
मरु
भूमि में सागर जैसी,
धुप
दुपहरी ग्रीष्म ताप में,
बदली
बन छा जाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
नित
दिन कैसी करती क्रीड़ा,
नवजात
की हरती पीड़ा,
बौना
बनके शिशु अधरों पे,
मृदु
हास्य बरसाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
माँ
हैं तो चंदा मामा है,
परियाँ
हैं, नटखट कान्हा है,
कभी
थपकी और कभी कानों में,
लोरी
बन गीत सुनाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
=====
रात
रात भर थपकी देती,
बेटा
सोता पर वो जगती ,
कई
बार हीं भूखी रहती,
पर
बेटे को खिलाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
जीवन
के दारुण कानन में,
अतिशय
निष्ठुर आनन में,
वो
ऊर्जा उर में कर संचारित,
प्रेमसुधा
बरसाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
यदा
कदा भूखी रह जाती,
पर
बच्चे की क्षुधा बुझाती ,
पीड़ा
हो पर है मुस्काती ,
नहीं
कभी बताती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
शिशु
मोर को जब भी मचले,
दो
हाथों से जुगनू पकड़े,
थाली
में पानी भर भर के,
चाँद
सजा कर लाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
=====
तारों
की बारात सजाती,
बंदर
मामा दूल्हे हाथी,
मेंढ़क
कौए संगी साथी,
बातों
में बात बनाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
छोले
की कभी हो फरमाइस ,
कभी
रसगुल्ले की हो ख्वाहिश,
दाल
कचौड़ी झट पट बनता,
कभी
नहीं अगुताती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
दूध
पीने को ना कहे बच्चा,
दिखलाए
तब गुस्सा सच्चा,
यदा
कदा बालक को फिर ये,
झूठा
हीं धमकाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
बेटा
जब भी हाथ फैलाए ,
डर
के माँ को जोर पुकारे ,
माता
सब कुछ छोड़ छाड़ के ,
पलक
झपकते आती है ,
धरती
पे माँ कहलाती है।
=====
बन्दर
मामा पहन पजामा ,
ठुमक
के गाये चंदा मामा ,
कैसे
कैसे गीत सुनाए ,
बालक
को बहलाती है
धरती
पे माँ कहलाती है।
रोज
सबेरे वो उठ जाती ,
ईश्वर
को वो शीश नवाती,
आशीषों
की झोली से,
बेटे
को सदा बचाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
कभी
धुल में खेले बाबू ,
धमकाए
ले जाए साधू ,
जाने
कैसे बात बता के ,
बाबू
को समझाती है ,
धरती
पे माँ कहलाती है।
जब
ठंडक पड़ती है जग में ,
तीक्ष्ण
वायु दौड़े रग रग में ,
कभी
रजाई तोसक लाकर ,
तन
मन में प्राण जगाती है ,
धरती
पे माँ कहलाती है।
=====
ना
जात पर धरम पर,जन गण का धन हरण कर
टिको
ना तुम करम पर,भ्रष्टाचार है चरम पर,
शामत
पर शामत आई,जनता दे रही दुहाई,
एक
पुल जो बनी थी,दिनों में हीं चरमराई,
और
पूछते है साहब,कौन सी है आफत आई,
और
क्या है तेरे किसी बाप की कमाई,
आंखों
में कुछ शरम कर, जन गण का धन हरण कर
टिको
ना तुम करम पर,भ्रष्टाचार है चरम पर,
भूखों
का ले निवाला तुम भरते जठर ज्वाला,
कईयों
के उदर खाली तुम भरते उदर ज्वाला,
सरकार
के ये पैसे ,कैसे उड़ाते भाई,
जन
गण निज हीं श्रम कर, ये घन उगाते भाई,
जन
गण के संचित धन पर, कुछ तो तू रहम कर
टिको
ना तुम करम पर,भ्रष्टाचार है चरम पर,
ऐसे
हीं जनता रोती अब और ना चिर हरण कर,
भाई
कुछ तो शरम कर, कुछ श्रम कर कुछ श्रम
कर।
=====
मार्ग
एक ही सही नहीं है , अन्य मार्ग भी सही कहीं
है,
परम
तत्व के सब अनुगामी ,ना निज पथ अभिमान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे, किंचित कोई परिणाम
रहे।
कर्मयोग
कहीं राह सही है , भक्ति की कहीं चाह बही
है,
जिसकी
जैसी रही प्रकृत्ति , वैसा हीं निदान रहे।
अवसर
की क्यों करे प्रतीक्षा, ज्ञान धरना और
तितिक्षा,
मुमक्षु
बन बहो निरंतर , हर अवसर प्रभु ध्यान
रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे, किंचित कोई परिणाम
रहे।
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
ईक्छित
तुझको प्राप्त नहीं गर, मंजिल दृष्टित ज्ञात
नहीं गर,
निज
कर्म त्रुटि शोधन हो , निज प्रयासों में
प्राण रहे।
परम
तत्व ना मिले अचानक , परम सत्व के पात्र
कथानक ,
आजीवन
रत श्रम के आदि ,परम ब्रह्म गुणगान
रहे।
एक
जन्म की बात नहीं, नहीं एक वक्त दिन रात
कहीं,
जन्मों
की है खोज प्रतीक्षा, थोड़ा सा तो भान रहे।
अभिमान
, ज्ञान , सम्मान
, गुणगान , त्राण
किंचित
कोई परिणाम रहे, किंचित कोई परिणाम
रहे।
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
प्रश्न
विकट है मेरे मन में,
आए
बारंबार,
क्या
सच में होते हैं लड़के,
भैरव
के अवतार।
ना
कोई व्यापार
लड़के
तो होते हैं भैया
शिव
जी के अवतार,
10 रंग के लाल लिपिस्टिक
भस्म
विभूति, ना कोई श्रृंगार
मीट
भात सब चटल रहे
दांत
आंत पर डटल रहे
पटल, अटल,सकल, सफल,
तरल, तलल, गरल
नाजात
पर धरम पर,जन गण का धन हरण कर
टिको
ना तुम करम पर,भ्रष्टाचार है चरम पर,
शामत
पर शामत आई,जनता दे रही दुहाई,
एक
पुल जो बनी थी,दिनों में हीं चरमराई,
और
पूछते है साहब,कौन सी है आफत आई,
और
क्या है तेरे किसी बाप की कमाई,
आंखों
में कुछ शरम कर, जन गण का धन हरण कर
टिको
ना तुम करम पर,भ्रष्टाचार है चरम पर,
भूखों
का ले निवाला तुम भरते जठर ज्वाला,
कईयों
के उदर खाली तुम भरते उदर ज्वाला,
सरकार
के ये पैसे ,कैसे उड़ाते भाई,
जन
गण निज हीं श्रम कर, ये घन उगाते भाई,
जन
गण के संचित धन पर, कुछ तो तू रहम कर
टिको
ना तुम करम पर,भ्रष्टाचार है चरम पर,
ऐसे
हीं जनता रोती अब और ना चिर हरण कर,
भाई
कुछ तो शरम कर, कुछ श्रम कर कुछ श्रम
कर।
========
जो
उद्भट निज प्रण का किंचित ना जीवन में मान रखे,
उस
योद्धा का जीवन रण में कोई क्या सम्मान रखे?
या
अहन्त्य को हरना था या शिव के हाथों मरना था,
या
शिशार्पण यज्ञअग्नि को मृत्यु आलिंगन करना था?
========
जीवन
पथ की राहों पर घनघोर तूफ़ां जब भी आते हैं,
गहन
हताशा के अंधियारे मानस पट पर छा जाते हैं।
इतिवृत
के मुख्य पृष्ठ पर वो अध्याय बना पाते हैं ,
कंटक
राहों से होकर जो निज व्यवसाय चला पाते हैं।
========
अभी
धरा पर घायल हो पर लक्ष्य प्रबल अनजान नहीं,
विजयअग्नि
की शिखाशांत है पर तुम हो नाकाम नहीं।
दृष्टि
के मात्र आवर्तन से सूक्ष्म विघ्न भी बढ़ जाती है,
स्वविवेक
अभिज्ञान करो कैसी भी बाधा हो जाती है।
========
जिस
नदिया की नौका जाके नदिया के ना धार बहे ,
उस
नौका का बचना मुश्किल कोई भी पतवार रहे?
जिन्हें
चाह है इस जीवन में ईक्छित एक उजाले की,
उन
राहों पे स्वागत करते शूल जनित पग छाले भी।
========
पैरों
की पीड़ा छालों का संज्ञान अति आवश्यक है,
साहस
श्रेयकर बिना ज्ञान के पर अभ्यास निरर्थक है।
व्यवधान
आते रहते हैं पर परित्राण जरूरी है,
द्वंद्व
कष्ट से मुक्ति कैसे मन का त्राण जरूरी है?
========
लड़कर
वांछित प्राप्त नहीं तो अभिप्राय इतना हीं है ,
अन्य
मार्ग संधान आवश्यक तुच्छप्राय कितना हीं है।
सोचो
देखो क्या मिलता है नाहक शिव से लड़ने में ,
किंचित
अब उपाय बचा है मैं तजकर शिव हरने में।
=====
राजनीति
की नई मांग पर , यौवन है लाचार
वक्त
रचाता अजब स्वांग है, कुंवारों की आज मांग
है,
राहुल, ममता ,माया, मोदी इनके हीं न्यारे डिमांड है।
देखो
कुछ तो त्यागे बीबी कुछ त्यागे भातार,
राजनीति
की नई मांग पर , यौवन है लाचार।
वक्त
पड़े तो दुश्मन से भी हो सकता गठ योग,
एक
राह है सबका सबसे मिल सकता सहयोग।
है
सबके मन के अंधियारे सपने एक हजार,
एक
बार तो तब मन धन से हो जाओ तैयार।
गठबंधन
का लोभ यही है सत्ता का सुखभोग सही है,
ना
मुद्दा ना नीति भईया, कुर्सी का रस योग सही
है।
पद
पा लो किसी भांति करके , जोड़ तोड़ जुगाड़,
तब
जाके कुर्सी का बंधु , सपना हो स्वीकार ।
@अजय अमिताभ सुमन
=====
ना
नटखट मैं ना शैतान
ना
बालक हूं एक शैतान ,
कर
दे ईश्वर इतना काम,
एक
वीक छुट्टी मिल जाए ,
जो
मुझको हो जाए जुकाम।
दूध
देख के उल्टी आती ,
भिन्डी
भी है बहुत सताती,
खाने
की भी चीज है कोई ,
बैगन
कटहल लौकी भाजी।
मैगी
बर्गर गरम समोसे ,
छोले
कुलचे इडली डोसे ,
दूध
मलाई मक्खन हलवा ,
दादी
भर भर नरम पड़ोसे।
हे
भगवान तुम ज्ञानी दानी ,
और
क्या मांगू तुझसे दान,
मोच
टांग में आ जाए जो ,
टीचर
के बन जाए काम।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
आँखों
का पानी
सपनों
को मुठ्ठी में करने, के सपने ना सोने देते।
साहब
की आंखों को ऐसे,हीं सपने ना रोने
देते।
ख्वाब
नहीं ऐसे बनते हैं,सपने सच्चे बन फलते
हैं।
इनके
घर तब रोशन होता,जब गरीब जन जल पड़ते
हैं।
बेशर्मी
से सींच सींच कर, दिल से आंखे मींच मींच
कर।
एक
गरीब की आंखों में जो,दुख का दरिया दे देते,
वो
ही साहब की आंखों में,पानी ना होने देते।
अजय
अमिताभ सुमन
======
मौन
हो तुम?
हिंदू
हो या मुस्लिम भाई,
सिख,यहूदी या हो ईसाई।
बौद्ध
जैन का कोई सपना,
हृदय
लगाए जैसे गहना।
कौन
हो तुम?
बाल
शिशु या तरुण जवानी,
युवा
प्रौढ़ की कोई कहानी ।
या
नर का नर हुआ विकर्षण,
या
नारी से काम आकर्षण।
यौन
हो तुम?
एक
देश का एक निवासी,
बाकी
सारे लगे प्रवासी।
एक
राष्ट्र को प्रेम समर्पित,
निजजीवन
को करते अर्पित।
जौन
हो तुम?
एक
जाति के एक धर्म के,
एक
भाव हीं एक मर्म के।
निजजाति
का ज्ञान लिए हो,
गौरव
का सम्मान जिए हो।
तौन
हो तुम?
युवा
युवती या कोई मानव,
साधु
संत या कोई दानव।
जग
का रसिया या जगरागी,
या
जग से तुम चले वैरागी।
बौन
हो तुम?
छोटा
सा आधार लिए हो,
छोटा
सा विचार लिए हो।
छोटा
सा आकार लिए हो,
छोटा
सा संसार लिए हो।
गौण
हो तुम?
बसता
है जिसमें संसार,
वो
अपरिमित निराकार।
इतने
में कैसे रख लोगे?
ईश्वर
को कैसे चख लोगे?
मौन
हो तुम?
अजय
अमिताभ सुमन
=====
चिम्पू
की ना खुले जुबान
कार
में जाके कूद के चिम्पू,
जो
बैठा धपाक,
खुली
थी खिड़की सीट पर पानी,
पड़ने
लगा छपाक।
गेट
खोल के निकला चिम्पू ,
बटन
खोल के निकला चिम्पू।
गुस्से
में था आखं निकाले,
चीख
चीख के बम फोड़ डाले।
किसकी
शामत आई आज ,
किसकी
ऐसी है औकात?
कौन
है अंधा आँख नहीं हैं ,
बुद्धि
की कोई बात नहीं है ?
कौन
है ऐसा पाठ पढ़ा दूँ,
चलते
कैसे ज्ञात करा दूँ ?
शोर
सुन के आए ताऊ ,
पूछे
किसकी हलक दबाऊ?
किसकी
चर्बी आज चढ़ी है ?
बुद्धि
किसकी आज बुझी है ?
देख
के आगे एक पहलवान ,
चिम्पू
की ना खुले जुबान।
अकल
घुमाई जोर लगाया,
तब
जाके कुछ समझ में आया।
बोला
क्या कहते हैं ताऊ,
कार
थी गन्दी कामचलाऊ।
कैसा
ये शुभकाम हुआ है ,
मेरे
कार का नाम हुआ है।
चमचम
गाड़ी चमचम सीट,
और
थोड़ा पानी दें छीट ।
=====
इस
जगत में वेदना का
इस
जगत में वेदना का ,
दरअसल
निदान क्या हो?
कष्ट
पीड़ा से हो मुक्ति,
वेदना
परित्राण क्या हो?
शक्ति
संचय से अगर हीं,
वेदना
का त्याग हो तो,
पद
प्रतिष्ठा से अगर ,
संवेदना
परित्याग हो तो।
जग
को जीता हुआ जग,
त्याग
बिन बोले हुए,
क्यों
सिकंदर जा रहा था,
हाथ
को खोले हुए।
हिम
शिखर सी भी ऊंचाई,
प्राप्त
कर निर्मुक्त हो,
क्या
तुझे दृष्टति है मानव,
जो
पीड़ा से मुक्त हो?
शक्ति
संचय से कदाचित,
नर
की चाहत बढ़ हीं जाती,
पद
प्रतिष्ठा मान शक्ति ,
नर
के सर में चढ़ ही जाती।
किंतु
हासिल सुख हो अक्षय,
धन
आदि परिमाण क्या हो?
इस
जगत में वेदना का ,
दरअसल
निदान क्या हो?
अजय
अमिताभ सुमन
=====
अंधेरे
में जब डर लगता #Fear #Poetry #Micropoetry
#Instapoem #Poetryhub #Kavita #Viral #Viralpoetry #Short
अंधेरे
में जब डर लगता,साहस तब भर जाता कौन ?
जुगनू
सारे जला जला कर,बरगद को चमकाता कौन?
कैसे
पेड़ पर पत्ते आते?पतझड़ में कैसे झड़
जाते?
कैसे
कोयल कूक सुनाती,खेतों में हरियाली
छाती?
चमगादड़
को दिशा दिखाता,बिना आंख बतलाता कौन,
और
रात में उल्लू के, नयनों को ज्योति देता
कौन?
अंधेरे
में जब डर लगता,साहस तब भर जाता कौन ?
जुगनू
सारे जला जला कर,बरगद को चमकाता कौन?
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
जभी
भ्रूण हो गर्भ स्थापित #Existence #Regulation
#Poetry #Micropoetry #Instapoem #Poetryhub #Kavita #Viral #Viralpoetry #Short
जभी
भ्रूण हो गर्भ स्थापित, थन में दूध दिलाता कौन
?
एक
नीति में एक नियम में , सृष्टि को रच लाता कौन?
अगर
अगन शीतल बन जाए, सागर जल को ना धर पाए,
अगर
धूप ना आए अंबर, बागों में कौन फूल
खिलाए?
सहज
नहीं रुक पाता पानी, जब खेतों में वृष्टि
होती,
चक्रवात
का मिटना मुश्किल, जब जब इसकी सृष्टि
होती।
सबके
निज गुण धर्म बनाकर, सही समय पर कर्म फलाकर,
एक
नीति में एक नियम में , सृष्टि को रच लाता कौन?
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
======
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई
बेईमानों
के नमक का, कर्जा बहुत था भारी,
चटी
थी दीमक सारी, ओहदेदार की बीमारी।
कि
कुर्सी के कच्चे चिट्ठे , किरदार खा गई ,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई।
घिसे
हुए थे चप्पल,लाचार की कहानी,
कि
धूल में सने सब ,बेगार की जुबानी।
दफ्तर
के जो थे मारे , अत्याचार खा गई ,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई,
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
थी
भूख की ये मारी, आदत की थी लाचारी,
दफ्तर
के सारे सारे , मक्कारों से थी यारी,
कि
सच के सारे सारे , चौकीदार खा गई ,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई।
तफसीस
क्या करें हम, दफ्तर के सब अधिकारी,
दीमक
से भी सौदा करते, दीमक भी है व्यापारी।
कि
झूठ के वो सारे , व्यापार खा गई,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई।
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
धनिया
नींबू दाम बढ़ेगा
धनिया
नींबू दाम बढ़ेगा,
कब
तक बोलो कब तक?
सी.एन.जी.
का नाम बढ़ेगा,
कबतक
आखिर कबतक?
जनता
की पीड़ा तो हर लो,
कीमत
आटे की कम कर लो।
रोटी
के अन्धे क्या गाए ,
बेहतर
भारत कब तक?
भूख
मिटी तो सब नाचेंगे ,
बेस्ट
देश है सब गाएंगे।
पेट
क्षुधा की मार है भारी ,
देश
प्रेम पे अब तक।
भारत
की तुम गाथा गाते,
पावन
मिट्टी कथा बताते।
दिल
की अपनी पीड़ सुनाएं,
व्यथा
बताएं कब तक?
सारे
जहाँ से सच्चा कैसे?
देश
हमारा अच्छा कैसे?
कंधे
पर क्यों झंडा लाएं?
त्राण
मिलेगा कब तक?
धनिया
नींबू दाम बढ़ेगा,
कब
तक बोलो कब तक?
अजय
अमिताभ सुमन
=====
लकड़बग्घे
से नहीं अपेक्षित
प्रेम
प्यार की भीख,
किसी
मीन से कब लेते हो
तुम
अम्बर की सीख?
लाल
मिर्च खाये तोता
फिर
भी जपता हरिनाम,
काँव-काँव
ही बोले कौआ
कितना
खाले आम।
डंक
मारना ही बिच्छू का
होता
निज स्वभाब,
विषदंत
से ही विषधर का
होता
कोई प्रभाव।
कहाँ
कभी गीदड़ के सर तुम
कभी
चढ़ाते हार?
और
नहीं तुम कर सकते हो
कभी
गिद्ध से प्यार?
जयचंदों
की मिट्टी में ही
छुपा
हुआ है घात,
और
काम शकुनियों का
करना
होता प्रति घात।
फिर
अरिदल को तुम क्यों
देने
चले प्रेम आशीष?
जहाँ-जहाँ
शिशुपाल छिपे हैं
तुम
काट दो शीश।
=====
देश
में नए विधान की
आन
पड़ी है आज जरूरत,
देश
में नए विधान की,
नए
समय में नई समस्या ,
मांगे
नए निदान की।
कभी
गुलामी की बेड़ी थी ,
अंग्रेजों
का शासन था,
इतिहास
का काला पन्ना,
वो
काला अनुशासन था।
गुलामी
की जंजीरों को,
जेहन
में रख क्या होगा?
अंग्रेजों
से नफरत की,
बातों
को रख कर क्या होगा?
इतिहास
में जो चलता था,
आज
भी वो ही जरूरी हो,
भूतकाल
में जो फलता ,
क्या
पता आज मजबूरी हो।
आज
सभी को साथ मिलाकर ,
रचने
नए प्रतिमान की,
यही
वक्त है गाथा लिखने,
भारत
देश महान की।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
मूषक
गीता
बाबा
जी ये मुझको क्या देते हैं मूषक ज्ञान,
प्रभु
उन्हीं को मिलते देते जो चूहों को मान?
ध्यान
नेत्र को थोड़ा हिला के निजआसान को जरा डुला के,
बाबाजी
ने पाठ पठाया, मूषक गीता को समझाया।
बोले
ध्यान में मूषक बाधा, कपड़ों को कर देते आधा,
पर
इनसे तुम ना घबड़ाना, निज जिह्वा में प्रेम
बसाना।
अपनी
गलती थी ना माना, गुरु ज्ञान था कदर ना
जाना,
मूषक
के खाने के हेतु , बिल्ली थी एक जरिया
सेतु।
फिर
बिल्ली की जान बचाने, रोज रोज को दूध पिलाने,
ले
आया था फिर एक गाय,वही समस्या वो ही हाय।
फिर
गाय को घास चराने, समय समय पर उसे घुमाने,
ढूंढ
ढांढ के लड़की लाया, प्रेम पाश में मैं
पछताया।
चूहे
का चक्कर कुछ ऐसा ,जग माया घनचक्कर जैसा।
मेरी
बात सच है ये जानो, मूषक को युवती हीं
जानो।
तब
हीं बेड़ा पार लगेगा, मूषक ज्ञान से ध्यान
सधेगा।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
सासू
मां को पाठ पढ़ाया
ना
जाने किस घाट घुमाया,
सासू
मां को पाठ पढ़ाया?
जाने
क्या थी घुटी पिलाई,
सासूजी
का दिल भर आया।
दिल
भर आया बोली रानी,
तुझको
है एक बात बतानी।
क्यों
सहमी सी डरती रहती,
क्यों
बात ऐसी बहुरानी?
ससुराल
भी नैयर जैसा,
अंतर
घी मैहर में कैसा?
एक
दूध से मक्खन बनता,
फिर
मठ्ठा से रैहर कैसा?
बस
तुझको बस इतना कहना,
तू
हीं मेरे दिल का गहना।
जो
इच्छा हो मुझे बताओ
ससुराल
को समझो अपना।
सासू
मां की बात जान के,
उनके
मन के राज जान के।
बहुरानी
समझी घर अपना,
बोली
उनको मां मान के।
माता
उठकर चाय बनाओ,
सूत
उठकर मुझे पिलाओ।
थोड़ा
सा सर भारी लगता,
हौले
हौले जरा दबाओ।
पैसा
रखा जो बचा बचा के,
घर
से थोड़ा दबा दबा के।
बनवा
दो मुझको तुम गहना,
सासू
मां इतना बस कहना।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
बुद्धि
अर्थ में बेहतर कौन?
बुद्धि
अर्थ में बेहतर कौन ,
प्रश्न
कठिन था उत्तर मौन ?
कठिन
प्रश्न था आखिर चिंटू ,
तन
मन उलझा भारी।
ज्ञान
या पैसे के पीछे ,
अपनी
करे सवारी।
अपनी
उलझन लेके चिंटू ,
पहुंचा
पिंटू पास।
चुटकी
में वो सुलझ गई ,
जो
भी उलझन थी खास।
पिंटू
बोला जो सुलभ हो ,
तो
क्यों भागे पीछे।
जिसे
प्राप्त करना हो मुश्किल,
चल
तू आँखे मींचे ।
अर्थ
बहुत मुश्किल से मिलता ,
जिससे
भी तू मांगे ।
और
ज्ञान तो सब देते हैं ,
बिन
बोले बिन मांगे ।
इसीलिए
कहता हूँ चिंटू ,
पैसा
रख तू पास।
यही
ज्ञान है बिन पैसे का,
कर
ले तू विश्वास।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
मार्ग
एक ही सही नहीं है ,
अन्य
मार्ग भी सही कहीं है,
परम
तत्व के सब अनुगामी ,
ना
निज पथ अभिमान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
साधक
ना साधन का कामी,
ना
साधन की कोई गुलामी,
साधन, साधक , साध्य
एक ना,
ईक्छित
और संधान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
प्रभु
प्रेम का भाव फले जब,
परम
तत्व को हृदय जले जब,
क्या
संकोच नर्तन कीर्तन में ,
मान
रहे अपमान रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
अवसर
की क्यों करे प्रतीक्षा,
ज्ञान
धरना और तितिक्षा,
मुमक्षु
बन बहो निरंतर ,
हर
अवसर प्रभु ध्यान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
ईक्छित
तुझको प्राप्त नहीं गर,
मंजिल
दृष्टित ज्ञात नहीं गर,
निज
कर्म त्रुटि शोधन हो ,
निज
प्रयासों में प्राण रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
परम
तत्व ना मिले अचानक ,
परम
सत्व के पात्र कथानक ,
आजीवन
रत श्रम के आदि ,
परम
ब्रह्म गुणगान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
एक
जन्म की बात नहीं,
नहीं
एक वक्त दिन रात कहीं,
जन्मों
की है खोज प्रतीक्षा,
थोड़ा
सा तो भान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
साधक
ना साधन का कामी,
ना
साधन की कोई गुलामी,
साधन, साधक , साध्य
एक ना,
ईक्छित
और संधान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
=====
याद
रहे जब धनानंद ने शिक्षक का अपमान किया,
धन
अर्थ का मात्र विज्ञ न शिक्षा का सम्मान किया।
तब
कैसे एक शिक्षक की चोटिल चोटी लहराई थी,
शिक्षक
के आगे शासक की शक्ति भी भहराई थी।
किसी
राष्ट्र के आनन में चाणक्य जभी पूजित होंगे।
धनानंद
मिट जायेंगे चंद्रगुप्त तभी शोभित होगें।
जब
राष्ट्र की थाती पर, शिक्षक शिक्षण का जय
होता,
वो
राष्ट्र मान ना खोता है, ना महिमा में कोई क्षय
होता।
इसीलिए
हे शासक गण याचन ऐसा ही शासन दो,
शिक्षक
की गरिमा बची रहे, स्वतंत्र रहे अनुशासन
दो।
फिर
ऐसे ही अनुशासन से, ये देश मेरा जन्नत
होगा,
चाणक्य
जभी पूजित होंगे, ये देश तभी उन्नत
होगा।
=====
गर
दुष्कृत्य रचाकर कोई खुद को कह पाता हो वीर ,
न्याय
विवेचन में निश्चित हीं बाधा पड़ी हुई गंभीर।
=====
भिन्नता
का भाव ना हो, मोह का स्वभाव ना हो,
अर्थ
आदि की विवशता , खिन्नता आभाव ना हो।
=====
आज
त बुझाता फेनू होहिहें लड़ाई
आज
त बुझाता कि होहिहें लड़ाई,
सासवा
पतोहवा में फेनू से भिड़ाई।
बड़ा
दिन से हामार मनावा उदास रहे,
सासवा
पतोहवा में भिड़ंत के प्यास रहे।
देखतानी
आज फेनु बादल घूम आवता,
आपन
पढ़ाई के बड़ाई खूब करावता।
सासू
मुख आपन बड़ाई सुन खूबी आज,
बुझाता
पतोह में आगी लागी खूब आज।
फेनू
दूनी जानी आके हमके बतहिहें,
बानरा
के दू बिलाई पंचवा बनाहिहें।
कवि
कभी माता जी के कभी त लुगाई,
कभी
हेने कभी होने करी तब बड़ाई।
ट्विटर
फेसबुकावा पर माजा बड़ा आई,
लगता
कवि के दिल मिलिहें मिठाई।
सासवा
पतोहवा में फेनू से भिड़ाई,
आज
त बुझाता निक होहिहें लड़ाई।
अजय
अमिताभ सुमन
====
तुम
गुली हो कि डंडा
तुम
डंका हो कि लंका
====
अपनौ
पुत कवि कड़त बड़ाई,
पबाजी
खेलत कबहूं ना आगुताई।
बाथरूम
ककरौच जब आवे,
हनुमान
जी तब याद आवे।
====
शक्ति
संचय से अगर हीं,
वेदना
का त्याग हो तो,
पद
प्रतिष्ठा से अगर ,
संवेदना
परित्याग हो तो।
जग
को जीता हुआ जग,
त्याग
बिन बोले हुए,
क्यों
सिकंदर जा रहा था,
हाथ
को खोले हुए।
======
शक्ति
संचय से कदाचित,
नर
की चाहत बढ़ हीं जाती,
पद
प्रतिष्ठा मान शक्ति ,
नर
के सर में चढ़ ही जाती।
किंतु
हासिल सुख हो अक्षय,
धन
आदि परिमाण क्या हो?
इस
जगत में वेदना का ,
दरअसल
निदान क्या हो?
=====
पोंगा
पंडित काम ना आए,
ना
पोथी ना पतरा,
एक
बात है सुन ले भाई,
लोक
तंत्र है खतरा।
हे
ईश्वर संसार तुम्हारा
अद्भुत
है आकार तुम्हारा,
हे
ईश्वर संसार तुम्हारा
अजय
अमिताभ सुमन
तेरे
हीं नामों को लिखकर
कितने
हीं महाग्रंथ लिखे हैं,
योग
,जोग, नियोग
अधिज्ञाता,
तंत्र
मंत्र आदि ग्रंथ फले हैं।
====
आवाज
रूह की,
ना
तख्त के लिए,
ना
ताज के लिए,
ना
नाम की भी ख्वाहिश,
ना
नाज के लिए,
दफ़न
ना रह जाएं कहीं,
लफ्ज़
कोई सीने में,
मैं
लिखता हूं रूह की,
आवाज
के लिए।
@अजय अमिताभ सुमन
=====
उस
सत में ना चिंता पीड़ा,
ये
जग उसकी है बस क्रीड़ा,
नर
का पर ये जीवन कैसा,
व्यर्थ
विफलता दुख संपीड़ा,
प्रभु
राह की अंतिम बाधा ,
तृष्णा
काम मिटाएं कैसे?
ईश्वर
हीं बसते सब नर में,
ये
पहचान कराएं कैसे?
=====
खुद
को खोने से डरता है,
जीवन
सोने से भरता है,
तिनका
तिनका महल सजाकर,
जीवन
में उठता गिरता है।
प्रभु
प्रेम में खोकर मिलता,
उसको
जग जतलाएं कैसे?
ईश्वर
हीं बसते सब नर में
ये
पहचान कराएं कैसे?
लड़के
तो होते हैं भैया
शिव
जी के अवतार,
सुत
उठ के दिल क्या मांगे भैया ओ.टी.पी.,
सुबह
शाम सब मिल कर गाएं भैया ओ.टी.पी.
फ़ोन
करो या पेमेंट करो , बिल भरो या दिल भरो
सब
ओ.टी.पी., की माया है
10 रंग के लाल लिपिस्टिक
भस्म
विभूति, ना कोई श्रृंगार
मीट
भात सब चटल रहे
दांत
आंत पर डटल रहे
पटल, अटल,सकल, सफल,
तरल, तलल, गरल
अतीत
क्या व्यतीत है , ये काल क्या व्यतीत है,
भूतकाल
की काया में, वर्तमान भयभीत है।
========
किस
किस की नजर को हम देखें,हम सबकी नजर में रहते
हैं,
किस्मत
हीं ऐसी पाई है, हर वक्त सफर में रहते
है।
=======
ना
हो जीवन में लाचारी, भव्य हो वाहन भव्य हो गाड़ी।
इस
हेतु निज आय बढ़ाऊँ, ऐसा एक संसार रचाऊँ।
भव्य
ईमारत भी रचना है, निज बंगला भी तो सपना
है।
धन
धान्य गृह आगत हो, कि लक्ष्मी जी का
स्वागत हो।
निज
नाम ज्ञान सम्मान बढ़े, इनसे मेरी पहचान बढ़े।
कई
अधूरे काम गिना दूँ, सोने पर विश्राम लगा दूँ।
समय
है कम और ज्यादा काम, दूँ
कैसे खुद को विश्राम?
अजय
अमिताभ सुमन
======
जुन
से भी आफत
जुन
से भी आफत जुलाई महीना।
पानी
से राहत अब मिलता कहीं ना।
बादल
इस मौसम में आए हुए हैं।
कीचड़
हीं सड़कों पर छाए हुए हैं।
सब्जी
दुकानों पर आफत है छाई।
चावल
भी लेने को शामत है भाई।
कपड़े
सुखाने को जाएं कहाँ पर।
टपटपटप
बूँदें आ जाती है छत पर।
भींगा
है मौसम ना सुखता पसीना।
जुन
से भी आफत जुलाई महीना।
अजय
अमिताभ सुमन
#आफत #MicroPoetry #Poem #Poetryhub #poetrylovers #poetrygram
#poetryislife #kavita #LaghuKavita #Hindipoet #Hindipoetrylovers
=========
विकट
विघ्न जब भी आता ,या तो भय छा जाता है ,
या
जो सुप्त रहा मानव में , ओज प्रबल आ जाता है।
या
तो भय से तप्त धूमिल , होने लगते मानव के
स्वर ,
या
तो थर्र थर्र कम्पित होने , लगते अरि के कुछ हैं
नर।
==========
या
मर जाये या मारे चित्त में कर के ये दृढ निश्चय,
शत्रु
शिविर को हुए अग्रसर हार फले कि या हो जय।
याद
किये फिर अरिसिंधु में मर के जो अशेष रहा,
वो
नर हीं विशेष रहा हाँ वो नर हीं विशेष रहा ।
==========
क्या
यत्न करता उस क्षण जब युक्ति समझ नहीं आती थी,
त्रिकाग्निकाल
से निज प्रज्ञा मुक्ति का मार्ग दिखाती थी।
अकिलेश्वर
को हरना दुश्कर कार्य जटिल ना साध्य कहीं,
जटिल
राह थी कठिन लक्ष्य था मार्ग अति दू:साध्य कहीं।
=========
अतिशय
साहस संबल संचय करके भीषण लक्ष्य किया,
प्रण
धरकर ये निश्चय लेकर निजमस्तक हव भक्ष्य किया।
अति
वेदना थी तन में निज मस्तक अग्नि धरने में ,
पर
निज प्रण अपूर्णित करके भी क्या रखा लड़ने में?
========
जो
उद्भट निज प्रण का किंचित ना जीवन में मान रखे,
उस
योद्धा का जीवन रण में कोई क्या सम्मान रखे?
या
अहन्त्य को हरना था या शिव के हाथों मरना था,
या
शिशार्पण यज्ञअग्नि को मृत्यु आलिंगन करना था?
========
जीवन
पथ की राहों पर घनघोर तूफ़ां जब भी आते हैं,
गहन
हताशा के अंधियारे मानस पट पर छा जाते हैं।
इतिवृत
के मुख्य पृष्ठ पर वो अध्याय बना पाते हैं ,
कंटक
राहों से होकर जो निज व्यवसाय चला पाते हैं।
========
अभी
धरा पर घायल हो पर लक्ष्य प्रबल अनजान नहीं,
विजयअग्नि
की शिखाशांत है पर तुम हो नाकाम नहीं।
दृष्टि
के मात्र आवर्तन से सूक्ष्म विघ्न भी बढ़ जाती है,
स्वविवेक
अभिज्ञान करो कैसी भी बाधा हो जाती है।
========
जिस
नदिया की नौका जाके नदिया के ना धार बहे ,
उस
नौका का बचना मुश्किल कोई भी पतवार रहे?
जिन्हें
चाह है इस जीवन में ईक्छित एक उजाले की,
उन
राहों पे स्वागत करते शूल जनित पग छाले भी।
========
पैरों
की पीड़ा छालों का संज्ञान अति आवश्यक है,
साहस
श्रेयकर बिना ज्ञान के पर अभ्यास निरर्थक है।
व्यवधान
आते रहते हैं पर परित्राण जरूरी है,
द्वंद्व
कष्ट से मुक्ति कैसे मन का त्राण जरूरी है?
========
लड़कर
वांछित प्राप्त नहीं तो अभिप्राय इतना हीं है ,
अन्य
मार्ग संधान आवश्यक तुच्छप्राय कितना हीं है।
सोचो
देखो क्या मिलता है नाहक शिव से लड़ने में ,
किंचित
अब उपाय बचा है मैं तजकर शिव हरने में।
=====
लकड़बग्घे
से नहीं अपेक्षित
लकड़बग्घे
से नहीं अपेक्षित प्रेम प्यार की भीख,
किसी
मीन से कब लेते हो तुम अम्बर की सीख?
डंक
मारना ही बिच्छू का होता निज स्वभाब,
विषदंत
से ही विषधर का होता कोई प्रभाव।
फिर
अरिदल को तुम क्यों देने चले प्रेम आशीष?
जहाँ-जहाँ
शिशुपाल छिपे हैं तुम्हीं बचाओ शीश।
अजय
अमिताभ सुमन
============
राजनीति
की नई मांग पर , यौवन है लाचार
वक्त
रचाता अजब स्वांग है, कुंवारों की आज मांग
है,
राहुल, ममता ,माया, मोदी इनके हीं न्यारे डिमांड है।
देखो
कुछ तो त्यागे बीबी कुछ त्यागे भातार,
राजनीति
की नई मांग पर , यौवन है लाचार।
वक्त
पड़े तो दुश्मन से भी हो सकता गठ योग,
एक
राह है सबका सबसे मिल सकता सहयोग।
है
सबके मन के अंधियारे सपने एक हजार,
एक
बार तो तब मन धन से हो जाओ तैयार।
गठबंधन
का लोभ यही है सत्ता का सुखभोग सही है,
ना
मुद्दा ना नीति भईया, कुर्सी का रस योग सही
है।
पद
पा लो किसी भांति करके , जोड़ तोड़ जुगाड़,
तब
जाके कुर्सी का बंधु , सपना हो स्वीकार ।
@अजय अमिताभ सुमन
=====
ना
नटखट मैं ना शैतान
ना
बालक हूं एक शैतान ,
कर
दे ईश्वर इतना काम,
एक
वीक छुट्टी मिल जाए ,
जो
मुझको हो जाए जुकाम।
दूध
देख के उल्टी आती ,
भिन्डी
भी है बहुत सताती,
खाने
की भी चीज है कोई ,
बैगन
कटहल लौकी भाजी।
मैगी
बर्गर गरम समोसे ,
छोले
कुलचे इडली डोसे ,
दूध
मलाई मक्खन हलवा ,
दादी
भर भर नरम पड़ोसे।
हे
भगवान तुम ज्ञानी दानी ,
और
क्या मांगू तुझसे दान,
मोच
टांग में आ जाए जो ,
टीचर
के बन जाए काम।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
जीवन
रण ऐसे लड़ता हूँ
प्रश्न
चिन्ह सा लक्ष्य दृष्टि में,
निज
बल से सृष्टि रचता हूँ।
फुटपाथ
पर रहने वाला,
ऐसे
निज जीवन गढ़ता हूँ।
माना
द्रोण नहीं मिलते हैं,
भीष्म
दृष्टि में ना रहते हैं।
परशुराम
से क्या अपेक्षण,
श्राप
गरल हीं तो मिलते हैं।
एकलव्य
सा ध्यान लगाकर,
निज
हीं शास्त्र संधान चढ़ाकर।
फूटपाथ
पर रहने वाला,
फुटपाथ
पर हीं पढ़ता हूँ।
ऐसे
हीं रण मैं लड़ता हूँ,
जीवन
रण ऐसे लड़ता हूँ।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
अंधेरे
में जब डर लगता #Fear #Poetry #Micropoetry
#Instapoem #Poetryhub #Kavita #Viral #Viralpoetry #Short
अंधेरे
में जब डर लगता,साहस तब भर जाता कौन ?
जुगनू
सारे जला जला कर,बरगद को चमकाता कौन?
कैसे
पेड़ पर पत्ते आते?पतझड़ में कैसे झड़
जाते?
कैसे
कोयल कूक सुनाती,खेतों में हरियाली
छाती?
चमगादड़
को दिशा दिखाता,बिना आंख बतलाता कौन,
और
रात में उल्लू के, नयनों को ज्योति देता
कौन?
अंधेरे
में जब डर लगता,साहस तब भर जाता कौन ?
जुगनू
सारे जला जला कर,बरगद को चमकाता कौन?
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
जभी
भ्रूण हो गर्भ स्थापित #Existence #Regulation #Poetry
#Micropoetry #Instapoem #Poetryhub #Kavita #Viral #Viralpoetry #Short
जभी
भ्रूण हो गर्भ स्थापित, थन में दूध दिलाता कौन
?
एक
नीति में एक नियम में , सृष्टि को रच लाता कौन?
अगर
अगन शीतल बन जाए, सागर जल को ना धर पाए,
अगर
धूप ना आए अंबर, बागों में कौन फूल
खिलाए?
सहज
नहीं रुक पाता पानी, जब खेतों में वृष्टि
होती,
चक्रवात
का मिटना मुश्किल, जब जब इसकी सृष्टि
होती।
सबके
निज गुण धर्म बनाकर, सही समय पर कर्म फलाकर,
एक
नीति में एक नियम में , सृष्टि को रच लाता कौन?
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
======
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई
बेईमानों
के नमक का, कर्जा बहुत था भारी,
चटी
थी दीमक सारी, ओहदेदार की बीमारी।
कि
कुर्सी के कच्चे चिट्ठे , किरदार खा गई ,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई।
घिसे
हुए थे चप्पल,लाचार की कहानी,
कि
धूल में सने सब ,बेगार की जुबानी।
दफ्तर
के जो थे मारे , अत्याचार खा गई ,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई,
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
थी
भूख की ये मारी, आदत की थी लाचारी,
दफ्तर
के सारे सारे , मक्कारों से थी यारी,
कि
सच के सारे सारे , चौकीदार खा गई ,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई।
तफसीस
क्या करें हम, दफ्तर के सब अधिकारी,
दीमक
से भी सौदा करते, दीमक भी है व्यापारी।
=====
उस
सत में ना चिंता पीड़ा,
ये
जग उसकी है बस क्रीड़ा,
नर
का पर ये जीवन कैसा,
व्यर्थ
विफलता दुख संपीड़ा,
प्रभु
राह की अंतिम बाधा ,
तृष्णा
काम मिटाएं कैसे?
ईश्वर
हीं बसते सब नर में,
ये
पहचान कराएं कैसे?
=====
खुद
को खोने से डरता है,
जीवन
सोने से भरता है,
तिनका
तिनका महल सजाकर,
जीवन
में उठता गिरता है।
प्रभु
प्रेम में खोकर मिलता,
उसको
जग जतलाएं कैसे?
ईश्वर
हीं बसते सब नर में
ये
पहचान कराएं कैसे?
======
सम्मान
भाड़
में गया ईगो विगो,
और
भाड़ सम्मान,
बंधु
जेब में होने चाहिए,
भर
के नोट तमाम,
भर
के नोट तमाम।
@अजय अमिताभ सुमन
चाय
बात
यूं ना थी कि चाय,
कैसे
हलक में अटक गई,
बात
यूं थी दरअसल ,
कि
प्याली थी झूठ की,
और
सच गटक गई
@अजय अमिताभ सुमन
पहचान
लोग
पूछते हैं मुझसे,
मेरे
मजहब का नाम,
नाकाफी
है शायद,
मेरा
इंसान होना।
@अजय अमिताभ सुमन
हादसा
अखबार
में आ जाए,
ये
तय नहीं है,
हादसा
तो है,
पर
समय नहीं है।
@अजय अमिताभ सुमन
====
=====
=====
अकड़
कुछ ज्यादा
आग
तो है कम पर लकड़ कुछ ज्यादा ,
अकल
पर पड़ी है मकड़ कुछ ज्यादा।
दरिया
के राही ओ ये भी तो देख लो,
कि
पानी तो कम है पर मगड़ कुछ ज्यादा।
लड़ने
का शौक है तो लड़ लो तुम शौक से,
सामने
है खेल में जो पकड़ कुछ ज्यादा।
भिड़ने
का कायदा है कुछ तो हो फायदा,
ये
क्या बिन बात के यूँ झगड़ कुछ ज्यादा।
गिर
कर मैदान में जो इतने से खुश हो कि,
चोट
लगी कम है और अकड़ कुछ ज्यादा।
कि
कहते हैं लोग जो तो इसमें गलत क्या,
उम्र
बढ़ी बुद्धि पर जकड़ है कुछ ज्यादा।
अजय
अमिताभ सुमन
#अकड़ #MicroPoetry #Poem #Poetryhub #poetrylovers #poetrygram
#poetryislife #kavita #LaghuKavita #Hindipoet #Hindipoetrylovers
======
सुखी
आंतें हक की बातें,
भूखे
आँखें तन की बातें,
जनतंत्र
में जन के सपने,
कहते
सब हैं जन की बातें,
पक्ष
विपक्ष सब लड़ते रहते,
जन
की बातें करते रहते,
इनका
लड़ना मात्र छलावा,
=====
आहट
गर्मी
की लहरें क्या आफत बड़ी थी,
तपती
दुपहरी में शामत पड़ी थी।
खिड़की
से आती थी लू की वो लपटें,
जी
को बस ठंडक की चाहत बड़ी थी।
जरूरी
नहीं कि लू लहरी कुछ नम हो,
इतना
हीं काफी कि गर्मी कुछ कम हों।
बारिश
जो आई है ठंडक जो लाई है
मेघों
की आहट से राहत बड़ी थी।
अजय
अमिताभ सुमन
#आहट #MicroPoetry #Poem #Poetryhub #poetrylovers #poetrygram
#poetryislife #kavita #LaghuKavita #Hindipoet #Hindipoetrylovers
====
भूख
बड़ी
मुश्किल थी राह , गुजर चूका हूँ मैं ,
ये
भी क्या कम है कि , सुधर चूका हूँ मैं।
मिला
नहीं इरम तो फिकर नहीं है मुझको ,
हूँ
भूख से मैं हैरान , बिफर चूका हूँ मैं।
ले
जाओ तुम ये राहें वो जन्नत के नक्शे,
कई
बार हीं चला पर उजड़ चुका हूँ मैं।
सह
ना सकेंगी आँखे, चिरागों की रोशन,
अंधा
हुआ था कब का उबर चूका हूँ मैं।
अजय
अमिताभ सुमन
#भूख #MicroPoetry #Poem #Poetryhub #poetrylovers #poetrygram
#poetryislife #kavita #LaghuKavita #Hindipoet #Hindipoetrylovers
=====
कंक्रीट
तपती
धूप की मारी जनता, पशु पंछी व गाय,
बदन
जले है अगन चले है, कहाँ से लाये राय।
चला
चक्र ये अजब काल का, भूले मठ्ठा सत्तू,
फिर
कैसे लू गर्मी से बच पाए जीव व जंतु।
पेड़
काट के ए. सी. कूलर. फ्रिज. तो रहे चलाय,
पर
कैसे तुम ले आगे ,ठंडक पी कर चाय।
वन
नदिया को चलो जिलाओ यही मात्र उपाय,
धरती
की हरियाली का ना कंक्रीट पर्याय।
अजय
अमिताभ सुमन
#कंक्रीट #MicroPoetry #Poem #Poetryhub #poetrylovers #poetrygram
#poetryislife #kavita #LaghuKavita #Hindipoet #Hindipoetrylovers
======.
राशन
भाषण आश्वासन मन को तो अच्छा लगता है,
छले
गए कई बार फिर छलते वादा कच्चा लगता है।
तन
टूटा है मन रूठा है पक्ष विपक्ष सब लड़ते है,
जो
सत्ता में लाज बचाते प्रतिपक्ष जग हंसते हैं।
प्रतिपक्ष
का काम नहीं केवल सत्ता पर चोट करें,
जनता
भूखी मरती है कोई कुछ भी तो ओट करें।
या
गिद्ध बनकर बैठे रहना हीं है इनका काम यही,
या
उल्लू दृष्टि को है संशय ना हो जाए निदान कहीं?
गिद्धों
का मजदूर दिवस है कौए सब मुस्काते हैं,
कितने
मरे है बाकी कितने गिनती करते जाते हैं।
लाशों
के गिनने से केवल भला किसी का क्या होगा,
गिद्ध
काक सम लोटेंगे उल्लू सम कोई खिला होगा।
जनता
तो मृत सम जीती है बन्द करो दोषारोपण,
कुछ
तो हो उपाय भला कुछ तो कम होअवशोषण।
घर
से बेघर है पहले हीं काल ग्रास के ये प्यारे।
कोरोना
के हाथों हारे ईश्वर से क्या कहे बेचारे?
=====
प्रजा
प्रजा
सत्य है प्रजातंत्र में, बाकि जो भी झूठ।
अंदेशे
सब गए भाड़ में,किधर को बैठा ऊँट।
हार
गया है एक जीतकर, रहे फिसड्डी खुश।
नहीं
शिकायत कोई अब ना ई.वी.एम.मनहुस।
अजय
अमिताभ सुमन
#प्रजा #MicroPoetry #Poem #Poetryhub #poetrylovers #poetrygram
#poetryislife #kavita #LaghuKavita #Hindipoet #Hindipoetrylovers
=======
सिंहासन
जा
जाके सब टी. वी. खोलो, सिंहासन का भाषण तोलो।
क्या
कुछ दिखता है कुछ अंतर, इस मुखड़े से कुछ तो
बोलो।
मोदी
मोदी बात चली थी , मोदी की सरकार चली थी।
एन.डी.ए.सरकार
बनी क्यों, सोचो तो कुछ परदे
खोलो।
अजय
अमिताभ सुमन
#सिंहासन #MicroPoetry #Poem #Poetryhub #poetrylovers #poetrygram
#poetryislife #kavita #LaghuKavita #Hindipoet #Hindipoetrylovers
========
जंजीर
पुराना
सा कोई मंजर, सीने में खल गया,
ये
उठा दर्द और जी मचल गया।
बेफिक्री
के आलम में यादों का खंजर,
चला
तो क्या बुरा था, कि तू संभल गया,
अजय
अमिताभ सुमन
#जंजीर #MicroPoetry #Poem #Poetryhub #poetrylovers #poetrygram
#poetryislife #kavita #LaghuKavita #Hindipoet #Hindipoetrylovers
=====
जिद
जो
चाहा था मुझको मिला हीं नहीं,
पर
किस्मत से कोई गिला हीं नहीं।
वक्त
भी था महफ़िल भी जाम भी था ,
जिद
मेरी थी दो घूँट मिला हीं नहीं।
अजय
अमिताभ सुमन
#जिद #MicroPoetry #Poem #Poetryhub #poetrylovers #poetrygram #poetryislife
#kavita #LaghuKavita #Hindipoet #Hindipoetrylovers
=====
ईमान
ये
पूछ ना मैं कैसा,इम्तिहान चाहता हूं,
तेरी
नज़रों से तेरी,पहचान चाहता हूं।
हो
खुद की निगाहों में,नेक जरा सोच लो,
तराजू
पर तेरा, ईमान चाहता हूं,
ये
पूछ ना मैं कैसा,इम्तिहान चाहता हूं।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
दलील
वकीलों
,दलीलों,
मुवक्किल
के रार में,
पूछते
हो रखा क्या,
कोर्ट
के करार में?
यही
एक धंधा ऐसा .
कि
जीत पे है पैसा,
और
हारने पर सीख है,
क़ानून
के बाजार में।
और
पूछते हो रखा क्या,
कोर्ट
के करार में?
अजय
अमिताभ सुमन
=====
मैं
हूं बालक एक नादान
मैं
हूं बालक एक नादान,
विनती
सुन ले हे भगवान,
छोटा
हूं छोटी सी अर्जी,
छोटा
सा हीं मेरा काम।
गर
मैं तेरा हूं विश्वासी,
मैडम
को तू दे दे खांसी,
छुट्टी
कर दे एक वीक की,
इतने
से चल जाए काम।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
सच
गटक गई
यूं
हीं न था कि ऐसा,
गलत
अटक गई,
ये
चाय भी थी कैसी,
हलक
झटक गई।
कि
अर्से से आदत तो,
और
हीं थी साहब,
थी
प्याली वो झूठ की,
सच
गटक गई ।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
दो
हाथ आदमी के
अच्छे
है बुरे हैं हालत आदमी के,
दिन
रात पड़े पीछे हालात आदमी के।
लहरें
बड़ी है ऊंची साहिल पे जा अड़ा ये,
ले
रेत की ये मुठ्ठी क्या बात आदमी के।
मिट्टी
से जो बना है मिट्टी में मिल जायेगा,
हवा
में फिर उड़ेंगे जर्रात आदमी के।
रुखसत
हुए तो जाना सब काम थे अधूरे,
क्या
क्या करे जहां में दो हाथ आदमी के।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
हिन्दुस्तान
दिखता है
तेरी
हीं नजरों का हुनर ,
ये
हिंदू वो मुसलमां ,
मैं
अनाड़ी हूं सब में,
इंसान
दिखता है।
ना
उत्तर ना दक्षिण,
ना
पूरब का कोई,
मैं
अंधा हूँ मुझको,
हिन्दुतान
दिखता है।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
हवा
हो क्या तुम
ना
आँखों से ओझल
पर
दिखते नहीं,
है
पास भी तो मेरे ,
पर
मिलते नहीं।
छिपते
भी ऐसे कि
मौजूं
हो हरपल,
हवा
हीं हो क्या तुम ,
मिलते
नहीं ?
अजय
अमिताभ सुमन
=====
आदमियत
जाके
कोई क्या पूछे भी ,
आदमियत
के रास्ते ।
क्या
पता किन किन हालातों
से
गुजरता आदमी ।
चुने
किसको हसरतों ,
जरूरतों
के दरमियाँ ।
एक
को कसता है तो ,
दूजे
से पिसता आदमी ।
अजय
अमिताभ सुमन
======
राख
गलतियाँ
करना है फितरत ,
करता
है आदतन ।
और
सबक ये सीखना ,
कि
दोहराता है आदमी ।
आदमी
की हसरतों का ,
क्या
बताऊँ दास्ताँ।
आग
में जल खाक बनकर ,
राख
मांगे आदमी ।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
जरूरी
नहीं
हर
जीत का मतलब,
हार
हो जरूरी नहीं।
नफे
के वास्ते,
करार
हो जरूरी नहीं।
जीत
हार नफा हानि,
बेशक
मजबूरी मगर,
हर
रिश्ते का मतलब,
व्यापार
हो जरूरी नहीं।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
जहां
आंखों में आग
जब
तन बदन में फकत,
जिस्म
की नुमाईस हो,
फिर
क्या हुस्न के चर्चे,
मोहब्बत
की पैमाइश हो।
ये
खेल नहीं जिस्म का,
है
रूह की ये दौलत,
जहां
आंखों में आग कहां,
इश्के
आजमाइस हो।
अजय
अमिताभ सुमन
====
ना
पूछो मैं क्या कहता हूँ ,
क्या
करता हूँ क्या सुनता हूँ .
हूँ
दुनिया को देखा जैसे ,
चलते
वैसे ही मैं चलता हूँ .
सूरज
का उगना है मुश्किल ,
फिर
भी खुशफहमियों से सजता हूँ .
कभी
तो होगी सुबह सुहानी ,
शाम
हूँ यारो मैं ढलता हूँ
=====
मेरे
नाम में अचानक,
ये
क्या सूझी है तुझको ,
बदनाम
मैं बड़ा हूँ ,
दे
दूँ तुझे मैं कैसे .
मेरे
जीवन पे मुझको
कोई
नहीं भरोसा .
मेरी
मौत पे हुकूमत
दे
दूँ तुझे मैं कैसे .
=====
यहाँ
कत्ल नही देखते ,
देखे
जाते इरादे।
कानून
की किताबों के ,
अल्फाज
ही कुछ ऐसे हैं ।
बेखौफ
घुमती है ,
कातिल
तो मैं भी क्या करुँ ।
अदालत
की जुबानी ,
बयानात
ही कुछ ऐसे हैं ।
======
हम
आह भी भरते है ,
तो
ठोकती है जुरमाना।
इस
देश की कानून के ,
खैरात
ही कुछ ऐसे है।
फरियाद
अपनी लेके ,
बेनाम
अब जाए किधर ।
अल्लाह
भी बेजुबां है ,
सवालात
हीं कुछ ऐसे हैं ।
=====
लोगों
की नासमझी का उठाने भी दो फायदा,
“बेनाम” शराफत
जताने की भी हद है .
वो
नाराज हैं कि आसमाँ से तोड़ा नहीं चाँद को,
समझा
दे कोई आशिकी निभाने की भी हद है ,
=====
इंतजाम
तेरी
खिदमत के चर्चे मैं कैसे सरेआम करूं,
कहां
से शुरू हो कहां को तमाम करूं।
कि
मेरी हीं मिट्टी और मेरा हीं पसीना,
और
नाम फकत तेरा हो इतना इंतजाम करूं।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
कुछ
सोचना तो था
क्या
बोलना था तुझको ना कहने से पहले,
कुछ
सोचना तो था कुछ भी कहने से पहले,
नुकसान
हीं हो हरदम जरुरी नहीं,
ना
कहने से बाद , सम्भलने से पहले।
अजय
अमिताभ सुमन
========
तुझे
बुन भी लूँ
तू
पूछे और मैं सुन भी लूँ जरुरी नहीं,
गर
सुन लूँ तो चुन भी लूँ जरुरी नहीं।
कुछ
कहने का तुझपे तासीर भी तो हो,
कुछ
कह भी दूं तुझे बुन भी लूं जरुरी नहीं।
अजय
अमिताभ सुमन
======
क्यूँ
संभलता नहीं
इन
आँखों से ईश्वर तुम जानोगे कैसे?
है
पानी बरफ का तुम छानोगे कैसे?
है
नदिया के पानी सा हर पल बदलता,
खुद
रहता बिन बदला पहचानोगे कैसे?
अजय
अमिताभ सुमन
====
पुरुषोत्तम
पुरुषों
में हैं श्रेष्ठ राम ये लोग नहीं यूँ हीं कहते,
उत्तम
नर कई सारे हैं सब,राम नहीं बना करते।
जिस
रावण ने प्रभु राम को,वन वन में भटकाया था,
धोखे
से हर ली थी उनकी ,सीता को तड़पाया था।
उस
रावण को मृत होने पर,जो भ्राता कह पाते है,
ऐसे
हीं मर्यादा अनुगामी,पुरुषोत्तम कहलाते
हैं।
अजय
अमिताभ सुमन
========
क्या
रखा है जीत हार में
कितना
अंतर बचा हुआ है, जीत हार के होने में,
जितना
उर के हंस पड़ने या, किंचित इसके रोने में।
कहने
को तो बात रही है, क्या रखा है जीत हार
में,
जीवन
के बस दो ये पहलू , क्या रखा है प्रीत रार
में।
हाथों
में उग आए सोना , तो जो अंतर होता है,
और
वही जो उर छा जाए, इसके फिर से खोने में।
=====
अंधेरे
में जब डर लगता
अंधेरे
में जब डर लगता,साहस तब भर जाता कौन ?
जुगनू
सारे जला जला कर,बरगद को चमकाता कौन?
कैसे
पेड़ पर पत्ते आते?पतझड़ में कैसे झड़
जाते?
कैसे
कोयल कूक सुनाती,खेतों में हरियाली
छाती?
चमगादड़
को दिशा दिखाता,बिना आंख बतलाता कौन,
और
रात में उल्लू के, नयनों को ज्योति देता
कौन?
अंधेरे
में जब डर लगता,साहस तब भर जाता कौन ?
जुगनू
सारे जला जला कर,बरगद को चमकाता कौन?
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
======
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई
बेईमानों
के नमक का, कर्जा बहुत था भारी,
चटी
थी दीमक सारी, ओहदेदार की बीमारी।
कि
कुर्सी के कच्चे चिट्ठे , किरदार खा गई ,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई।
घिसे
हुए थे चप्पल,लाचार की कहानी,
कि
धूल में सने सब ,बेगार की जुबानी।
दफ्तर
के जो थे मारे , अत्याचार खा गई ,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई,
अजय
अमिताभ सुमन
=====
धनिया
नींबू दाम बढ़ेगा
धनिया
नींबू दाम बढ़ेगा,
कब
तक बोलो कब तक?
सी.एन.जी.
का नाम बढ़ेगा,
कबतक
आखिर कबतक?
जनता
की पीड़ा तो हर लो,
कीमत
आटे की कम कर लो।
भूख
मिटी तो सब नाचेंगे ,
बेस्ट
देश है सब गाएंगे।
रोटी
के अन्धे क्या गाए ,
बेहतर
भारत कब तक?
======
देश
में नए विधान की
आन
पड़ी है आज जरूरत,
देश
में नए विधान की,
नए
समय में नई समस्या ,
मांगे
नए निदान की।
आज
सभी को साथ मिलाकर ,
रचने
नए प्रतिमान की,
यही
वक्त है गाथा लिखने,
भारत
देश महान की।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
आहट
गर्मी
की लहरें क्या आफत बड़ी थी,
तपती
दुपहरी की शामत पड़ी थी।
खिड़की
से आती थी लू की वो लपटें,
जी
को बस ठंडक की चाहत बड़ी थी।
जरूरी
नहीं कि लू लहरी कुछ कम हो,
इतना
हीं काफी कि अग्नि कुछ नम हों।
बारिश
ना आई पर ठंडक तो पहुंची,
कि
मेघों की आहट से राहत बड़ी थी।
अजय
अमिताभ सुमन
#आहट #MicroPoetry #Poem #Poetryhub #poetrylovers #poetrygram
#poetryislife #kavita #LaghuKavita #Hindipoet #Hindipoetrylovers
====
भूख
बड़ी
मुश्किल थी राह , गुजर चूका हूँ मैं ,
ये
भी क्या कम है कि , सुधर चूका हूँ मैं।
मिला
नहीं इरम तो फिकर नहीं है मुझको ,
हूँ
भूख से मैं हैरान , बिफर चूका हूँ मैं।
ले
जाओ तुम ये राहें वो जन्नत के नक्शे,
कई
बार हीं चला पर उजड़ चुका हूँ मैं।
सह
ना सकेंगी आँखे, चिरागों की रोशन,
अंधा
हुआ था कब का उबर चूका हूँ मैं।
अजय
अमिताभ सुमन
#भूख #MicroPoetry #Poem #Poetryhub #poetrylovers #poetrygram
#poetryislife #kavita #LaghuKavita #Hindipoet #Hindipoetrylovers
=====
कंक्रीट
तपती
धूप की मारी जनता, पशु पंछी व गाय,
बदन
जले है अगन चले है, कहाँ से लाये राय।
चला
चक्र ये अजब काल का, भूले मठ्ठा सत्तू,
फिर
कैसे लू गर्मी से बच पाए जीव व जंतु।
पेड़
काट के ए. सी. कूलर. फ्रिज. तो रहे चलाय,
पर
कैसे तुम ले आगे ,ठंडक पी कर चाय।
वन
नदिया को चलो जिलाओ यही मात्र उपाय,
धरती
की हरियाली का ना कंक्रीट पर्याय।
अजय
अमिताभ सुमन
#कंक्रीट #MicroPoetry #Poem #Poetryhub #poetrylovers #poetrygram
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======
सिंहासन
जा
जाके सब टी. वी. खोलो, सिंहासन का भाषण तोलो।
क्या
कुछ दिखता है कुछ अंतर, इस मुखड़े से कुछ तो
बोलो।
मोदी
मोदी बात चली थी , मोदी की सरकार चली थी।
एन.डी.ए.सरकार
बनी क्यों, सोचो तो कुछ परदे
खोलो।
अजय
अमिताभ सुमन
#सिंहासन #MicroPoetry #Poem #Poetryhub #poetrylovers #poetrygram
#poetryislife #kavita #LaghuKavita #Hindipoet #Hindipoetrylovers
========
जंजीर
पुराना
सा कोई मंजर, सीने में खल गया,
ये
उठा दर्द और जी मचल गया।
बेफिक्री
के आलम में यादों का खंजर,
चला
तो क्या बुरा था, कि तू संभल गया,
अजय
अमिताभ सुमन
#जंजीर #MicroPoetry #Poem #Poetryhub #poetrylovers #poetrygram
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====
हवा
हो क्या तुम
ना
आँखों से ओझल
पर
दिखते नहीं,
है
पास भी तो मेरे ,
पर
मिलते नहीं।
छिपते
भी ऐसे कि
मौजूं
हो हरपल,
हवा
हीं हो क्या तुम ,
मिलते
नहीं ?
अजय
अमिताभ सुमन
====
राख
गलतियाँ
करना है फितरत ,
करता
है आदतन ।
और
सबक ये सीखना ,
कि
दोहराता है आदमी ।
आदमी
की हसरतों का ,
क्या
बताऊँ दास्ताँ।
आग
में जल खाक बनकर ,
राख
मांगे आदमी ।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
जरूरी
नहीं
हर
जीत का मतलब,
हार
हो जरूरी नहीं।
नफे
के वास्ते,
करार
हो जरूरी नहीं।
जीत
हार नफा हानि,
बेशक
मजबूरी मगर,
हर
रिश्ते का मतलब,
व्यापार
हो जरूरी नहीं।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
जहां
आंखों में आग
जब
तन बदन में फकत,
जिस्म
की नुमाईस हो,
फिर
क्या हुस्न के चर्चे,
मोहब्बत
की पैमाइश हो।
ये
खेल नहीं जिस्म का,
है
रूह की ये दौलत,
जहां
आंखों में आग कहां,
इश्के
आजमाइस हो।
अजय
अमिताभ सुमन
====
ना
पूछो मैं क्या कहता हूँ ,
क्या
करता हूँ क्या सुनता हूँ .
हूँ
दुनिया को देखा जैसे ,
चलते
वैसे ही मैं चलता हूँ .
सूरज
का उगना है मुश्किल ,
फिर
भी खुशफहमियों से सजता हूँ .
कभी
तो होगी सुबह सुहानी ,
शाम
हूँ यारो मैं ढलता हूँ
=====
मेरे
नाम में अचानक,
ये
क्या सूझी है तुझको ,
बदनाम
मैं बड़ा हूँ ,
दे
दूँ तुझे मैं कैसे .
मेरे
जीवन पे मुझको
कोई
नहीं भरोसा .
मेरी
मौत पे हुकूमत
दे
दूँ तुझे मैं कैसे .
=====
यहाँ
कत्ल नही देखते ,
देखे
जाते इरादे।
कानून
की किताबों के ,
अल्फाज
ही कुछ ऐसे हैं ।
बेखौफ
घुमती है ,
कातिल
तो मैं भी क्या करुँ ।
अदालत
की जुबानी ,
बयानात
ही कुछ ऐसे हैं ।
======
हम
आह भी भरते है ,
तो
ठोकती है जुरमाना।
इस
देश की कानून के ,
खैरात
ही कुछ ऐसे है।
फरियाद
अपनी लेके ,
बेनाम
अब जाए किधर ।
अल्लाह
भी बेजुबां है ,
सवालात
हीं कुछ ऐसे हैं ।
=====
लोगों
की नासमझी का उठाने भी दो फायदा,
“बेनाम” शराफत
जताने की भी हद है .
वो
नाराज हैं कि आसमाँ से तोड़ा नहीं चाँद को,
समझा
दे कोई आशिकी निभाने की भी हद है ,
=====
इंतजाम
तेरी
खिदमत के चर्चे मैं कैसे सरेआम करूं,
कहां
से शुरू हो कहां को तमाम करूं।
कि
मेरी हीं मिट्टी और मेरा हीं पसीना,
और
नाम फकत तेरा हो इतना इंतजाम करूं।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
कुछ
सोचना तो था
क्या
बोलना था तुझको ना कहने से पहले,
कुछ
सोचना तो था कुछ भी कहने से पहले,
नुकसान
हीं हो हरदम जरुरी नहीं,
ना
कहने से बाद , सम्भलने से पहले।
अजय
अमिताभ सुमन
========
तुझे
बुन भी लूँ
तू
पूछे और मैं सुन भी लूँ जरुरी नहीं,
गर
सुन लूँ तो चुन भी लूँ जरुरी नहीं।
कुछ
कहने का तुझपे तासीर भी तो हो,
कुछ
कह भी दूं तुझे बुन भी लूं जरुरी नहीं।
अजय
अमिताभ सुमन
======
क्यूँ
संभलता नहीं
इन
आँखों से ईश्वर तुम जानोगे कैसे?
है
पानी बरफ का तुम छानोगे कैसे?
है
नदिया के पानी सा हर पल बदलता,
खुद
रहता बिन बदला पहचानोगे कैसे?
अजय
अमिताभ सुमन
====
पुरुषोत्तम
पुरुषों
में हैं श्रेष्ठ राम ये लोग नहीं यूँ हीं कहते,
उत्तम
नर कई सारे हैं सब,राम नहीं बना करते।
जिस
रावण ने प्रभु राम को,वन वन में भटकाया था,
धोखे
से हर ली थी उनकी ,सीता को तड़पाया था।
उस
रावण को मृत होने पर,जो भ्राता कह पाते है,
ऐसे
हीं मर्यादा अनुगामी,पुरुषोत्तम कहलाते
हैं।
अजय
अमिताभ सुमन
========
क्या
रखा है जीत हार में
कितना
अंतर बचा हुआ है, जीत हार के होने में,
जितना
उर के हंस पड़ने या, किंचित इसके रोने में।
कहने
को तो बात रही है, क्या रखा है जीत हार
में,
जीवन
के बस दो ये पहलू , क्या रखा है प्रीत रार
में।
हाथों
में उग आए सोना , तो जो अंतर होता है,
और
वही जो उर छा जाए, इसके फिर से खोने में।
========
अंधेरे
में जब डर लगता
अंधेरे
में जब डर लगता,साहस तब भर जाता कौन ?
जुगनू
सारे जला जला कर,बरगद को चमकाता कौन?
कैसे
पेड़ पर पत्ते आते?पतझड़ में कैसे झड़
जाते?
कैसे
कोयल कूक सुनाती,खेतों में हरियाली
छाती?
चमगादड़
को दिशा दिखाता,बिना आंख बतलाता कौन,
और
रात में उल्लू के, नयनों को ज्योति देता
कौन?
अंधेरे
में जब डर लगता,साहस तब भर जाता कौन ?
जुगनू
सारे जला जला कर,बरगद को चमकाता कौन?
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
======
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई
बेईमानों
के नमक का, कर्जा बहुत था भारी,
चटी
थी दीमक सारी, ओहदेदार की बीमारी।
कि
कुर्सी के कच्चे चिट्ठे , किरदार खा गई ,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई।
घिसे
हुए थे चप्पल,लाचार की कहानी,
कि
धूल में सने सब ,बेगार की जुबानी।
दफ्तर
के जो थे मारे , अत्याचार खा गई ,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई,
अजय
अमिताभ सुमन
=====
धनिया
नींबू दाम बढ़ेगा
धनिया
नींबू दाम बढ़ेगा,
कब
तक बोलो कब तक?
सी.एन.जी.
का नाम बढ़ेगा,
कबतक
आखिर कबतक?
जनता
की पीड़ा तो हर लो,
कीमत
आटे की कम कर लो।
भूख
मिटी तो सब नाचेंगे ,
बेस्ट
देश है सब गाएंगे।
रोटी
के अन्धे क्या गाए ,
बेहतर
भारत कब तक?
======
देश
में नए विधान की
आन
पड़ी है आज जरूरत,
देश
में नए विधान की,
नए
समय में नई समस्या ,
मांगे
नए निदान की।
आज
सभी को साथ मिलाकर ,
रचने
नए प्रतिमान की,
यही
वक्त है गाथा लिखने,
भारत
देश महान की।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
कुछ
इस तरह से जिंदगी, कट गयी चलते हुए,
तुझे
हीं ढूंढना था, तेरे घर मे रहते में
रहते हुए।
======
लोग
पूछते हैं मुझसे , मेरे मजहब का नाम ,
नाकाफी
है शायद मेरा इन्सान होना .
======
उसने
करके ख़बरदार , मारा बेनाम को ,
बेईमानी
में ईमान की जरुरत कुछ कम नहीं .
=======
दुनिया
ये चीज ठीक है सच से चलती नहीं,
झूठ
है मुकम्मल पर थोड़ा ईमान भी रखो।
=======
जाति
, धर्म, मजहब
की पहचान भी रखो,
अल्लाह
जेहन में ठीक ,भगवान भी रखो।
======
सजा
सुनाई तूने, क्या खूब इस गुनाह की,
कि
हाथ उठाई भी नहीं, और वो नजरों से गिर
गया।
======
ना
समन्दर की तरह गहरे , ना खाली ईन्सान की तरह
,
"अमिताभ" तुम जिए
भी तो क्या जिए , महज एक इन्सान की तरह.
=====
रोटी
की जद्दोजहद में , “अमिताभ ” तू बदला कहाँ,
पहले
खा नहीं सकते थे, अब खा नहीं पाते।
=====
जो
खरीदी नहीं जा सकती
उसी
के खरीदार है बाजार में ,
हाथ
की लकीरें देखी जाती है
“बेनाम” बदली
नहीं जाती .
=====
अजीब
है अंदाज
आदमी
के प्यास की भी,
कभी
समंदर कम पड़ जाता है
कभी
आंसू भारी पड़ जाते
=====
हाथ
में होते हुए भी
नहीं
है आदमी के हाथ में,
अजीब
है ये लकीरें
आदमी
के हाथ की ।
=====
क्या
खूब अख्तियार है, पीने पे जनाब,
कि
अच्छा पीने से पहले, और उम्दा पीने के बाद।
=====
जो
खोजता है, मिलता नहीं,
जो
मिलता है, खोजता नहीं,
आदमी
इसीलिए फलता नहीं, फूलता नहीं।
=====
उसने
करके खबरदार , मारा अमिताभ को,
बेईमानी
में ईमान की जरुरत कुछ कम नहीं।
======
"अमिताभ" के प्यास
की, बात ही कुछ खास है,
समंदर
से कुछ भी न , कम की तलाश है।
=====
इस
दुनिया में आने की हो गयी ऐसी खता,
बदस्तूर
अभी तक जारी है वो सिलसिला।
=====
ज़माने
ने किया नहीं कोई अत्याचार है,
"अमिताभ " तो खुद
की गलतियों का शिकार है।
=====
ये
क्या किया "अमिताभ", कि शख्सियत ही खुल गयी,
तेरी
जुबाँ से बेहतर , तेरी ख़ामोशी थी।
=====
जितने
भी घाव दिए उसने,
मेरी
छाती पे ही दिये,
वो
आदमी था बुरा जरूर,
पर
इतना बुरा भी नहीं।
=====
सजा
सुनाई तूने,
क्या
खूब इस गुनाह की,
कि
हाथ उठाई भी नहीं,
और
वो नजरों से उतर गया।।
=====
जग
जब भी दिखता है तुमको,
जग
सच हीं दिखता है तुमको।
=====
जब
मन डोला,
उड़न
खटोला।
=====
नफरतों
के दामन में,
जल
रहे जो सभी है,
कौन
सा है मजहब इनका ,
कौन
इनके नबी हैं?
=====
बात
तो है इतनी सी जाने क्यों खल गई,
अहम
की राख थी बुझाने पे जल गई।
=====
गर
दुष्कृत्य रचाकर कोई खुद को कह पाता हो वीर ,
न्याय
विवेचन में निश्चित हीं बाधा पड़ी हुई गंभीर।
=====
रोजी
रोटी
विजयी
विश्व है चंडा डंडा,
ना
लो रोटी से तुम पंगा।
जो
पंगा ले आफत आए,
सोते
जगते शामत आए,
कभी
सांप को रस्सी समझे,
कभी
नीम को लस्सी समझे,
ना
कोई भी सूझे उपाए,
किस
भांति रोटी आ जाए,
चाहे
कैसा भी हो धंधा,
ना
लो रोटी से तुम पंगा।
रोजी
रोटी चले हथौड़े,
रोटी
ने माथे बम फोड़े,
उड़ते
बाल बचे जो थोड़े,
हौले
हौले कर सब तोड़े,
काम
ना आए कंघी कंघा,
तेल
चमेली रजनी गंधा,
बस
माथे पर दिखता चंदा,
ना
लो रोटी से तुम पंगा।
रोजी
रोटी सब मन भाए,
ना
खाए जो जी ललचाए,
जो
खाए तो जी जल जाए,
छुट्टी
करने पर शामत है,
छुट्टी
होने पर आफत है,
गर
वेतन है तो जाफत है,
यही
खुशी है यही है फंदा,
ना
लो रोटी से तुम पंगा।
रोजी
रोटी के चक्कर में,
कैसे
कैसे बीन बजाते,
भैंस
चुगाली करती रहती,
राग
भैरवी मिल सब गाते,
माथे
में ताले लग जाय,
बुद्धि
मंदी बंदा मंदा ,
ना
लो भाई इससे पंगा,
ना
लो भाई इससे पंगा।
या
दिल्ली हो या कलकत्ता,
सबसे
ऊपर मासिक भत्ता,
आंखो
पर चश्मे खिलता है,
चालीस
में अस्सी दिखता है,
वेतन
का बबुआ ये चक्कर ,
पूरा
का पूरा घनचक्कर,
कमर
टूटी हिला है कंधा,
ना
लो भाई इससे पंगा।
विजयी
विश्व है चंडा डंडा,
ना
लो रोटी से तुम पंगा।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
कौन
मेघ गर्जन में शामिल? #God #Spiritual #Poetry
#Micropoetry #Instapoem #Poetryhub #Kavita #Viral #Viralpoetry #Short
कौन
मेघ गर्जन में शामिल?झिंगुर के गायन में
शामिल?
कौन
सृष्टि को देता वाणी?सर्व व्याप्त पर रहता
मौन?
कौन
सीपी में मोती धरता, कौन आखों में ज्योति
भरता ,
चर्म
कवच कच्छप को देता,कभी सर्प का जो हर
लेता।
कौन
सुगंधि है फूलों की?और तीक्ष्ण चुभन शूलों
की?
कौन
आम के मंजर में है?मरू भूमि में, बंजर में है?
जो
द्रष्टा हर कण कण क्षण का , पर दृष्टि को रहता गौण,
और
सृष्टि को देता वाणी , सर्व व्याप्त पर रहता
मौन?
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
तिनका
तिनका सजा सजाकर #Creator #Existence,
#Poetry #Micropoetry #Instapoem #Poetryhub #Kavita #Viral #Viralpoetry #Short
तिनका
तिनका सजा सजाकर,अवनि को महकाता कौन?
धारण
करता जो सृष्टि को,पर सृष्टि में रहता
मौन।
कैसे
वन वन उड़े कपोती?अग्नि से निकले क्यों
ज्योति,
किस
भांति बगिया में कलरव,कोयल की गायन होती?
भिन्न
भिन्न से रंग सजाकर ,गुलों में रख आता है,
हर
सावन में इन्द्रधनुष को ,अम्बर में चमकाता कौन?
तिनका
तिनका सजा सजाकर,अवनि को महकाता कौन?
धारण
करता जो सृष्टि को,पर सृष्टि में रहता
मौन।
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
अंधेरे
में जब डर लगता #Fear #Poetry #Micropoetry
#Instapoem #Poetryhub #Kavita #Viral #Viralpoetry #Short
अंधेरे
में जब डर लगता,साहस तब भर जाता कौन ?
जुगनू
सारे जला जला कर,बरगद को चमकाता कौन?
कैसे
पेड़ पर पत्ते आते?पतझड़ में कैसे झड़
जाते?
कैसे
कोयल कूक सुनाती,खेतों में हरियाली
छाती?
चमगादड़
को दिशा दिखाता,बिना आंख बतलाता कौन,
और
रात में उल्लू के, नयनों को ज्योति देता
कौन?
अंधेरे
में जब डर लगता,साहस तब भर जाता कौन ?
जुगनू
सारे जला जला कर,बरगद को चमकाता कौन?
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
जभी
भ्रूण हो गर्भ स्थापित #Existence #Regulation
#Poetry #Micropoetry #Instapoem #Poetryhub #Kavita #Viral #Viralpoetry #Short
जभी
भ्रूण हो गर्भ स्थापित, थन में दूध दिलाता कौन
?
एक
नीति में एक नियम में , सृष्टि को रच लाता कौन?
अगर
अगन शीतल बन जाए, सागर जल को ना धर पाए,
अगर
धूप ना आए अंबर, बागों में कौन फूल
खिलाए?
सहज
नहीं रुक पाता पानी, जब खेतों में वृष्टि
होती,
चक्रवात
का मिटना मुश्किल, जब जब इसकी सृष्टि
होती।
सबके
निज गुण धर्म बनाकर, सही समय पर कर्म फलाकर,
एक
नीति में एक नियम में , सृष्टि को रच लाता कौन?
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
भारत
को देश महान कहूँ
इसका
कैसे गुणगान कहूँ ? भारत को देश महान कहूँ
!
जब
भाव उठते हैं मन में ,तब ये सोचता हूँ मन
में ।
जिस
देश में ईश्वर बसते हैं, जिस देश को ईश्वर रचते
हैं।
उसी
ईश्वर पर क्यों लड़ते है, उसी ईश्वर पर कट मरते
हैं?
फिर
कैसा सम्मान कहूं? इसको मेरा अभिमान कहूं?
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
#micropoetry #Poetry #microPoem #Shortpoem
#Shorts #Kavita #Laghukavita #Poetrylover #Poetrycommunity #Hindikavita
#Hindipoem #Corruption #Dishonesty #Satire #Blackmarketing #Office
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई
बेईमानों
के नमक का, कर्जा बहुत था भारी,
चटी
थी दीमक सारी, ओहदेदार की बीमारी।
कि
कुर्सी के कच्चे चिट्ठे , किरदार खा गई ,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई।
घिसे
हुए थे चप्पल,लाचार की कहानी,
कि
धूल में सने सब ,बेगार की जुबानी।
दफ्तर
के जो थे मारे , अत्याचार खा गई ,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई,
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
थी
भूख की ये मारी, आदत की थी लाचारी,
दफ्तर
के सारे सारे , मक्कारों से थी यारी,
कि
सच के सारे सारे , चौकीदार खा गई ,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई।
तफसीस
क्या करें हम, दफ्तर के सब अधिकारी,
दीमक
से भी सौदा करते, दीमक भी है व्यापारी।
कि
झूठ के वो सारे , व्यापार खा गई,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई।
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
मार्ग
एक ही सही नहीं है , अन्य मार्ग भी सही
कहीं है,
परम
तत्व के सब अनुगामी ,ना निज पथ अभिमान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे, किंचित कोई परिणाम
रहे।
कर्मयोग
कहीं राह सही है , भक्ति की कहीं चाह बही
है,
जिसकी
जैसी रही प्रकृत्ति , वैसा हीं निदान रहे।
अवसर
की क्यों करे प्रतीक्षा, ज्ञान धरना और
तितिक्षा,
मुमक्षु
बन बहो निरंतर , हर अवसर प्रभु ध्यान
रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे, किंचित कोई परिणाम
रहे।
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
ईक्छित
तुझको प्राप्त नहीं गर, मंजिल दृष्टित ज्ञात
नहीं गर,
निज
कर्म त्रुटि शोधन हो , निज प्रयासों में
प्राण रहे।
परम
तत्व ना मिले अचानक , परम सत्व के पात्र
कथानक ,
आजीवन
रत श्रम के आदि ,परम ब्रह्म गुणगान
रहे।
एक
जन्म की बात नहीं, नहीं एक वक्त दिन रात
कहीं,
जन्मों
की है खोज प्रतीक्षा, थोड़ा सा तो भान रहे।
अभिमान
, ज्ञान , सम्मान
, गुणगान , त्राण
किंचित
कोई परिणाम रहे, किंचित कोई परिणाम
रहे।
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
पत्थर
धर सर पर चलते हैं मजदूरों के घर मिलते हैं,
टोपी
कुर्ता कभी जनेऊ कंधे पर धारण करते हैं।
कंघा
पगड़ी जाने क्या क्या सब तो है तैयार,
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
अल्लाह
नाम भज लेते भाई राम नाम जप लेते भाई,
मंदिर
मस्जिद स्वाद लगी अब गुरुद्वारे चख लेते भाई।
जीसस
का भी भोग लगा जाते साई दरबार,
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
नैन
मटक्का पे भी यूँ ना छेड़ो तीर कमान,
चूक
वुक तो होती रहती भारत देश महान ,
गले
पड़े तो शोर शराबा क्योंकर इतनी बार?
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
माना
उनके कहने का कुछ ऐसा है अन्दाज,
हँसी
कभी आ जाती हमको और कभी तो लाज।
भूल
चुक है माना पर माफी दे दो इस बार।
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
प्रजातंत्र
में तो होते रहते है एक बवाल,
चमचों
में रहतें है जाने कैसे देश का हाल।
सीख
जाएंगे देश चलाना आये जो इस बार।
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
फ़टी
जेब ले चलते जग में छाले पड़ जाते हैं पग में,
मर्सिडीज
पे उड़ने वाले क्या क्या कष्ट सहे हैं जग में।
जोगी
बन दर घूम रहे हैं मेरे राज कुमार,
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
मृग
जैसी ना चाह बनाओ ,
छद्म
तत्व ना राह बनाओ ,
मान
ज्ञान अर्जन करने से ,
ना
चित्त को परित्राण रहे ,
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
ईश
यज्ञ अभिमान समर्पित,
हव
अग्नि को मान प्रत्यर्पित,
अतिरिक्त
हो चाह कोई ना,
राह
अन्य संज्ञान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
मार्ग
एक ही सही नहीं है ,
अन्य
मार्ग भी सही कहीं है,
परम
तत्व के सब अनुगामी ,
ना
निज पथ अभिमान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
साधक
ना साधन का कामी,
ना
साधन की कोई गुलामी,
साधन, साधक , साध्य
एक ना,
ईक्छित
और संधान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
प्रभु
प्रेम का भाव फले जब,
परम
तत्व को हृदय जले जब,
क्या
संकोच नर्तन कीर्तन में ,
मान
रहे अपमान रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
अवसर
की क्यों करे प्रतीक्षा,
ज्ञान
धरना और तितिक्षा,
मुमक्षु
बन बहो निरंतर ,
हर
अवसर प्रभु ध्यान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
ईक्छित
तुझको प्राप्त नहीं गर,
मंजिल
दृष्टित ज्ञात नहीं गर,
निज
कर्म त्रुटि शोधन हो ,
निज
प्रयासों में प्राण रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
परम
तत्व ना मिले अचानक ,
परम
सत्व के पात्र कथानक ,
आजीवन
रत श्रम के आदि ,
परम
ब्रह्म गुणगान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
एक
जन्म की बात नहीं,
नहीं
एक वक्त दिन रात कहीं,
जन्मों
की है खोज प्रतीक्षा,
थोड़ा
सा तो भान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
साधक
ना साधन का कामी,
ना
साधन की कोई गुलामी,
साधन, साधक , साध्य
एक ना,
ईक्छित
और संधान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
मेहनत
में कोई कमी नही पर एक बात का रोना,
किस्मत
की हीं खोट नोट का ना डिपोजल होना।
तिसपे
भारी लगती लगती ई.वी.एम.की मार,
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
जिसे
देश चलाना एक दिन ढूंढे अपना फ्यूचर,
जन्म
पत्री तो ठीक ठाक कहते हैं ये कंप्यूटर।
राहु
केतु जो आन पड़े हैं कर दो बेड़ा पार।
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
राजनीति
की रीत नई है कुंवारों से प्रीत सही है,
ममता
,माया, मोदी
,योगी ,जोगी
गण की जीत नई है।
जनतंत्र
की नई माँग पर यौवन है लाचार,
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
गठबंधन
का दोष यही है जो दोषी है वो ही सही है,
कोई
चाहे करे ढ़ीठाई पर पर तंत्र की बात यही है।
सत्ता
की भी यही जरूरत देसी यही जुगाड़ ।
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
आप
चाहें तो बुद्धि भाग्य का हो सकता है योग,
और
कुर्सी के सहयोगी का मिल सकता सहयोग।
कबतक
माता का रहे अधूरा सपना एक आजार।
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
@अजय अमिताभ सुमन
फूल
और कांटे
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
धनिया
नींबू दाम बढ़ेगा,कब तक बोलो कब तक?
डीजल
का यूँ नाम बढ़ेगा,कबतक आखिर कबतक?
जनता
की पीड़ा तो हर लो,कीमत आटे की कम कर लो।
रोटी
के अन्धे क्या गाए ,बेहतर भारत कब तक?
भूख
मिटी तो सब नाचेंगे ,बेस्ट देश है सब
गाएंगे।
अभी
क्षुधा है भारी तेरे,देश प्रेम पे अब तक।
भारत
की जो गाथा गाते,मिट्टी पावन कथा
बताते।
हम
अपनी जो व्यथा बताते ,ना सुनते क्यों अब तक?
सारे
जहाँ से सच्चा कैसे?देश हमारा अच्छा कैसे?
भूख
से मरता बच्चा कैसे?त्राण मिलेगा कब तक ?
जग
में सुख दुःख भी पीड़ा होती ,योगी कहते प्रज्ञा
झूठी?
मित्र
आदि जो बच्चे हैं , निज अनुभव में सब
सच्चे हैं।
हाँ
उदर क्षोभ जब होता है ,बिन फल के क्या ये
खोता है ?
तन
पर जो ये छाले होते , समझूँ कैसे मिथ्या
होते?
और
उदर क्षोभ से व्याकुल तन, हो जठर उष्म का वेग
गहन।
तब
कुक्ष हुताशन हरने को , नर क्या न करता भरने
को।
जो
भी दीखता संसार मेरा , जिससे चलता व्यापार
मेरा।
जब
व्याघ्र सिंह आ जाते हैं , क्या हम ना जान बचाते
हैं ?
और
काया के जल जाने पर , क्या हँस पाते मिथ्या
कह कर?
जो
आग जले जल जायेंगे , जो पानी हो गल जायेंगे।
जीवन
में जो है पक्का है , हर अनुभव सीधा सच्चा
है।
सच्चा
लगता जग ये है कहना, जो दृष्टि में ना है
सपना ।
एकलव्य
प्रश्न
चिन्ह सा लक्ष्य दृष्टि में,निज बल से सृष्टि रचता
हूँ।
फुटपाथ
पर रहने वाला,ऐसे निज जीवन गढ़ता
हूँ।
माना
द्रोण नहीं मिलते हैं,भीष्म दृष्टि में ना
रहते हैं।
परशुराम
से क्या अपेक्षण,श्राप गरल हीं तो
मिलते हैं।
एकलव्य
सा ध्यान लगाकर,निज हीं शास्त्र संधान
चढ़ाकर।
फूटपाथ
पर रहने वाला, फुटपाथ पर हीं पढ़ता
हूँ।
ऐसे
हीं रण मैं लड़ता हूँ,जीवन रण ऐसे लड़ता हूँ।
मरघट
वासी
ओ
मरघट के मूल निवासी,भोले भाले शिव कैलाशी।
यदा
कदा मन आकुल व्याकुल,जग जाता अंतर सन्यासी।
जब
जग बन्धन जुड़ जाते हैं,भाव सागर को मुड़ जाते
हैं।
इस
भव में यम के जब दर्शन,मन इक्छुक होता
वनवासी।
मन
ईक्षण है चाह तुम्हारा,चेतन प्यासा छांह
तुम्हारा।
ईधर
उधर प्यासा बन फिरता,कभी मथुरा कभी काशी ।
ओ
मरघट के मूल निवासी,भोले भाले शिव कैलाशी।
ना
जात पर धरम पर,जन गण का धन हरण कर
टिको
ना तुम करम पर,भ्रष्टाचार है चरम पर,
शामत
पर शामत आई,जनता दे रही दुहाई,
एक
पुल जो बनी थी,दिनों में हीं चरमराई,
और
पूछते है साहब,कौन सी है आफत आई,
और
क्या है तेरे किसी बाप की कमाई,
आंखों
में कुछ शरम कर, जन गण का धन हरण कर
टिको
ना तुम करम पर,भ्रष्टाचार है चरम पर,
भूखों
का ले निवाला तुम भरते जठर ज्वाला,
कईयों
के उदर खाली तुम भरते उदर ज्वाला,
सरकार
के ये पैसे ,कैसे उड़ाते भाई,
जन
गण निज हीं श्रम कर, ये घन उगाते भाई,
जन
गण के संचित धन पर, कुछ तो तू रहम कर
टिको
ना तुम करम पर,भ्रष्टाचार है चरम पर,
ऐसे
हीं जनता रोती अब और ना चिर हरण कर,
भाई
कुछ तो शरम कर, कुछ श्रम कर कुछ श्रम
कर।
पोंगा
पंडित काम ना आए,
ना
पोथी ना पतरा,
एक
बात है सुन ले भाई,
लोक
तंत्र है खतरा।
पुरुषोत्तम
श्रीराम
गद्दी
त्यागे, राज्य भी त्यागे,
त्यागे
सब सुख धाम,
तब
जाके हीं बन पाए वो,
पुरुषोत्तम
श्रीराम,
हे
ईश्वर संसार तुम्हारा
अद्भुत
है आकार तुम्हारा,
हे
ईश्वर संसार तुम्हारा
अजय
अमिताभ सुमन
तेरे
हीं नामों को लिखकर
कितने
हीं महाग्रंथ लिखे हैं,
योग
,जोग, नियोग
अधिज्ञाता,
तंत्र
मंत्र आदि ग्रंथ फले हैं।
छुपा
कर रखी थी जो अबतक उस जात पे ,
आखिर
आ हीं गए तुम अपनी औकात पे.
माघ
की रात
फिर
छाने लगी रूह में
सर्द
माघ की रात,
सन
सन करती दिन रात दिन,
रूह
कांपती रात।
अजय
अमिताभ सुमन
आजाद
है
आजाद
कौन था,
आजाद
कौन है,
इस
प्रश्न पर धरा ये,
क्यों आज मौन है,
इस
देश पर मिटा जो,
आजाद
नहीं था,
मिट्टी
पर था टिका जो,
आजाद
वो ही था।
आवाज
रूह की,
ना
तख्त के लिए,
ना
ताज के लिए,
ना
नाम की भी ख्वाहिश,
ना
नाज के लिए,
दफ़न
ना रह जाएं कहीं,
लफ्ज़
कोई सीने में,
मैं
लिखता हूं रूह की,
आवाज
के लिए।
@अजय अमिताभ सुमन
चिंगारी
से जला नहीं जो
चिंगारी
से जला नहीं जो,
उसने
कब प्रकाश रचा है,
अंधेरों
में चला नहीं जो,
उसने
कब इतिहास रचा है।
आड़ी
तिरछी सी गलियों से,
जो
लड़ते गाथा रचते,
जिसको
सीधी राह मिली हो,
उसने
कब मधुमास रचा है,
चिंगारी
से जला नहीं जो,
उसने
कब प्रकाश रचा है।
@अजय अमिताभ सुमन
=====
उस
सत में ना चिंता पीड़ा,
ये
जग उसकी है बस क्रीड़ा,
नर
का पर ये जीवन कैसा,
व्यर्थ
विफलता दुख संपीड़ा,
प्रभु
राह की अंतिम बाधा ,
तृष्णा
काम मिटाएं कैसे?
ईश्वर
हीं बसते सब नर में,
ये
पहचान कराएं कैसे?
=====
खुद
को खोने से डरता है,
जीवन
सोने से भरता है,
तिनका
तिनका महल सजाकर,
जीवन
में उठता गिरता है।
प्रभु
प्रेम में खोकर मिलता,
उसको
जग जतलाएं कैसे?
ईश्वर
हीं बसते सब नर में
ये
पहचान कराएं कैसे?
======
सम्मान
भाड़
में गया ईगो विगो,
और
भाड़ सम्मान,
बंधु
जेब में होने चाहिए,
भर
के नोट तमाम,
भर
के नोट तमाम।
@अजय अमिताभ सुमन
अभागी
जो
पानी से आग लगा दी,
उनको
कैसे कहूं अभागी।
@अजय अमिताभ सुमन
आप्त
तू
तबतक ना आप्त है,
पर्याप्त
है जो प्राप्त है।
@अजय अमिताभ सुमन
चाय
बात
यूं ना थी कि चाय,
कैसे
हलक में अटक गई,
बात
यूं थी दरअसल ,
कि
प्याली थी झूठ की,
और
सच गटक गई
@अजय अमिताभ सुमन
वक्त
और काम
कौन
न कहता काम दो,
काम
दो भई काम दो,
काम
दो तमाम दो,
दिन
रात सुबहो शाम दो,
अर्ज
फकत इतना सा है,
कि
काम होते वक्त दो,
या
वक्त होते काम दो।
जीवन
में दुख भी है,
जीवन
में सुख भी,
दुख
की परछाई तो,
सुख
भी है चख ले,
कांटे
तो चुभते ,
चुभाते
हीं जायेंगे,
हंसने
को राजी गर ,
फूल
भी है हंस ले।
@अजय अमिताभ सुमन
पहचान
लोग
पूछते हैं मुझसे,
मेरे
मजहब का नाम,
नाकाफी
है शायद,
मेरा
इंसान होना।
@अजय अमिताभ सुमन
हादसा
अखबार
में आ जाए,
ये
तय नहीं है,
हादसा
तो है,
पर
समय नहीं है।
@अजय अमिताभ सुमन
ख्वाहिश-ए-मंजिल
है जायज़ "अमिताभ", मजा तो तब है,
लुत्फ़-ए
सफर में असर हो, नशा-ए–मंजिल का।
बार
वकीलों
का जीवन
ना
जीत में , ना हार में ,
या
तो लड़ते है बार में ,
या
पड़ते हैं हैं बार में
@अजय अमिताभ सुमन
आप्त
तू
तबतक ना आप्त है,
पर्याप्त
है जो प्राप्त है।
@अजय अमिताभ सुमन
चाय
बात
यूं ना थी कि चाय,
कैसे
हलक में अटक गई,
बात
यूं थी दरअसल ,
कि
प्याली थी झूठ की,
और
सच गटक गई
@अजय अमिताभ सुमन
कॉर्पोरेट
या
तो समय रहते काम दो,
या
काम के लिए समय दो।
@अजय अमिताभ सुमन
प्रश्न
विकट है मेरे मन में,
आए
बारंबार,
क्या
सच में होते हैं लड़के,
भैरव
के अवतार।
ना
कोई व्यापार
लड़के
तो होते हैं भैया
शिव
जी के अवतार,
10 रंग के लाल लिपिस्टिक
भस्म
विभूति, ना कोई श्रृंगार
मीट
भात सब चटल रहे
दांत
आंत पर डटल रहे
पटल, अटल,सकल, सफल,
तरल, तलल, गरल
#trendigpoem #viralpost #micropoetry #Poetry
#microPoem #Shortpoem #Shorts #Kavita #Laghukavita #Poetrylover
#Poetrycommunity #Hindikavita #Hindipoem
अगर
दिवस हो छत्तीस घंटे
काला
ज्यादा , कम सफेद है,
बस
इसी बात का तो खेद है।
हैरान
बस इस बात का ,
हैरान
नहीं हूँ मैं ,
खुद
से हीं अपरिचित ,
अंजान
हूँ मैं.
=====
रात
के अंधेरों में तू भी क्या चीज है,
जुगनूओं
की रोशनी हीं तुझको अजीज है।
रेत
के समंदर में कारवां बिखर गया,
और
तू कि फरेब हीं, मरीचिका उम्मीद है ।
=====
ना
नास्तिक ना आस्तिक
वास्तविक
, स्वास्तिक
=====
पुरुषोत्तम
श्रीराम
गद्दी
त्यागे, राज्य भी त्यागे,
त्यागे
सब सुख धाम,
तब
जाके हीं बन पाए वो,
पुरुषोत्तम
श्रीराम,
हे
ईश्वर संसार तुम्हारा
अद्भुत
है आकार तुम्हारा,
हे
ईश्वर संसार तुम्हारा
अजय
अमिताभ सुमन
तेरे
हीं नामों को लिखकर
कितने
हीं महाग्रंथ लिखे हैं,
योग
,जोग, नियोग
अधिज्ञाता,
तंत्र
मंत्र आदि ग्रंथ फले हैं।
माघ
की रात
फिर
छाने लगी रूह में
सर्द
माघ की रात,
सन
सन करती दिन रात दिन,
रूह
कांपती रात।
अजय
अमिताभ सुमन
आजाद
है
आजाद
कौन था,
आजाद
कौन है,
इस
प्रश्न पर धरा ये,
क्यों
आज मौन है,
इस
देश पर मिटा जो,
आजाद
नहीं था,
मिट्टी
पर था टिका जो,
आजाद
वो ही था।
अभागी
जो
पानी से आग लगा दी,
उनको
कैसे कहूं अभागी।
@अजय अमिताभ सुमन
आप्त
तू
तबतक ना आप्त है,
पर्याप्त
है जो प्राप्त है।
@अजय अमिताभ सुमन
वक्त
और काम
कौन
न कहता काम दो,
काम
दो भई काम दो,
काम
दो तमाम दो,
दिन
रात सुबहो शाम दो,
अर्ज
फकत इतना सा है,
कि
काम होते वक्त दो,
या
वक्त होते काम दो।
@अजय अमिताभ सुमन
फूल
और कांटे
जीवन
में दुख भी है,
जीवन
में सुख भी,
दुख
की परछाई तो,
सुख
भी है चख ले,
कांटे
तो चुभते ,
चुभाते
हीं जायेंगे,
हंसने
को राजी गर ,
फूल
भी है हंस ले।
@अजय अमिताभ सुमन
ख्वाहिश-ए-मंजिल
है जायज़ "अमिताभ", मजा तो तब है,
लुत्फ़-ए
सफर में असर हो, नशा-ए–मंजिल का।
बार
वकीलों
का जीवन
ना
जीत में , ना हार में ,
या
तो लड़ते है बार में ,
या
पड़ते हैं हैं बार में
@अजय अमिताभ सुमन
आप्त
तू
तबतक ना आप्त है,
पर्याप्त
है जो प्राप्त है।
@अजय अमिताभ सुमन
चाय
बात
यूं ना थी कि चाय,
कैसे
हलक में अटक गई,
बात
यूं थी दरअसल ,
कि
प्याली थी झूठ की,
और
सच गटक गई
@अजय अमिताभ सुमन
कॉर्पोरेट
या
तो समय रहते काम दो,
या
काम के लिए समय दो।
@अजय अमिताभ सुमन
आसमान
की तरह
ना
समन्दर के माफ़िक़ गहरे,
ना
खाली आसमान की तरह,
ये
जीना भी कोई जीना है
कि
महज इंसान की तरह।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
खुदा
और हवा
दिखते
तो हो हर जगह ,दिखते
पर नहीं,
रहते
तो हो इस दिल में, छिपते पर नहीं,
हो
नजर के सामने और नजरों से ओझल,
हवा
हो क्या खुदा तुम, मिलते पर नहीं।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
हाथ
की लकीरें
हाथ
में रहकर भी नहीं आदमी के हाथ में,
हाथ
की लकीरें भी चीज क्या है वाइज।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
खुदा
हो गया है
तेरे
हीं शहर में तुझी को ढूंढता हूँ,
अब
बता भी दे अपना पता ,
क्या
तू भी खुदा हो गया है?
अजय
अमिताभ सुमन
अहम
का था बना वो, वहम में हिल गया,
मिट्टी
से न जुड़ा था , मिट्टी में मिल गया।
=====
“ये वकील का पेशा है या कि पत्थरों की
दास्तां,
क़ि
जीत पे जश्न नहीं, हार का गम नहीं।”
====
होते
कुछ और हो, दिखाते कुछ और हो,
“बेनाम” खुद
को अख़बार समझ रखा है क्या।
====
अमीरों
को मलाल , गरीबी ना मिली,
गरीबों
को मलाल,अमीरी ना मिली।
पलंग
पे सोते अमीर को तरसे गरीब,
और
अमीर कि सुकून-ए-फकीरी ना मिली।
====
कैसे
करूँ इंकार , काँटों का तेरे भगवन,
फूलों
में तू उतना ही है, जितना की काँटों में।
====
पोंगा
पंडित काम ना आए,
ना
पोथी ना पतरा,
एक
बात है सुन ले भाई,
लोक
तंत्र है खतरा।
आवाज
रूह की,
आवाज
रूह की,
ना
तख्त के लिए,
ना
ताज के लिए,
ना
नाम की भी ख्वाहिश,
ना
नाज के लिए,
दफ़न
ना रह जाएं कहीं,
लफ्ज़
कोई सीने में,
मैं
लिखता हूं रूह की,
आवाज
के लिए।
=====
बिना
डाँट के जीवन कैसा,
फल
बिना किसी तरुवर जैसा।
अति
शराफत भी आफत है।
===========
क्यों
दूँ खुद को मैं विश्राम
अथक
परिश्रम नहीं आराम।
ना
कर्मों को अल्प विराम।
कोर्ट
केस के झगड़े सारे।
सुलझाने
कई ल फड़े सारे।
मन
में जो भी भाव हैं फलते।
गीत, कहानी, कविता
गढ़ते।
और
बढ़ानी भी निज आय।
संपन्नता
का बनूँ पर्याय।
कई
अधूरे नाम गिना दूँ।
सोने
पर विश्राम लगा दूँ।
समय
है कम और ज्यादा काम।
क्यों
दूँ खुद को मैं विश्राम।
अजय
अमिताभ सुमन
======
जुन से भी
आफत
जुन से भी
आफत जुलाई महीना।
पानी
से राहत अब मिलता कहीं ना।
बादल इस मौसम
में आए हुए हैं।
कीचड़ हीं सड़कों पर छाए हुए हैं।
सब्जी
दुकानों पर आफत है छाई।
चावल भी लेने
को शामत है भाई।
कपड़े सुखाने को जाएं कहाँ
पर।
टपटपटप
बूँदें आ जाती है छत पर।
भींगा
है मौसम ना सुखता पसीना।
जुन से भी
आफत जुलाई महीना।
अजय
अमिताभ सुमन
#आफत #MicroPoetry #Poem #Poetryhub #poetrylovers #poetrygram
#poetryislife #kavita #LaghuKavita #Hindipoet #Hindipoetrylovers
=====
हर
पल हर क्षण इनवेस्ट कर,
यूँ
हीं जीवन ना वेस्ट कर।
ना
रेस्ट कर, जेस्ट कर, रिकुवेस्ट कर, टेस्ट
कर
===
मेट्रो
ब्रीज का काम चला हो ,कूड़ा कचरा जहाँ पड़ा हो
।
गली
नाले में जमा जो कंकड़,साफ़ सफाई कर मिल
जुलकर।
नहीं
एक की जिम्मेदारी ,हम सब की भी अपनी
बारी।
आपस
में हम सब मिल जुल कर ,अपने अपने कर्म निभाएं
।
कुड़े
कचड़े साफ कराएं , पेड़ लगाएं शहर बचाएं ।
=====
पत्थर
धर सर पर चलते हैं मजदूरों के घर मिलते हैं,
टोपी
कुर्ता कभी जनेऊ कंधे पर धारण करते हैं।
कंघा
पगड़ी जाने क्या क्या सब तो है तैयार,
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
अल्लाह
नाम भज लेते भाई राम नाम जप लेते भाई,
मंदिर
मस्जिद स्वाद लगी अब गुरुद्वारे चख लेते भाई।
जीसस
का भी भोग लगा जाते साई दरबार,
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
नैन
मटक्का पे भी यूँ ना छेड़ो तीर कमान,
चूक
वुक तो होती रहती भारत देश महान ,
गले
पड़े तो शोर शराबा क्योंकर इतनी बार?
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
=====
माना
उनके कहने का कुछ ऐसा है अन्दाज,
हँसी
कभी आ जाती हमको और कभी तो लाज।
भूल
चुक है माना पर माफी दे दो इस बार।
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
प्रजातंत्र
में तो होते रहते है एक बवाल,
चमचों
में रहतें है जाने कैसे देश का हाल।
सीख
जाएंगे देश चलाना आये जो इस बार।
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
फ़टी
जेब ले चलते जग में छाले पड़ जाते हैं पग में,
मर्सिडीज
पे उड़ने वाले क्या क्या कष्ट सहे हैं जग में।
जोगी
बन दर घूम रहे हैं मेरे राज कुमार,
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
=====
मेहनत
में कोई कमी नही पर एक बात का रोना,
किस्मत
की हीं खोट नोट का ना डिपोजल होना।
तिसपे
भारी लगती लगती ई.वी.एम.की मार,
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
जिसे
देश चलाना एक दिन ढूंढे अपना फ्यूचर,
जन्म
पत्री तो ठीक ठाक कहते हैं ये कंप्यूटर।
राहु
केतु जो आन पड़े हैं कर दो बेड़ा पार।
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
=====
कभी
जरूरत आन पड़े , टोकूंगा नहीं,
सही
काम करने पर , रोकूंगा नहीं।
उस
सब्र की आखिर दवा क्या है ?
हवा
क्या है
लमफट
चंफट बमफट संकट में
पयाम, सलाम, इंतजाम,नाम, गुलाम,बदनाम,एहतिमाम
=====
पतोह
का प्रेम दिखाना, सास को बचाना,कमासूत सास
पतली
गली से सास को जाने में दिक्कत, ट्रक है क्या
सपने
के फायदे, कहीं भी घूम आओ
======
चर्च
बन्द है टेम्पल बन्द,
गुरुद्वारा
व मस्जिद बन्द,
ठंडी
की महिमा कुछ ऐसी,
पानी
दिखता एटम बम।
=====
देश
में नए विधान की
आन
पड़ी है आज जरूरत,
देश
में नए विधान की,
नए
समय में नई समस्या ,
मांगे
नए निदान की।
कभी
गुलामी की बेड़ी थी ,
अंग्रेजों
का शासन था,
इतिहास
का काला पन्ना,
वो
काला अनुशासन था।
गुलामी
की जंजीरों को,
जेहन
में रख क्या होगा?
अंग्रेजों
से नफरत की,
बातों
को रख कर क्या होगा?
इतिहास
में जो चलता था,
आज
भी वो ही जरूरी हो,
भूतकाल
में जो फलता ,
क्या
पता आज मजबूरी हो।
आज
सभी को साथ मिलाकर ,
रचने
नए प्रतिमान की,
यही
वक्त है गाथा लिखने,
भारत
देश महान की।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
मूषक
गीता
बाबा
जी ये मुझको क्या देते हैं मूषक ज्ञान,
प्रभु
उन्हीं को मिलते देते जो चूहों को मान?
ध्यान
नेत्र को थोड़ा हिला के निजआसान को जरा डुला के,
बाबाजी
ने पाठ पठाया, मूषक गीता को समझाया।
बोले
ध्यान में मूषक बाधा, कपड़ों को कर देते आधा,
पर
इनसे तुम ना घबड़ाना, निज जिह्वा में प्रेम
बसाना।
अपनी
गलती थी ना माना, गुरु ज्ञान था कदर ना
जाना,
मूषक
के खाने के हेतु , बिल्ली थी एक जरिया
सेतु।
फिर
बिल्ली की जान बचाने, रोज रोज को दूध पिलाने,
ले
आया था फिर एक गाय,वही समस्या वो ही हाय।
फिर
गाय को घास चराने, समय समय पर उसे घुमाने,
ढूंढ
ढांढ के लड़की लाया, प्रेम पाश में मैं
पछताया।
चूहे
का चक्कर कुछ ऐसा ,जग माया घनचक्कर जैसा।
मेरी
बात सच है ये जानो, मूषक को युवती हीं
जानो।
तब
हीं बेड़ा पार लगेगा, मूषक ज्ञान से ध्यान
सधेगा।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
सासू
मां को पाठ पढ़ाया
ना
जाने किस घाट घुमाया,
सासू
मां को पाठ पढ़ाया?
जाने
क्या थी घुटी पिलाई,
सासूजी
का दिल भर आया।
दिल
भर आया बोली रानी,
तुझको
है एक बात बतानी।
क्यों
सहमी सी डरती रहती,
क्यों
बात ऐसी बहुरानी?
ससुराल
भी नैयर जैसा,
अंतर
घी मैहर में कैसा?
एक
दूध से मक्खन बनता,
फिर
मठ्ठा से रैहर कैसा?
बस
तुझको बस इतना कहना,
तू
हीं मेरे दिल का गहना।
जो
इच्छा हो मुझे बताओ
ससुराल
को समझो अपना।
सासू
मां की बात जान के,
उनके
मन के राज जान के।
बहुरानी
समझी घर अपना,
बोली
उनको मां मान के।
माता
उठकर चाय बनाओ,
सूत
उठकर मुझे पिलाओ।
थोड़ा
सा सर भारी लगता,
हौले
हौले जरा दबाओ।
पैसा
रखा जो बचा बचा के,
घर
से थोड़ा दबा दबा के।
बनवा
दो मुझको तुम गहना,
सासू
मां इतना बस कहना।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
बुद्धि
अर्थ में बेहतर कौन?
बुद्धि
अर्थ में बेहतर कौन ,
प्रश्न
कठिन था उत्तर मौन ?
कठिन
प्रश्न था आखिर चिंटू ,
तन
मन उलझा भारी।
ज्ञान
या पैसे के पीछे ,
अपनी
करे सवारी।
अपनी
उलझन लेके चिंटू ,
पहुंचा
पिंटू पास।
चुटकी
में वो सुलझ गई ,
जो
भी उलझन थी खास।
पिंटू
बोला जो सुलभ हो ,
तो
क्यों भागे पीछे।
जिसे
प्राप्त करना हो मुश्किल,
चल
तू आँखे मींचे ।
अर्थ
बहुत मुश्किल से मिलता ,
जिससे
भी तू मांगे ।
और
ज्ञान तो सब देते हैं ,
बिन
बोले बिन मांगे ।
इसीलिए
कहता हूँ चिंटू ,
पैसा
रख तू पास।
यही
ज्ञान है बिन पैसे का,
कर
ले तू विश्वास।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
राजनीति
की नई मांग पर , यौवन है लाचार
वक्त
रचाता अजब स्वांग है, कुंवारों की आज मांग
है,
राहुल, ममता ,माया, मोदी इनके हीं न्यारे डिमांड है।
देखो
कुछ तो त्यागे बीबी कुछ त्यागे भातार,
राजनीति
की नई मांग पर , यौवन है लाचार।
वक्त
पड़े तो दुश्मन से भी हो सकता गठ योग,
एक
राह है सबका सबसे मिल सकता सहयोग।
है
सबके मन के अंधियारे सपने एक हजार,
एक
बार तो तब मन धन से हो जाओ तैयार।
गठबंधन
का लोभ यही है सत्ता का सुखभोग सही है,
ना
मुद्दा ना नीति भईया, कुर्सी का रस योग सही
है।
पद
पा लो किसी भांति करके , जोड़ तोड़ जुगाड़,
तब
जाके कुर्सी का बंधु , सपना हो स्वीकार ।
@अजय अमिताभ सुमन
झापड़, पापड़
=====
कौन
मेघ गर्जन में शामिल? #God #Spiritual #Poetry
#Micropoetry #Instapoem #Poetryhub #Kavita #Viral #Viralpoetry #Short
कौन
मेघ गर्जन में शामिल?झिंगुर के गायन में
शामिल?
कौन
सृष्टि को देता वाणी?सर्व व्याप्त पर रहता
मौन?
कौन
सीपी में मोती धरता, कौन आखों में ज्योति
भरता ,
चर्म
कवच कच्छप को देता,कभी सर्प का जो हर
लेता।
कौन
सुगंधि है फूलों की?और तीक्ष्ण चुभन शूलों
की?
कौन
आम के मंजर में है?मरू भूमि में, बंजर में है?
जो
द्रष्टा हर कण कण क्षण का , पर दृष्टि को रहता गौण,
और
सृष्टि को देता वाणी , सर्व व्याप्त पर रहता
मौन?
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
ना
नटखट मैं ना शैतान #Kid #Prayer #Poetry
#Micropoetry #Instapoem #Poetryhub #Kavita #Viral #Viralpoetry #Short #Humour
#Laughter
ना
नटखट मैं ना शैतान
ना
बालक हूं एक शैतान ,
कर
दे ईश्वर इतना काम,
एक
वीक छुट्टी मिल जाए ,
जो
मुझको हो जाए जुकाम।
दूध
देख के उल्टी आती ,
भिन्डी
भी है बहुत सताती,
खाने
की भी चीज है कोई ,
बैगन
कटहल लौकी भाजी।
मैगी
बर्गर गरम समोसे ,
छोले
कुलचे इडली डोसे ,
दूध
मलाई मक्खन हलवा ,
दादी
भर भर नरम पड़ोसे।
हे
भगवान तुम ज्ञानी दानी ,
और
क्या मांगू तुझसे दान,
मोच
टांग में आ जाए जो ,
टीचर
के बन जाए काम।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
आँखों
का पानी
सपनों
को मुठ्ठी में करने, के सपने ना सोने देते।
साहब
की आंखों को ऐसे,हीं सपने ना रोने
देते।
ख्वाब
नहीं ऐसे बनते हैं,सपने सच्चे बन फलते
हैं।
इनके
घर तब रोशन होता,जब गरीब जन जल पड़ते
हैं।
बेशर्मी
से सींच सींच कर, दिल से आंखे मींच मींच
कर।
एक
गरीब की आंखों में जो,दुख का दरिया दे देते,
वो
ही साहब की आंखों में,पानी ना होने देते।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
तिनका
तिनका सजा सजाकर #Creator #Existence,
#Poetry #Micropoetry #Instapoem #Poetryhub #Kavita #Viral #Viralpoetry #Short
तिनका
तिनका सजा सजाकर,अवनि को महकाता कौन?
धारण
करता जो सृष्टि को,पर सृष्टि में रहता
मौन।
कैसे
वन वन उड़े कपोती?अग्नि से निकले क्यों
ज्योति,
किस
भांति बगिया में कलरव,कोयल की गायन होती?
भिन्न
भिन्न से रंग सजाकर ,गुलों में रख आता है,
हर
सावन में इन्द्रधनुष को ,अम्बर में चमकाता कौन?
तिनका
तिनका सजा सजाकर,अवनि को महकाता कौन?
धारण
करता जो सृष्टि को,पर सृष्टि में रहता
मौन।
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
लाल
लिपस्टिक अगर लगाओ ,
मन
वांछित वर सुलभ हीं पाओ ।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
मौन
हो तुम?
हिंदू
हो या मुस्लिम भाई,
सिख,यहूदी या हो ईसाई।
बौद्ध
जैन का कोई सपना,
हृदय
लगाए जैसे गहना।
कौन
हो तुम?
बाल
शिशु या तरुण जवानी,
युवा
प्रौढ़ की कोई कहानी ।
या
नर का नर हुआ विकर्षण,
या
नारी से काम आकर्षण।
यौन
हो तुम?
एक
देश का एक निवासी,
बाकी
सारे लगे प्रवासी।
एक
राष्ट्र को प्रेम समर्पित,
निजजीवन
को करते अर्पित।
जौन
हो तुम?
एक
जाति के एक धर्म के,
एक
भाव हीं एक मर्म के।
निजजाति
का ज्ञान लिए हो,
गौरव
का सम्मान जिए हो।
तौन
हो तुम?
युवा
युवती या कोई मानव,
साधु
संत या कोई दानव।
जग
का रसिया या जगरागी,
या
जग से तुम चले वैरागी।
बौन
हो तुम?
छोटा
सा आधार लिए हो,
छोटा
सा विचार लिए हो।
छोटा
सा आकार लिए हो,
छोटा
सा संसार लिए हो।
गौण
हो तुम?
बसता
है जिसमें संसार,
वो
अपरिमित निराकार।
इतने
में कैसे रख लोगे?
ईश्वर
को कैसे चख लोगे?
मौन
हो तुम?
अजय
अमिताभ सुमन
=====
चिम्पू
की ना खुले जुबान
कार
में जाके कूद के चिम्पू,
जो
बैठा धपाक,
खुली
थी खिड़की सीट पर पानी,
पड़ने
लगा छपाक।
गेट
खोल के निकला चिम्पू ,
बटन
खोल के निकला चिम्पू।
गुस्से
में था आखं निकाले,
चीख
चीख के बम फोड़ डाले।
किसकी
शामत आई आज ,
किसकी
ऐसी है औकात?
कौन
है अंधा आँख नहीं हैं ,
बुद्धि
की कोई बात नहीं है ?
कौन
है ऐसा पाठ पढ़ा दूँ,
चलते
कैसे ज्ञात करा दूँ ?
शोर
सुन के आए ताऊ ,
पूछे
किसकी हलक दबाऊ?
किसकी
चर्बी आज चढ़ी है ?
बुद्धि
किसकी आज बुझी है ?
देख
के आगे एक पहलवान ,
चिम्पू
की ना खुले जुबान।
अकल
घुमाई जोर लगाया,
तब
जाके कुछ समझ में आया।
बोला
क्या कहते हैं ताऊ,
कार
थी गन्दी कामचलाऊ।
कैसा
ये शुभकाम हुआ है ,
मेरे
कार का नाम हुआ है।
चमचम
गाड़ी चमचम सीट,
और
थोड़ा पानी दें छीट ।
=====
धनिया
नींबू दाम बढ़ेगा
धनिया
नींबू दाम बढ़ेगा,
कब
तक बोलो कब तक?
सी.एन.जी.
का नाम बढ़ेगा,
कबतक
आखिर कबतक?
जनता
की पीड़ा तो हर लो,
कीमत
आटे की कम कर लो।
रोटी
के अन्धे क्या गाए ,
बेहतर
भारत कब तक?
भूख
मिटी तो सब नाचेंगे ,
बेस्ट
देश है सब गाएंगे।
पेट
क्षुधा की मार है भारी ,
देश
प्रेम पे अब तक।
भारत
की तुम गाथा गाते,
पावन
मिट्टी कथा बताते।
दिल
की अपनी पीड़ सुनाएं,
व्यथा
बताएं कब तक?
सारे
जहाँ से सच्चा कैसे?
देश
हमारा अच्छा कैसे?
कंधे
पर क्यों झंडा लाएं?
त्राण
मिलेगा कब तक?
धनिया
नींबू दाम बढ़ेगा,
कब
तक बोलो कब तक?
अजय
अमिताभ सुमन
=====
इस
जगत में वेदना का
इस
जगत में वेदना का ,
दरअसल
निदान क्या हो?
कष्ट
पीड़ा से हो मुक्ति,
वेदना
परित्राण क्या हो?
शक्ति
संचय से अगर हीं,
वेदना
का त्याग हो तो,
पद
प्रतिष्ठा से अगर ,
संवेदना
परित्याग हो तो।
जग
को जीता हुआ जग,
त्याग
बिन बोले हुए,
क्यों
सिकंदर जा रहा था,
हाथ
को खोले हुए।
हिम
शिखर सी भी ऊंचाई,
प्राप्त
कर निर्मुक्त हो,
क्या
तुझे दृष्टति है मानव,
जो
पीड़ा से मुक्त हो?
शक्ति
संचय से कदाचित,
नर
की चाहत बढ़ हीं जाती,
पद
प्रतिष्ठा मान शक्ति ,
नर
के सर में चढ़ ही जाती।
किंतु
हासिल सुख हो अक्षय,
धन
आदि परिमाण क्या हो?
इस
जगत में वेदना का ,
दरअसल
निदान क्या हो?
अजय
अमिताभ सुमन
=====
मरघट
वासी
ओ
मरघट के मूल निवासी,भोले भाले शिव कैलाशी।
यदा
कदा मन आकुल व्याकुल,जग जाता अंतर सन्यासी।
जब
जग बन्धन जुड़ जाते हैं,भाव सागर को मुड़ जाते
हैं।
इस
भव में यम के जब दर्शन,मन इक्छुक होता
वनवासी।
मन
ईक्षण है चाह तुम्हारा,चेतन प्यासा छांह
तुम्हारा।
ईधर
उधर प्यासा बन फिरता,कभी मथुरा कभी काशी ।
ओ
मरघट के मूल निवासी,भोले भाले शिव कैलाशी।
=====
ये
ढूंढ रहे किसको जग में शामिल तो हूँ तेरे रग में,
तेरा
हीं तो चेतन मन हूँ क्यों ढूंढे पदचिन्हों में डग में।
नहीं
कोई बाहर से तुझको ये आवाज लगाता है,
अब
तक भूल हुई तुझसे कैसे अल्फाज बताता है ।
है
फर्क यही इतना बस कि जो दीपक अंधियारे में,
तुझको
इक्छित मिला नही दोष कभी उजियारे में।
=====
सूरज
तो पूरब में उगकर रोज रोज हीं आता है,
जो
भी घर के बाहर आए उजियारा हीं पाता है।
ये
क्या बात हुई कोई गर छिपा रहे घर के अंदर ,
प्रज्ञा
पे पर्दा चढ़ा रहे दिन रात महीने निरंतर।
बड़े
गर्व से कहते हो ये सूरज कहाँ निकलता है,
पर
तेरे कहने से केवल सत्य कहाँ पिघलता है?
========
सूरज
भी है तथ्य सही पर तेरा भी सत्य सही,
दोष
तेरेअवलोकन में अर्द्धमात्र हीं कथ्य सही।
आँख
मूंदकर बैठे हो सत्य तेरा अँधियारा है ,
जरा
खोलकर बाहर देखो आया नया सबेरा है।
इस
सृष्टि में मिलता तुमको जैसा दृष्टिकोण तुम्हारा,
तुम
हीं तेरा जीवन चुनते जैसा भी संसार तुम्हारा।
=====
बुरे
सही अच्छे भी जग में पर चुनते कैसा तुम जग में,
तेरे
कर्म पर हीं निर्भर है क्या तुमको मिलता है डग में।
बात
सही तो लगती धीरे धीरे ग्रंथि सुलझ रही थी ,
गाँठ
बड़ी अंतर में पर किंचित ना वो उलझ रही थी।
पर
उत्सुक हो रहा द्रोणपुत्र देख रहा आगे पीछे ,
कौन
अनायास बुला रहा उस वाणी से हमको खींचे?
========
ना
पेड़ पौधा खग पशु कोई ना दृष्टिगोचित कोई नर,
बार
बार फिर बुला रहा कैसे मुझको अगोचित स्वर।
गंध
नहीं है रूप नहीं है रंग नहीं है देह आकार,
फिर
भी कर्णों में आंदोलन किस भाँति कंपन प्रकार।
क्या
एक अकेले रहते चित्त में भ्रम का कोई जाल पला,
जो
भी सुनता हूँ निज चित का कोई माया जाल फला।
=====
या
उम्र का हीं ये फल है लुप्त पड़े थे जो विकार,
जाग
रहें हैं हौले हौले सुप्त पड़े सब लुप्त विचार।
नहीं
मित्र ओ नहीं मित्र नहीं ये तेरा कोई छद्म भान,
अंतर
में झांको तुम निज के अंतर में हीं कर लो ध्यान।
ये
स्वर तेरे अंतर हीं का कृष्ण कहो या तुम भगवान,
वो
जो जगत बनाते है वो हीं जगत मिटाते जान।
========
बात
मानकर इसकी क्षण को देखे अब होता है क्या,
आँख
मूंदकर बैठा था वो देखें अब होता है क्या?
कुछ
हीं क्षण में नयनों के आगे दो ज्योति निकट हूई,
तन
से टूट गया था रिश्ता मन की द्योति प्रकट हुई।
इस
धरती के पार चला था देह छोड़ चंदा तारे,
अति
गहन असीमित गहराई जैसे लगते अंधियारे।
-----
सांस
नहीं ले पाता था क्या जिंदा था या सपना था,
ज्योति
रूप थे कृष्ण साथ साथ मित्र भी अपना था।
मुक्त
हो गया अश्वत्थामा मुक्त हो गई उसकी देह ,
कृष्ण
संग भी साथ चले थे और दुर्योधन साथ विदेह।
द्रोण
पुत्र को हुआ ज्ञात कि धर्म पाप सब रहते हैं ,
ये
खुद पे निर्भर करता क्या ज्ञान प्राप्त वो करते हैं ?
फुल
भी होते हैं धरती है और शूल भी होते हैं ,
चित्त
पे फुल खिले वैसे जैसे धरती पर बोते हैं ।
========
आओ
एक किस्सा बतलाऊँ,
एक
माता की कथा सुनाऊँ,
कैसे
करुणा क्षीरसागर से,
ईह
लोक में आती है?
धरती
पे माँ कहलाती है।
स्वर्गलोक
में प्रेम की काया,
ममता, करुणा की वो छाया,
ईश्वर
की प्रतिमूर्ति माया,
देह
रूप को पाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
ब्रह्मा
के हाथों से सज कर,
भोले
जैसे विष को हर कर,
श्रीहरि
की वो कोमल करुणा,
गर्भ
अवतरित आती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
दिव्य
सलोनी उसकी मूर्ति ,
सुन्दरता
में ना कोई त्रुटि,
मनोहारी, मनोभावन करुणा,
सबके
मन को भाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
======
मम्मी
के आँखों का तारा,
पापा
के दिल का उजियारा,
जाने
कितने ख्वाब सजाकर,
ससुराल
में जाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
नौ
महीने रखती तन में,
लाख
कष्ट होता हर क्षण में,
किंचित
हीं निज व्यथा कहती,
सब
हँस कर सह जाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
किलकारी
घर में होती फिर,
ख़ुशियाँ
छाती हैं घर में फिर,
दुर्भाग्य
मिटा सौभाग्य उदित कर,
ससुराल
में लाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
जब
पहला पग उठता उसका,
चेहरा
खिल उठता तब सबका,
शिशु
भावों पे होकर विस्मित ,
मन्द
मन्द मुस्काती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
=====
बालक
को जब क्षुधा सताती,
निज
तन से हीं प्यास बुझाती,
प्राणवायु
सी हर रग रग में,
बन
प्रवाह बह जाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
माँ
की ममता अतुलित ऐसी,
मरु
भूमि में सागर जैसी,
धुप
दुपहरी ग्रीष्म ताप में,
बदली
बन छा जाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
नित
दिन कैसी करती क्रीड़ा,
नवजात
की हरती पीड़ा,
बौना
बनके शिशु अधरों पे,
मृदु
हास्य बरसाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
माँ
हैं तो चंदा मामा है,
परियाँ
हैं, नटखट कान्हा है,
कभी
थपकी और कभी कानों में,
लोरी
बन गीत सुनाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
=====
रात
रात भर थपकी देती,
बेटा
सोता पर वो जगती ,
कई
बार हीं भूखी रहती,
पर
बेटे को खिलाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
जीवन
के दारुण कानन में,
अतिशय
निष्ठुर आनन में,
वो
ऊर्जा उर में कर संचारित,
प्रेमसुधा
बरसाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
यदा
कदा भूखी रह जाती,
पर
बच्चे की क्षुधा बुझाती ,
पीड़ा
हो पर है मुस्काती ,
नहीं
कभी बताती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
शिशु
मोर को जब भी मचले,
दो
हाथों से जुगनू पकड़े,
थाली
में पानी भर भर के,
चाँद
सजा कर लाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
=====
तारों
की बारात सजाती,
बंदर
मामा दूल्हे हाथी,
मेंढ़क
कौए संगी साथी,
बातों
में बात बनाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
छोले
की कभी हो फरमाइस ,
कभी
रसगुल्ले की हो ख्वाहिश,
दाल
कचौड़ी झट पट बनता,
कभी
नहीं अगुताती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
दूध
पीने को ना कहे बच्चा,
दिखलाए
तब गुस्सा सच्चा,
यदा
कदा बालक को फिर ये,
झूठा
हीं धमकाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
बेटा
जब भी हाथ फैलाए ,
डर
के माँ को जोर पुकारे ,
माता
सब कुछ छोड़ छाड़ के ,
पलक
झपकते आती है ,
धरती
पे माँ कहलाती है।
=====
बन्दर
मामा पहन पजामा ,
ठुमक
के गाये चंदा मामा ,
कैसे
कैसे गीत सुनाए ,
बालक
को बहलाती है
धरती
पे माँ कहलाती है।
रोज
सबेरे वो उठ जाती ,
ईश्वर
को वो शीश नवाती,
आशीषों
की झोली से,
बेटे
को सदा बचाती है,
धरती
पे माँ कहलाती है।
कभी
धुल में खेले बाबू ,
धमकाए
ले जाए साधू ,
जाने
कैसे बात बता के ,
बाबू
को समझाती है ,
धरती
पे माँ कहलाती है।
जब
ठंडक पड़ती है जग में ,
तीक्ष्ण
वायु दौड़े रग रग में ,
कभी
रजाई तोसक लाकर ,
तन
मन में प्राण जगाती है ,
धरती
पे माँ कहलाती है।
=====
ना
जात पर धरम पर,जन गण का धन हरण कर
टिको
ना तुम करम पर,भ्रष्टाचार है चरम पर,
शामत
पर शामत आई,जनता दे रही दुहाई,
एक
पुल जो बनी थी,दिनों में हीं चरमराई,
और
पूछते है साहब,कौन सी है आफत आई,
और
क्या है तेरे किसी बाप की कमाई,
आंखों
में कुछ शरम कर, जन गण का धन हरण कर
टिको
ना तुम करम पर,भ्रष्टाचार है चरम पर,
भूखों
का ले निवाला तुम भरते जठर ज्वाला,
कईयों
के उदर खाली तुम भरते उदर ज्वाला,
सरकार
के ये पैसे ,कैसे उड़ाते भाई,
जन
गण निज हीं श्रम कर, ये घन उगाते भाई,
जन
गण के संचित धन पर, कुछ तो तू रहम कर
टिको
ना तुम करम पर,भ्रष्टाचार है चरम पर,
ऐसे
हीं जनता रोती अब और ना चिर हरण कर,
भाई
कुछ तो शरम कर, कुछ श्रम कर कुछ श्रम
कर।
=====
मार्ग
एक ही सही नहीं है , अन्य मार्ग भी सही
कहीं है,
परम
तत्व के सब अनुगामी ,ना निज पथ अभिमान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे, किंचित कोई परिणाम
रहे।
कर्मयोग
कहीं राह सही है , भक्ति की कहीं चाह बही
है,
जिसकी
जैसी रही प्रकृत्ति , वैसा हीं निदान रहे।
अवसर
की क्यों करे प्रतीक्षा, ज्ञान धरना और
तितिक्षा,
मुमक्षु
बन बहो निरंतर , हर अवसर प्रभु ध्यान
रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे, किंचित कोई परिणाम
रहे।
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
ईक्छित
तुझको प्राप्त नहीं गर, मंजिल दृष्टित ज्ञात
नहीं गर,
निज
कर्म त्रुटि शोधन हो , निज प्रयासों में
प्राण रहे।
परम
तत्व ना मिले अचानक , परम सत्व के पात्र
कथानक ,
आजीवन
रत श्रम के आदि ,परम ब्रह्म गुणगान
रहे।
एक
जन्म की बात नहीं, नहीं एक वक्त दिन रात
कहीं,
जन्मों
की है खोज प्रतीक्षा, थोड़ा सा तो भान रहे।
अभिमान
, ज्ञान , सम्मान
, गुणगान , त्राण
किंचित
कोई परिणाम रहे, किंचित कोई परिणाम
रहे।
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
प्रश्न
विकट है मेरे मन में,
आए
बारंबार,
क्या
सच में होते हैं लड़के,
भैरव
के अवतार।
ना
कोई व्यापार
लड़के
तो होते हैं भैया
शिव
जी के अवतार,
10 रंग के लाल लिपिस्टिक
भस्म
विभूति, ना कोई श्रृंगार
मीट
भात सब चटल रहे
दांत
आंत पर डटल रहे
पटल, अटल,सकल, सफल,
तरल, तलल, गरल
नाजात
पर धरम पर,जन गण का धन हरण कर
टिको
ना तुम करम पर,भ्रष्टाचार है चरम पर,
शामत
पर शामत आई,जनता दे रही दुहाई,
एक
पुल जो बनी थी,दिनों में हीं चरमराई,
और
पूछते है साहब,कौन सी है आफत आई,
और
क्या है तेरे किसी बाप की कमाई,
आंखों
में कुछ शरम कर, जन गण का धन हरण कर
टिको
ना तुम करम पर,भ्रष्टाचार है चरम पर,
भूखों
का ले निवाला तुम भरते जठर ज्वाला,
कईयों
के उदर खाली तुम भरते उदर ज्वाला,
सरकार
के ये पैसे ,कैसे उड़ाते भाई,
जन
गण निज हीं श्रम कर, ये घन उगाते भाई,
जन
गण के संचित धन पर, कुछ तो तू रहम कर
टिको
ना तुम करम पर,भ्रष्टाचार है चरम पर,
ऐसे
हीं जनता रोती अब और ना चिर हरण कर,
भाई
कुछ तो शरम कर, कुछ श्रम कर कुछ श्रम
कर।
========
जो
उद्भट निज प्रण का किंचित ना जीवन में मान रखे,
उस
योद्धा का जीवन रण में कोई क्या सम्मान रखे?
या
अहन्त्य को हरना था या शिव के हाथों मरना था,
या
शिशार्पण यज्ञअग्नि को मृत्यु आलिंगन करना था?
========
जीवन
पथ की राहों पर घनघोर तूफ़ां जब भी आते हैं,
गहन
हताशा के अंधियारे मानस पट पर छा जाते हैं।
इतिवृत
के मुख्य पृष्ठ पर वो अध्याय बना पाते हैं ,
कंटक
राहों से होकर जो निज व्यवसाय चला पाते हैं।
========
अभी
धरा पर घायल हो पर लक्ष्य प्रबल अनजान नहीं,
विजयअग्नि
की शिखाशांत है पर तुम हो नाकाम नहीं।
दृष्टि
के मात्र आवर्तन से सूक्ष्म विघ्न भी बढ़ जाती है,
स्वविवेक
अभिज्ञान करो कैसी भी बाधा हो जाती है।
========
जिस
नदिया की नौका जाके नदिया के ना धार बहे ,
उस
नौका का बचना मुश्किल कोई भी पतवार रहे?
जिन्हें
चाह है इस जीवन में ईक्छित एक उजाले की,
उन
राहों पे स्वागत करते शूल जनित पग छाले भी।
========
पैरों
की पीड़ा छालों का संज्ञान अति आवश्यक है,
साहस
श्रेयकर बिना ज्ञान के पर अभ्यास निरर्थक है।
व्यवधान
आते रहते हैं पर परित्राण जरूरी है,
द्वंद्व
कष्ट से मुक्ति कैसे मन का त्राण जरूरी है?
========
लड़कर
वांछित प्राप्त नहीं तो अभिप्राय इतना हीं है ,
अन्य
मार्ग संधान आवश्यक तुच्छप्राय कितना हीं है।
सोचो
देखो क्या मिलता है नाहक शिव से लड़ने में ,
किंचित
अब उपाय बचा है मैं तजकर शिव हरने में।
=====
राजनीति
की नई मांग पर , यौवन है लाचार
वक्त
रचाता अजब स्वांग है, कुंवारों की आज मांग
है,
राहुल, ममता ,माया, मोदी इनके हीं न्यारे डिमांड है।
देखो
कुछ तो त्यागे बीबी कुछ त्यागे भातार,
राजनीति
की नई मांग पर , यौवन है लाचार।
वक्त
पड़े तो दुश्मन से भी हो सकता गठ योग,
एक
राह है सबका सबसे मिल सकता सहयोग।
है
सबके मन के अंधियारे सपने एक हजार,
एक
बार तो तब मन धन से हो जाओ तैयार।
गठबंधन
का लोभ यही है सत्ता का सुखभोग सही है,
ना
मुद्दा ना नीति भईया, कुर्सी का रस योग सही
है।
पद
पा लो किसी भांति करके , जोड़ तोड़ जुगाड़,
तब
जाके कुर्सी का बंधु , सपना हो स्वीकार ।
@अजय अमिताभ सुमन
=====
ना
नटखट मैं ना शैतान
ना
बालक हूं एक शैतान ,
कर
दे ईश्वर इतना काम,
एक
वीक छुट्टी मिल जाए ,
जो
मुझको हो जाए जुकाम।
दूध
देख के उल्टी आती ,
भिन्डी
भी है बहुत सताती,
खाने
की भी चीज है कोई ,
बैगन
कटहल लौकी भाजी।
मैगी
बर्गर गरम समोसे ,
छोले
कुलचे इडली डोसे ,
दूध
मलाई मक्खन हलवा ,
दादी
भर भर नरम पड़ोसे।
हे
भगवान तुम ज्ञानी दानी ,
और
क्या मांगू तुझसे दान,
मोच
टांग में आ जाए जो ,
टीचर
के बन जाए काम।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
आँखों
का पानी
सपनों
को मुठ्ठी में करने, के सपने ना सोने देते।
साहब
की आंखों को ऐसे,हीं सपने ना रोने
देते।
ख्वाब
नहीं ऐसे बनते हैं,सपने सच्चे बन फलते
हैं।
इनके
घर तब रोशन होता,जब गरीब जन जल पड़ते
हैं।
बेशर्मी
से सींच सींच कर, दिल से आंखे मींच मींच
कर।
एक
गरीब की आंखों में जो,दुख का दरिया दे देते,
वो
ही साहब की आंखों में,पानी ना होने देते।
अजय
अमिताभ सुमन
======
मौन
हो तुम?
हिंदू
हो या मुस्लिम भाई,
सिख,यहूदी या हो ईसाई।
बौद्ध
जैन का कोई सपना,
हृदय
लगाए जैसे गहना।
कौन
हो तुम?
बाल
शिशु या तरुण जवानी,
युवा
प्रौढ़ की कोई कहानी ।
या
नर का नर हुआ विकर्षण,
या
नारी से काम आकर्षण।
यौन
हो तुम?
एक
देश का एक निवासी,
बाकी
सारे लगे प्रवासी।
एक
राष्ट्र को प्रेम समर्पित,
निजजीवन
को करते अर्पित।
जौन
हो तुम?
एक
जाति के एक धर्म के,
एक
भाव हीं एक मर्म के।
निजजाति
का ज्ञान लिए हो,
गौरव
का सम्मान जिए हो।
तौन
हो तुम?
युवा
युवती या कोई मानव,
साधु
संत या कोई दानव।
जग
का रसिया या जगरागी,
या
जग से तुम चले वैरागी।
बौन
हो तुम?
छोटा
सा आधार लिए हो,
छोटा
सा विचार लिए हो।
छोटा
सा आकार लिए हो,
छोटा
सा संसार लिए हो।
गौण
हो तुम?
बसता
है जिसमें संसार,
वो
अपरिमित निराकार।
इतने
में कैसे रख लोगे?
ईश्वर
को कैसे चख लोगे?
मौन
हो तुम?
अजय
अमिताभ सुमन
=====
चिम्पू
की ना खुले जुबान
कार
में जाके कूद के चिम्पू,
जो
बैठा धपाक,
खुली
थी खिड़की सीट पर पानी,
पड़ने
लगा छपाक।
गेट
खोल के निकला चिम्पू ,
बटन
खोल के निकला चिम्पू।
गुस्से
में था आखं निकाले,
चीख
चीख के बम फोड़ डाले।
किसकी
शामत आई आज ,
किसकी
ऐसी है औकात?
कौन
है अंधा आँख नहीं हैं ,
बुद्धि
की कोई बात नहीं है ?
कौन
है ऐसा पाठ पढ़ा दूँ,
चलते
कैसे ज्ञात करा दूँ ?
शोर
सुन के आए ताऊ ,
पूछे
किसकी हलक दबाऊ?
किसकी
चर्बी आज चढ़ी है ?
बुद्धि
किसकी आज बुझी है ?
देख
के आगे एक पहलवान ,
चिम्पू
की ना खुले जुबान।
अकल
घुमाई जोर लगाया,
तब
जाके कुछ समझ में आया।
बोला
क्या कहते हैं ताऊ,
कार
थी गन्दी कामचलाऊ।
कैसा
ये शुभकाम हुआ है ,
मेरे
कार का नाम हुआ है।
चमचम
गाड़ी चमचम सीट,
और
थोड़ा पानी दें छीट ।
=====
इस
जगत में वेदना का
इस
जगत में वेदना का ,
दरअसल
निदान क्या हो?
कष्ट
पीड़ा से हो मुक्ति,
वेदना
परित्राण क्या हो?
शक्ति
संचय से अगर हीं,
वेदना
का त्याग हो तो,
पद
प्रतिष्ठा से अगर ,
संवेदना
परित्याग हो तो।
जग
को जीता हुआ जग,
त्याग
बिन बोले हुए,
क्यों
सिकंदर जा रहा था,
हाथ
को खोले हुए।
हिम
शिखर सी भी ऊंचाई,
प्राप्त
कर निर्मुक्त हो,
क्या
तुझे दृष्टति है मानव,
जो
पीड़ा से मुक्त हो?
शक्ति
संचय से कदाचित,
नर
की चाहत बढ़ हीं जाती,
पद
प्रतिष्ठा मान शक्ति ,
नर
के सर में चढ़ ही जाती।
किंतु
हासिल सुख हो अक्षय,
धन
आदि परिमाण क्या हो?
इस
जगत में वेदना का ,
दरअसल
निदान क्या हो?
अजय
अमिताभ सुमन
=====
अंधेरे
में जब डर लगता #Fear #Poetry #Micropoetry
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अंधेरे
में जब डर लगता,साहस तब भर जाता कौन ?
जुगनू
सारे जला जला कर,बरगद को चमकाता कौन?
कैसे
पेड़ पर पत्ते आते?पतझड़ में कैसे झड़
जाते?
कैसे
कोयल कूक सुनाती,खेतों में हरियाली
छाती?
चमगादड़
को दिशा दिखाता,बिना आंख बतलाता कौन,
और
रात में उल्लू के, नयनों को ज्योति देता
कौन?
अंधेरे
में जब डर लगता,साहस तब भर जाता कौन ?
जुगनू
सारे जला जला कर,बरगद को चमकाता कौन?
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
जभी
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जभी
भ्रूण हो गर्भ स्थापित, थन में दूध दिलाता कौन
?
एक
नीति में एक नियम में , सृष्टि को रच लाता कौन?
अगर
अगन शीतल बन जाए, सागर जल को ना धर पाए,
अगर
धूप ना आए अंबर, बागों में कौन फूल खिलाए?
सहज
नहीं रुक पाता पानी, जब खेतों में वृष्टि
होती,
चक्रवात
का मिटना मुश्किल, जब जब इसकी सृष्टि
होती।
सबके
निज गुण धर्म बनाकर, सही समय पर कर्म फलाकर,
एक
नीति में एक नियम में , सृष्टि को रच लाता कौन?
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
======
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई
बेईमानों
के नमक का, कर्जा बहुत था भारी,
चटी
थी दीमक सारी, ओहदेदार की बीमारी।
कि
कुर्सी के कच्चे चिट्ठे , किरदार खा गई ,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई।
घिसे
हुए थे चप्पल,लाचार की कहानी,
कि
धूल में सने सब ,बेगार की जुबानी।
दफ्तर
के जो थे मारे , अत्याचार खा गई ,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई,
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
थी
भूख की ये मारी, आदत की थी लाचारी,
दफ्तर
के सारे सारे , मक्कारों से थी यारी,
कि
सच के सारे सारे , चौकीदार खा गई ,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई।
तफसीस
क्या करें हम, दफ्तर के सब अधिकारी,
दीमक
से भी सौदा करते, दीमक भी है व्यापारी।
कि
झूठ के वो सारे , व्यापार खा गई,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई।
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
धनिया
नींबू दाम बढ़ेगा
धनिया
नींबू दाम बढ़ेगा,
कब
तक बोलो कब तक?
सी.एन.जी.
का नाम बढ़ेगा,
कबतक
आखिर कबतक?
जनता
की पीड़ा तो हर लो,
कीमत
आटे की कम कर लो।
रोटी
के अन्धे क्या गाए ,
बेहतर
भारत कब तक?
भूख
मिटी तो सब नाचेंगे ,
बेस्ट
देश है सब गाएंगे।
पेट
क्षुधा की मार है भारी ,
देश
प्रेम पे अब तक।
भारत
की तुम गाथा गाते,
पावन
मिट्टी कथा बताते।
दिल
की अपनी पीड़ सुनाएं,
व्यथा
बताएं कब तक?
सारे
जहाँ से सच्चा कैसे?
देश
हमारा अच्छा कैसे?
कंधे
पर क्यों झंडा लाएं?
त्राण
मिलेगा कब तक?
धनिया
नींबू दाम बढ़ेगा,
कब
तक बोलो कब तक?
अजय
अमिताभ सुमन
=====
लकड़बग्घे
से नहीं अपेक्षित
प्रेम
प्यार की भीख,
किसी
मीन से कब लेते हो
तुम
अम्बर की सीख?
लाल
मिर्च खाये तोता
फिर
भी जपता हरिनाम,
काँव-काँव
ही बोले कौआ
कितना
खाले आम।
डंक
मारना ही बिच्छू का
होता
निज स्वभाब,
विषदंत
से ही विषधर का
होता
कोई प्रभाव।
कहाँ
कभी गीदड़ के सर तुम
कभी
चढ़ाते हार?
और
नहीं तुम कर सकते हो
कभी
गिद्ध से प्यार?
जयचंदों
की मिट्टी में ही
छुपा
हुआ है घात,
और
काम शकुनियों का
करना
होता प्रति घात।
फिर
अरिदल को तुम क्यों
देने
चले प्रेम आशीष?
जहाँ-जहाँ
शिशुपाल छिपे हैं
तुम
काट दो शीश।
=====
देश
में नए विधान की
आन
पड़ी है आज जरूरत,
देश
में नए विधान की,
नए
समय में नई समस्या ,
मांगे
नए निदान की।
कभी
गुलामी की बेड़ी थी ,
अंग्रेजों
का शासन था,
इतिहास
का काला पन्ना,
वो
काला अनुशासन था।
गुलामी
की जंजीरों को,
जेहन
में रख क्या होगा?
अंग्रेजों
से नफरत की,
बातों
को रख कर क्या होगा?
इतिहास
में जो चलता था,
आज
भी वो ही जरूरी हो,
भूतकाल
में जो फलता ,
क्या
पता आज मजबूरी हो।
आज
सभी को साथ मिलाकर ,
रचने
नए प्रतिमान की,
यही
वक्त है गाथा लिखने,
भारत
देश महान की।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
मूषक
गीता
बाबा
जी ये मुझको क्या देते हैं मूषक ज्ञान,
प्रभु
उन्हीं को मिलते देते जो चूहों को मान?
ध्यान
नेत्र को थोड़ा हिला के निजआसान को जरा डुला के,
बाबाजी
ने पाठ पठाया, मूषक गीता को समझाया।
बोले
ध्यान में मूषक बाधा, कपड़ों को कर देते आधा,
पर
इनसे तुम ना घबड़ाना, निज जिह्वा में प्रेम
बसाना।
अपनी
गलती थी ना माना, गुरु ज्ञान था कदर ना
जाना,
मूषक
के खाने के हेतु , बिल्ली थी एक जरिया
सेतु।
फिर
बिल्ली की जान बचाने, रोज रोज को दूध पिलाने,
ले
आया था फिर एक गाय,वही समस्या वो ही हाय।
फिर
गाय को घास चराने, समय समय पर उसे घुमाने,
ढूंढ
ढांढ के लड़की लाया, प्रेम पाश में मैं
पछताया।
चूहे
का चक्कर कुछ ऐसा ,जग माया घनचक्कर जैसा।
मेरी
बात सच है ये जानो, मूषक को युवती हीं
जानो।
तब
हीं बेड़ा पार लगेगा, मूषक ज्ञान से ध्यान
सधेगा।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
सासू
मां को पाठ पढ़ाया
ना
जाने किस घाट घुमाया,
सासू
मां को पाठ पढ़ाया?
जाने
क्या थी घुटी पिलाई,
सासूजी
का दिल भर आया।
दिल
भर आया बोली रानी,
तुझको
है एक बात बतानी।
क्यों
सहमी सी डरती रहती,
क्यों
बात ऐसी बहुरानी?
ससुराल
भी नैयर जैसा,
अंतर
घी मैहर में कैसा?
एक
दूध से मक्खन बनता,
फिर
मठ्ठा से रैहर कैसा?
बस
तुझको बस इतना कहना,
तू
हीं मेरे दिल का गहना।
जो
इच्छा हो मुझे बताओ
ससुराल
को समझो अपना।
सासू
मां की बात जान के,
उनके
मन के राज जान के।
बहुरानी
समझी घर अपना,
बोली
उनको मां मान के।
माता
उठकर चाय बनाओ,
सूत
उठकर मुझे पिलाओ।
थोड़ा
सा सर भारी लगता,
हौले
हौले जरा दबाओ।
पैसा
रखा जो बचा बचा के,
घर
से थोड़ा दबा दबा के।
बनवा
दो मुझको तुम गहना,
सासू
मां इतना बस कहना।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
बुद्धि
अर्थ में बेहतर कौन?
बुद्धि
अर्थ में बेहतर कौन ,
प्रश्न
कठिन था उत्तर मौन ?
कठिन
प्रश्न था आखिर चिंटू ,
तन
मन उलझा भारी।
ज्ञान
या पैसे के पीछे ,
अपनी
करे सवारी।
अपनी
उलझन लेके चिंटू ,
पहुंचा
पिंटू पास।
चुटकी
में वो सुलझ गई ,
जो
भी उलझन थी खास।
पिंटू
बोला जो सुलभ हो ,
तो
क्यों भागे पीछे।
जिसे
प्राप्त करना हो मुश्किल,
चल
तू आँखे मींचे ।
अर्थ
बहुत मुश्किल से मिलता ,
जिससे
भी तू मांगे ।
और
ज्ञान तो सब देते हैं ,
बिन
बोले बिन मांगे ।
इसीलिए
कहता हूँ चिंटू ,
पैसा
रख तू पास।
यही
ज्ञान है बिन पैसे का,
कर
ले तू विश्वास।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
मार्ग
एक ही सही नहीं है ,
अन्य
मार्ग भी सही कहीं है,
परम
तत्व के सब अनुगामी ,
ना
निज पथ अभिमान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
साधक
ना साधन का कामी,
ना
साधन की कोई गुलामी,
साधन, साधक , साध्य
एक ना,
ईक्छित
और संधान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
प्रभु
प्रेम का भाव फले जब,
परम
तत्व को हृदय जले जब,
क्या
संकोच नर्तन कीर्तन में ,
मान
रहे अपमान रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
अवसर
की क्यों करे प्रतीक्षा,
ज्ञान
धरना और तितिक्षा,
मुमक्षु
बन बहो निरंतर ,
हर
अवसर प्रभु ध्यान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
ईक्छित
तुझको प्राप्त नहीं गर,
मंजिल
दृष्टित ज्ञात नहीं गर,
निज
कर्म त्रुटि शोधन हो ,
निज
प्रयासों में प्राण रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
परम
तत्व ना मिले अचानक ,
परम
सत्व के पात्र कथानक ,
आजीवन
रत श्रम के आदि ,
परम
ब्रह्म गुणगान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
एक
जन्म की बात नहीं,
नहीं
एक वक्त दिन रात कहीं,
जन्मों
की है खोज प्रतीक्षा,
थोड़ा
सा तो भान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
साधक
ना साधन का कामी,
ना
साधन की कोई गुलामी,
साधन, साधक , साध्य
एक ना,
ईक्छित
और संधान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
=====
याद
रहे जब धनानंद ने शिक्षक का अपमान किया,
धन
अर्थ का मात्र विज्ञ न शिक्षा का सम्मान किया।
तब
कैसे एक शिक्षक की चोटिल चोटी लहराई थी,
शिक्षक
के आगे शासक की शक्ति भी भहराई थी।
किसी
राष्ट्र के आनन में चाणक्य जभी पूजित होंगे।
धनानंद
मिट जायेंगे चंद्रगुप्त तभी शोभित होगें।
जब
राष्ट्र की थाती पर, शिक्षक शिक्षण का जय
होता,
वो
राष्ट्र मान ना खोता है, ना महिमा में कोई क्षय
होता।
इसीलिए
हे शासक गण याचन ऐसा ही शासन दो,
शिक्षक
की गरिमा बची रहे, स्वतंत्र रहे अनुशासन
दो।
फिर
ऐसे ही अनुशासन से, ये देश मेरा जन्नत
होगा,
चाणक्य
जभी पूजित होंगे, ये देश तभी उन्नत
होगा।
=====
गर
दुष्कृत्य रचाकर कोई खुद को कह पाता हो वीर ,
न्याय
विवेचन में निश्चित हीं बाधा पड़ी हुई गंभीर।
=====
भिन्नता
का भाव ना हो, मोह का स्वभाव ना हो,
अर्थ
आदि की विवशता , खिन्नता आभाव ना हो।
=====
आज
त बुझाता फेनू होहिहें लड़ाई
आज
त बुझाता कि होहिहें लड़ाई,
सासवा
पतोहवा में फेनू से भिड़ाई।
बड़ा
दिन से हामार मनावा उदास रहे,
सासवा
पतोहवा में भिड़ंत के प्यास रहे।
देखतानी
आज फेनु बादल घूम आवता,
आपन
पढ़ाई के बड़ाई खूब करावता।
सासू
मुख आपन बड़ाई सुन खूबी आज,
बुझाता
पतोह में आगी लागी खूब आज।
फेनू
दूनी जानी आके हमके बतहिहें,
बानरा
के दू बिलाई पंचवा बनाहिहें।
कवि
कभी माता जी के कभी त लुगाई,
कभी
हेने कभी होने करी तब बड़ाई।
ट्विटर
फेसबुकावा पर माजा बड़ा आई,
लगता
कवि के दिल मिलिहें मिठाई।
सासवा
पतोहवा में फेनू से भिड़ाई,
आज
त बुझाता निक होहिहें लड़ाई।
अजय
अमिताभ सुमन
====
तुम
गुली हो कि डंडा
तुम
डंका हो कि लंका
====
अपनौ
पुत कवि कड़त बड़ाई,
पबाजी
खेलत कबहूं ना आगुताई।
बाथरूम
ककरौच जब आवे,
हनुमान
जी तब याद आवे।
====
शक्ति
संचय से अगर हीं,
वेदना
का त्याग हो तो,
पद
प्रतिष्ठा से अगर ,
संवेदना
परित्याग हो तो।
जग
को जीता हुआ जग,
त्याग
बिन बोले हुए,
क्यों
सिकंदर जा रहा था,
हाथ
को खोले हुए।
======
शक्ति
संचय से कदाचित,
नर
की चाहत बढ़ हीं जाती,
पद
प्रतिष्ठा मान शक्ति ,
नर
के सर में चढ़ ही जाती।
किंतु
हासिल सुख हो अक्षय,
धन
आदि परिमाण क्या हो?
इस
जगत में वेदना का ,
दरअसल
निदान क्या हो?
=====
पोंगा
पंडित काम ना आए,
ना
पोथी ना पतरा,
एक
बात है सुन ले भाई,
लोक
तंत्र है खतरा।
हे
ईश्वर संसार तुम्हारा
अद्भुत
है आकार तुम्हारा,
हे
ईश्वर संसार तुम्हारा
अजय
अमिताभ सुमन
तेरे
हीं नामों को लिखकर
कितने
हीं महाग्रंथ लिखे हैं,
योग
,जोग, नियोग
अधिज्ञाता,
तंत्र
मंत्र आदि ग्रंथ फले हैं।
====
आवाज
रूह की,
ना
तख्त के लिए,
ना
ताज के लिए,
ना
नाम की भी ख्वाहिश,
ना
नाज के लिए,
दफ़न
ना रह जाएं कहीं,
लफ्ज़
कोई सीने में,
मैं
लिखता हूं रूह की,
आवाज
के लिए।
@अजय अमिताभ सुमन
=====
उस
सत में ना चिंता पीड़ा,
ये
जग उसकी है बस क्रीड़ा,
नर
का पर ये जीवन कैसा,
व्यर्थ
विफलता दुख संपीड़ा,
प्रभु
राह की अंतिम बाधा ,
तृष्णा
काम मिटाएं कैसे?
ईश्वर
हीं बसते सब नर में,
ये
पहचान कराएं कैसे?
=====
खुद
को खोने से डरता है,
जीवन
सोने से भरता है,
तिनका
तिनका महल सजाकर,
जीवन
में उठता गिरता है।
प्रभु
प्रेम में खोकर मिलता,
उसको
जग जतलाएं कैसे?
ईश्वर
हीं बसते सब नर में
ये
पहचान कराएं कैसे?
लड़के
तो होते हैं भैया
शिव
जी के अवतार,
सुत
उठ के दिल क्या मांगे भैया ओ.टी.पी.,
सुबह
शाम सब मिल कर गाएं भैया ओ.टी.पी.
फ़ोन
करो या पेमेंट करो , बिल भरो या दिल भरो
सब
ओ.टी.पी., की माया है
10 रंग के लाल लिपिस्टिक
भस्म
विभूति, ना कोई श्रृंगार
मीट
भात सब चटल रहे
दांत
आंत पर डटल रहे
पटल, अटल,सकल, सफल,
तरल, तलल, गरल
अतीत
क्या व्यतीत है , ये काल क्या व्यतीत है,
भूतकाल की काया में, वर्तमान
भयभीत है।
========
किस
किस की नजर को हम देखें,हम सबकी नजर में रहते
हैं,
किस्मत
हीं ऐसी पाई है, हर वक्त सफर में रहते
है।
=======
=========
विकट
विघ्न जब भी आता ,या तो भय छा जाता है ,
या
जो सुप्त रहा मानव में , ओज प्रबल आ जाता है।
या
तो भय से तप्त धूमिल , होने लगते मानव के
स्वर ,
या
तो थर्र थर्र कम्पित होने , लगते अरि के कुछ हैं
नर।
==========
या
मर जाये या मारे चित्त में कर के ये दृढ निश्चय,
शत्रु
शिविर को हुए अग्रसर हार फले कि या हो जय।
याद
किये फिर अरिसिंधु में मर के जो अशेष रहा,
वो
नर हीं विशेष रहा हाँ वो नर हीं विशेष रहा ।
==========
क्या
यत्न करता उस क्षण जब युक्ति समझ नहीं आती थी,
त्रिकाग्निकाल
से निज प्रज्ञा मुक्ति का मार्ग दिखाती थी।
अकिलेश्वर
को हरना दुश्कर कार्य जटिल ना साध्य कहीं,
जटिल
राह थी कठिन लक्ष्य था मार्ग अति दू:साध्य कहीं।
=========
अतिशय
साहस संबल संचय करके भीषण लक्ष्य किया,
प्रण
धरकर ये निश्चय लेकर निजमस्तक हव भक्ष्य किया।
अति
वेदना थी तन में निज मस्तक अग्नि धरने में ,
पर
निज प्रण अपूर्णित करके भी क्या रखा लड़ने में?
========
जो
उद्भट निज प्रण का किंचित ना जीवन में मान रखे,
उस
योद्धा का जीवन रण में कोई क्या सम्मान रखे?
या
अहन्त्य को हरना था या शिव के हाथों मरना था,
या
शिशार्पण यज्ञअग्नि को मृत्यु आलिंगन करना था?
========
जीवन
पथ की राहों पर घनघोर तूफ़ां जब भी आते हैं,
गहन
हताशा के अंधियारे मानस पट पर छा जाते हैं।
इतिवृत
के मुख्य पृष्ठ पर वो अध्याय बना पाते हैं ,
कंटक
राहों से होकर जो निज व्यवसाय चला पाते हैं।
========
अभी
धरा पर घायल हो पर लक्ष्य प्रबल अनजान नहीं,
विजयअग्नि
की शिखाशांत है पर तुम हो नाकाम नहीं।
दृष्टि
के मात्र आवर्तन से सूक्ष्म विघ्न भी बढ़ जाती है,
स्वविवेक
अभिज्ञान करो कैसी भी बाधा हो जाती है।
========
जिस
नदिया की नौका जाके नदिया के ना धार बहे ,
उस
नौका का बचना मुश्किल कोई भी पतवार रहे?
जिन्हें
चाह है इस जीवन में ईक्छित एक उजाले की,
उन
राहों पे स्वागत करते शूल जनित पग छाले भी।
========
पैरों
की पीड़ा छालों का संज्ञान अति आवश्यक है,
साहस
श्रेयकर बिना ज्ञान के पर अभ्यास निरर्थक है।
व्यवधान
आते रहते हैं पर परित्राण जरूरी है,
द्वंद्व
कष्ट से मुक्ति कैसे मन का त्राण जरूरी है?
========
लड़कर
वांछित प्राप्त नहीं तो अभिप्राय इतना हीं है ,
अन्य
मार्ग संधान आवश्यक तुच्छप्राय कितना हीं है।
सोचो
देखो क्या मिलता है नाहक शिव से लड़ने में ,
किंचित
अब उपाय बचा है मैं तजकर शिव हरने में।
=====
लकड़बग्घे
से नहीं अपेक्षित
लकड़बग्घे
से नहीं अपेक्षित प्रेम प्यार की भीख,
किसी
मीन से कब लेते हो तुम अम्बर की सीख?
डंक
मारना ही बिच्छू का होता निज स्वभाब,
विषदंत
से ही विषधर का होता कोई प्रभाव।
फिर
अरिदल को तुम क्यों देने चले प्रेम आशीष?
जहाँ-जहाँ
शिशुपाल छिपे हैं तुम्हीं बचाओ शीश।
अजय
अमिताभ सुमन
============
राजनीति
की नई मांग पर , यौवन है लाचार
वक्त
रचाता अजब स्वांग है, कुंवारों की आज मांग
है,
राहुल, ममता ,माया, मोदी इनके हीं न्यारे डिमांड है।
देखो
कुछ तो त्यागे बीबी कुछ त्यागे भातार,
राजनीति
की नई मांग पर , यौवन है लाचार।
वक्त
पड़े तो दुश्मन से भी हो सकता गठ योग,
एक
राह है सबका सबसे मिल सकता सहयोग।
है
सबके मन के अंधियारे सपने एक हजार,
एक
बार तो तब मन धन से हो जाओ तैयार।
गठबंधन
का लोभ यही है सत्ता का सुखभोग सही है,
ना
मुद्दा ना नीति भईया, कुर्सी का रस योग सही
है।
पद
पा लो किसी भांति करके , जोड़ तोड़ जुगाड़,
तब
जाके कुर्सी का बंधु , सपना हो स्वीकार ।
@अजय अमिताभ सुमन
=====
ना
नटखट मैं ना शैतान
ना
बालक हूं एक शैतान ,
कर
दे ईश्वर इतना काम,
एक
वीक छुट्टी मिल जाए ,
जो
मुझको हो जाए जुकाम।
दूध
देख के उल्टी आती ,
भिन्डी
भी है बहुत सताती,
खाने
की भी चीज है कोई ,
बैगन
कटहल लौकी भाजी।
मैगी
बर्गर गरम समोसे ,
छोले
कुलचे इडली डोसे ,
दूध
मलाई मक्खन हलवा ,
दादी
भर भर नरम पड़ोसे।
हे
भगवान तुम ज्ञानी दानी ,
और
क्या मांगू तुझसे दान,
मोच
टांग में आ जाए जो ,
टीचर
के बन जाए काम।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
जीवन
रण ऐसे लड़ता हूँ
प्रश्न
चिन्ह सा लक्ष्य दृष्टि में,
निज
बल से सृष्टि रचता हूँ।
फुटपाथ
पर रहने वाला,
ऐसे
निज जीवन गढ़ता हूँ।
माना
द्रोण नहीं मिलते हैं,
भीष्म
दृष्टि में ना रहते हैं।
परशुराम
से क्या अपेक्षण,
श्राप
गरल हीं तो मिलते हैं।
एकलव्य
सा ध्यान लगाकर,
निज
हीं शास्त्र संधान चढ़ाकर।
फूटपाथ
पर रहने वाला,
फुटपाथ
पर हीं पढ़ता हूँ।
ऐसे
हीं रण मैं लड़ता हूँ,
जीवन
रण ऐसे लड़ता हूँ।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
अंधेरे
में जब डर लगता #Fear #Poetry #Micropoetry
#Instapoem #Poetryhub #Kavita #Viral #Viralpoetry #Short
अंधेरे
में जब डर लगता,साहस तब भर जाता कौन ?
जुगनू
सारे जला जला कर,बरगद को चमकाता कौन?
कैसे
पेड़ पर पत्ते आते?पतझड़ में कैसे झड़
जाते?
कैसे
कोयल कूक सुनाती,खेतों में हरियाली
छाती?
चमगादड़
को दिशा दिखाता,बिना आंख बतलाता कौन,
और
रात में उल्लू के, नयनों को ज्योति देता
कौन?
अंधेरे
में जब डर लगता,साहस तब भर जाता कौन ?
जुगनू
सारे जला जला कर,बरगद को चमकाता कौन?
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
जभी
भ्रूण हो गर्भ स्थापित #Existence #Regulation
#Poetry #Micropoetry #Instapoem #Poetryhub #Kavita #Viral #Viralpoetry #Short
जभी
भ्रूण हो गर्भ स्थापित, थन में दूध दिलाता कौन
?
एक
नीति में एक नियम में , सृष्टि को रच लाता कौन?
अगर
अगन शीतल बन जाए, सागर जल को ना धर पाए,
अगर
धूप ना आए अंबर, बागों में कौन फूल
खिलाए?
सहज
नहीं रुक पाता पानी, जब खेतों में वृष्टि
होती,
चक्रवात
का मिटना मुश्किल, जब जब इसकी सृष्टि
होती।
सबके
निज गुण धर्म बनाकर, सही समय पर कर्म फलाकर,
एक
नीति में एक नियम में , सृष्टि को रच लाता कौन?
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
======
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई
बेईमानों
के नमक का, कर्जा बहुत था भारी,
चटी
थी दीमक सारी, ओहदेदार की बीमारी।
कि
कुर्सी के कच्चे चिट्ठे , किरदार खा गई ,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई।
घिसे
हुए थे चप्पल,लाचार की कहानी,
कि
धूल में सने सब ,बेगार की जुबानी।
दफ्तर
के जो थे मारे , अत्याचार खा गई ,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई,
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
थी
भूख की ये मारी, आदत की थी लाचारी,
दफ्तर
के सारे सारे , मक्कारों से थी यारी,
कि
सच के सारे सारे , चौकीदार खा गई ,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई।
तफसीस
क्या करें हम, दफ्तर के सब अधिकारी,
दीमक
से भी सौदा करते, दीमक भी है व्यापारी।
=====
उस
सत में ना चिंता पीड़ा,
ये
जग उसकी है बस क्रीड़ा,
नर
का पर ये जीवन कैसा,
व्यर्थ
विफलता दुख संपीड़ा,
प्रभु
राह की अंतिम बाधा ,
तृष्णा
काम मिटाएं कैसे?
ईश्वर
हीं बसते सब नर में,
ये
पहचान कराएं कैसे?
=====
खुद
को खोने से डरता है,
जीवन
सोने से भरता है,
तिनका
तिनका महल सजाकर,
जीवन
में उठता गिरता है।
प्रभु
प्रेम में खोकर मिलता,
उसको
जग जतलाएं कैसे?
ईश्वर
हीं बसते सब नर में
ये
पहचान कराएं कैसे?
======
सम्मान
भाड़
में गया ईगो विगो,
और
भाड़ सम्मान,
बंधु
जेब में होने चाहिए,
भर
के नोट तमाम,
भर
के नोट तमाम।
@अजय अमिताभ सुमन
चाय
बात
यूं ना थी कि चाय,
कैसे
हलक में अटक गई,
बात
यूं थी दरअसल ,
कि
प्याली थी झूठ की,
और
सच गटक गई
@अजय अमिताभ सुमन
पहचान
लोग
पूछते हैं मुझसे,
मेरे
मजहब का नाम,
नाकाफी
है शायद,
मेरा
इंसान होना।
@अजय अमिताभ सुमन
हादसा
अखबार
में आ जाए,
ये
तय नहीं है,
हादसा
तो है,
पर
समय नहीं है।
@अजय अमिताभ सुमन
====
=====
=====
अकड़
कुछ ज्यादा
आग
तो है कम पर लकड़ कुछ ज्यादा ,
अकल
पर पड़ी है मकड़ कुछ ज्यादा।
दरिया
के राही ओ ये भी तो देख लो,
कि
पानी तो कम है पर मगड़ कुछ ज्यादा।
लड़ने
का शौक है तो लड़ लो तुम शौक से,
सामने
है खेल में जो पकड़ कुछ ज्यादा।
भिड़ने
का कायदा है कुछ तो हो फायदा,
ये
क्या बिन बात के यूँ झगड़ कुछ ज्यादा।
गिर
कर मैदान में जो इतने से खुश हो कि,
चोट
लगी कम है और अकड़ कुछ ज्यादा।
कि
कहते हैं लोग जो तो इसमें गलत क्या,
उम्र
बढ़ी बुद्धि पर जकड़ है कुछ ज्यादा।
अजय
अमिताभ सुमन
#अकड़ #MicroPoetry #Poem #Poetryhub #poetrylovers #poetrygram
#poetryislife #kavita #LaghuKavita #Hindipoet #Hindipoetrylovers
======
सुखी
आंतें हक की बातें,
भूखे
आँखें तन की बातें,
जनतंत्र
में जन के सपने,
कहते
सब हैं जन की बातें,
पक्ष
विपक्ष सब लड़ते रहते,
जन
की बातें करते रहते,
इनका
लड़ना मात्र छलावा,
=====
आहट
गर्मी
की लहरें क्या आफत बड़ी थी,
तपती
दुपहरी में शामत पड़ी थी।
खिड़की
से आती थी लू की वो लपटें,
जी
को बस ठंडक की चाहत बड़ी थी।
जरूरी
नहीं कि लू लहरी कुछ नम हो,
इतना
हीं काफी कि गर्मी कुछ कम हों।
बारिश
जो आई है ठंडक जो लाई है
मेघों
की आहट से राहत बड़ी थी।
अजय
अमिताभ सुमन
#आहट #MicroPoetry #Poem #Poetryhub #poetrylovers #poetrygram
#poetryislife #kavita #LaghuKavita #Hindipoet #Hindipoetrylovers
====
भूख
बड़ी
मुश्किल थी राह , गुजर चूका हूँ मैं ,
ये
भी क्या कम है कि , सुधर चूका हूँ मैं।
मिला
नहीं इरम तो फिकर नहीं है मुझको ,
हूँ
भूख से मैं हैरान , बिफर चूका हूँ मैं।
ले
जाओ तुम ये राहें वो जन्नत के नक्शे,
कई
बार हीं चला पर उजड़ चुका हूँ मैं।
सह
ना सकेंगी आँखे, चिरागों की रोशन,
अंधा
हुआ था कब का उबर चूका हूँ मैं।
अजय
अमिताभ सुमन
#भूख #MicroPoetry #Poem #Poetryhub #poetrylovers #poetrygram
#poetryislife #kavita #LaghuKavita #Hindipoet #Hindipoetrylovers
=====
कंक्रीट
तपती
धूप की मारी जनता, पशु पंछी व गाय,
बदन
जले है अगन चले है, कहाँ से लाये राय।
चला
चक्र ये अजब काल का, भूले मठ्ठा सत्तू,
फिर
कैसे लू गर्मी से बच पाए जीव व जंतु।
पेड़
काट के ए. सी. कूलर. फ्रिज. तो रहे चलाय,
पर
कैसे तुम ले आगे ,ठंडक पी कर चाय।
वन
नदिया को चलो जिलाओ यही मात्र उपाय,
धरती
की हरियाली का ना कंक्रीट पर्याय।
अजय
अमिताभ सुमन
#कंक्रीट #MicroPoetry #Poem #Poetryhub #poetrylovers #poetrygram
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======.
राशन
भाषण आश्वासन मन को तो अच्छा लगता है,
छले
गए कई बार फिर छलते वादा कच्चा लगता है।
तन
टूटा है मन रूठा है पक्ष विपक्ष सब लड़ते है,
जो
सत्ता में लाज बचाते प्रतिपक्ष जग हंसते हैं।
प्रतिपक्ष
का काम नहीं केवल सत्ता पर चोट करें,
जनता
भूखी मरती है कोई कुछ भी तो ओट करें।
या
गिद्ध बनकर बैठे रहना हीं है इनका काम यही,
या
उल्लू दृष्टि को है संशय ना हो जाए निदान कहीं?
गिद्धों
का मजदूर दिवस है कौए सब मुस्काते हैं,
कितने
मरे है बाकी कितने गिनती करते जाते हैं।
लाशों
के गिनने से केवल भला किसी का क्या होगा,
गिद्ध
काक सम लोटेंगे उल्लू सम कोई खिला होगा।
जनता
तो मृत सम जीती है बन्द करो दोषारोपण,
कुछ
तो हो उपाय भला कुछ तो कम होअवशोषण।
घर
से बेघर है पहले हीं काल ग्रास के ये प्यारे।
कोरोना
के हाथों हारे ईश्वर से क्या कहे बेचारे?
=====
प्रजा
प्रजा
सत्य है प्रजातंत्र में, बाकि जो भी झूठ।
अंदेशे
सब गए भाड़ में,किधर को बैठा ऊँट।
हार
गया है एक जीतकर, रहे फिसड्डी खुश।
नहीं
शिकायत कोई अब ना ई.वी.एम.मनहुस।
अजय
अमिताभ सुमन
#प्रजा #MicroPoetry #Poem #Poetryhub #poetrylovers #poetrygram
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=======
सिंहासन
जा
जाके सब टी. वी. खोलो, सिंहासन का भाषण तोलो।
क्या
कुछ दिखता है कुछ अंतर, इस मुखड़े से कुछ तो
बोलो।
मोदी
मोदी बात चली थी , मोदी की सरकार चली थी।
एन.डी.ए.सरकार
बनी क्यों, सोचो तो कुछ परदे
खोलो।
अजय
अमिताभ सुमन
#सिंहासन #MicroPoetry #Poem #Poetryhub #poetrylovers #poetrygram
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========
जंजीर
पुराना
सा कोई मंजर, सीने में खल गया,
ये
उठा दर्द और जी मचल गया।
बेफिक्री
के आलम में यादों का खंजर,
चला
तो क्या बुरा था, कि तू संभल गया,
अजय
अमिताभ सुमन
#जंजीर #MicroPoetry #Poem #Poetryhub #poetrylovers #poetrygram
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=====
जिद
जो
चाहा था मुझको मिला हीं नहीं,
पर
किस्मत से कोई गिला हीं नहीं।
वक्त
भी था महफ़िल भी जाम भी था ,
जिद
मेरी थी दो घूँट मिला हीं नहीं।
अजय
अमिताभ सुमन
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=====
ईमान
ये
पूछ ना मैं कैसा,इम्तिहान चाहता हूं,
तेरी
नज़रों से तेरी,पहचान चाहता हूं।
हो
खुद की निगाहों में,नेक जरा सोच लो,
तराजू
पर तेरा, ईमान चाहता हूं,
ये
पूछ ना मैं कैसा,इम्तिहान चाहता हूं।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
दलील
वकीलों
,दलीलों,
मुवक्किल
के रार में,
पूछते
हो रखा क्या,
कोर्ट
के करार में?
यही
एक धंधा ऐसा .
कि
जीत पे है पैसा,
और
हारने पर सीख है,
क़ानून
के बाजार में।
और
पूछते हो रखा क्या,
कोर्ट
के करार में?
अजय
अमिताभ सुमन
=====
मैं
हूं बालक एक नादान
मैं
हूं बालक एक नादान,
विनती
सुन ले हे भगवान,
छोटा
हूं छोटी सी अर्जी,
छोटा
सा हीं मेरा काम।
गर
मैं तेरा हूं विश्वासी,
मैडम
को तू दे दे खांसी,
छुट्टी
कर दे एक वीक की,
इतने
से चल जाए काम।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
सच
गटक गई
यूं
हीं न था कि ऐसा,
गलत
अटक गई,
ये
चाय भी थी कैसी,
हलक
झटक गई।
कि
अर्से से आदत तो,
और
हीं थी साहब,
थी
प्याली वो झूठ की,
सच
गटक गई ।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
दो
हाथ आदमी के
अच्छे
है बुरे हैं हालत आदमी के,
दिन
रात पड़े पीछे हालात आदमी के।
लहरें
बड़ी है ऊंची साहिल पे जा अड़ा ये,
ले
रेत की ये मुठ्ठी क्या बात आदमी के।
मिट्टी
से जो बना है मिट्टी में मिल जायेगा,
हवा
में फिर उड़ेंगे जर्रात आदमी के।
रुखसत
हुए तो जाना सब काम थे अधूरे,
क्या
क्या करे जहां में दो हाथ आदमी के।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
हिन्दुस्तान
दिखता है
तेरी
हीं नजरों का हुनर ,
ये
हिंदू वो मुसलमां ,
मैं
अनाड़ी हूं सब में,
इंसान
दिखता है।
ना
उत्तर ना दक्षिण,
ना
पूरब का कोई,
मैं
अंधा हूँ मुझको,
हिन्दुतान
दिखता है।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
हवा
हो क्या तुम
ना
आँखों से ओझल
पर
दिखते नहीं,
है
पास भी तो मेरे ,
पर
मिलते नहीं।
छिपते
भी ऐसे कि
मौजूं
हो हरपल,
हवा
हीं हो क्या तुम ,
मिलते
नहीं ?
अजय
अमिताभ सुमन
=====
आदमियत
जाके
कोई क्या पूछे भी ,
आदमियत
के रास्ते ।
क्या
पता किन किन हालातों
से
गुजरता आदमी ।
चुने
किसको हसरतों ,
जरूरतों
के दरमियाँ ।
एक
को कसता है तो ,
दूजे
से पिसता आदमी ।
अजय
अमिताभ सुमन
======
राख
गलतियाँ
करना है फितरत ,
करता
है आदतन ।
और
सबक ये सीखना ,
कि
दोहराता है आदमी ।
आदमी
की हसरतों का ,
क्या
बताऊँ दास्ताँ।
आग
में जल खाक बनकर ,
राख
मांगे आदमी ।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
जरूरी
नहीं
हर
जीत का मतलब,
हार
हो जरूरी नहीं।
नफे
के वास्ते,
करार
हो जरूरी नहीं।
जीत
हार नफा हानि,
बेशक
मजबूरी मगर,
हर
रिश्ते का मतलब,
व्यापार
हो जरूरी नहीं।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
जहां
आंखों में आग
जब
तन बदन में फकत,
जिस्म
की नुमाईस हो,
फिर
क्या हुस्न के चर्चे,
मोहब्बत
की पैमाइश हो।
ये
खेल नहीं जिस्म का,
है
रूह की ये दौलत,
जहां
आंखों में आग कहां,
इश्के
आजमाइस हो।
अजय
अमिताभ सुमन
====
ना
पूछो मैं क्या कहता हूँ ,
क्या
करता हूँ क्या सुनता हूँ .
हूँ
दुनिया को देखा जैसे ,
चलते
वैसे ही मैं चलता हूँ .
सूरज
का उगना है मुश्किल ,
फिर
भी खुशफहमियों से सजता हूँ .
कभी
तो होगी सुबह सुहानी ,
शाम
हूँ यारो मैं ढलता हूँ
=====
मेरे
नाम में अचानक,
ये
क्या सूझी है तुझको ,
बदनाम
मैं बड़ा हूँ ,
दे
दूँ तुझे मैं कैसे .
मेरे
जीवन पे मुझको
कोई
नहीं भरोसा .
मेरी
मौत पे हुकूमत
दे
दूँ तुझे मैं कैसे .
=====
यहाँ
कत्ल नही देखते ,
देखे
जाते इरादे।
कानून
की किताबों के ,
अल्फाज
ही कुछ ऐसे हैं ।
बेखौफ
घुमती है ,
कातिल
तो मैं भी क्या करुँ ।
अदालत
की जुबानी ,
बयानात
ही कुछ ऐसे हैं ।
======
हम
आह भी भरते है ,
तो
ठोकती है जुरमाना।
इस
देश की कानून के ,
खैरात
ही कुछ ऐसे है।
फरियाद
अपनी लेके ,
बेनाम
अब जाए किधर ।
अल्लाह
भी बेजुबां है ,
सवालात
हीं कुछ ऐसे हैं ।
=====
लोगों
की नासमझी का उठाने भी दो फायदा,
“बेनाम” शराफत
जताने की भी हद है .
वो
नाराज हैं कि आसमाँ से तोड़ा नहीं चाँद को,
समझा
दे कोई आशिकी निभाने की भी हद है ,
=====
इंतजाम
तेरी
खिदमत के चर्चे मैं कैसे सरेआम करूं,
कहां
से शुरू हो कहां को तमाम करूं।
कि
मेरी हीं मिट्टी और मेरा हीं पसीना,
और
नाम फकत तेरा हो इतना इंतजाम करूं।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
कुछ
सोचना तो था
क्या
बोलना था तुझको ना कहने से पहले,
कुछ
सोचना तो था कुछ भी कहने से पहले,
नुकसान
हीं हो हरदम जरुरी नहीं,
ना
कहने से बाद , सम्भलने से पहले।
अजय
अमिताभ सुमन
========
तुझे
बुन भी लूँ
तू
पूछे और मैं सुन भी लूँ जरुरी नहीं,
गर
सुन लूँ तो चुन भी लूँ जरुरी नहीं।
कुछ
कहने का तुझपे तासीर भी तो हो,
कुछ
कह भी दूं तुझे बुन भी लूं जरुरी नहीं।
अजय
अमिताभ सुमन
======
क्यूँ
संभलता नहीं
इन
आँखों से ईश्वर तुम जानोगे कैसे?
है
पानी बरफ का तुम छानोगे कैसे?
है
नदिया के पानी सा हर पल बदलता,
खुद
रहता बिन बदला पहचानोगे कैसे?
अजय
अमिताभ सुमन
====
पुरुषोत्तम
पुरुषों
में हैं श्रेष्ठ राम ये लोग नहीं यूँ हीं कहते,
उत्तम
नर कई सारे हैं सब,राम नहीं बना करते।
जिस
रावण ने प्रभु राम को,वन वन में भटकाया था,
धोखे
से हर ली थी उनकी ,सीता को तड़पाया था।
उस
रावण को मृत होने पर,जो भ्राता कह पाते है,
ऐसे
हीं मर्यादा अनुगामी,पुरुषोत्तम कहलाते
हैं।
अजय
अमिताभ सुमन
========
क्या
रखा है जीत हार में
कितना
अंतर बचा हुआ है, जीत हार के होने में,
जितना
उर के हंस पड़ने या, किंचित इसके रोने में।
कहने
को तो बात रही है, क्या रखा है जीत हार
में,
जीवन
के बस दो ये पहलू , क्या रखा है प्रीत रार
में।
हाथों
में उग आए सोना , तो जो अंतर होता है,
और
वही जो उर छा जाए, इसके फिर से खोने में।
=====
अंधेरे
में जब डर लगता
अंधेरे
में जब डर लगता,साहस तब भर जाता कौन ?
जुगनू
सारे जला जला कर,बरगद को चमकाता कौन?
कैसे
पेड़ पर पत्ते आते?पतझड़ में कैसे झड़
जाते?
कैसे
कोयल कूक सुनाती,खेतों में हरियाली
छाती?
चमगादड़
को दिशा दिखाता,बिना आंख बतलाता कौन,
और
रात में उल्लू के, नयनों को ज्योति देता
कौन?
अंधेरे
में जब डर लगता,साहस तब भर जाता कौन ?
जुगनू
सारे जला जला कर,बरगद को चमकाता कौन?
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
======
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई
बेईमानों
के नमक का, कर्जा बहुत था भारी,
चटी
थी दीमक सारी, ओहदेदार की बीमारी।
कि
कुर्सी के कच्चे चिट्ठे , किरदार खा गई ,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई।
घिसे
हुए थे चप्पल,लाचार की कहानी,
कि
धूल में सने सब ,बेगार की जुबानी।
दफ्तर
के जो थे मारे , अत्याचार खा गई ,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई,
अजय
अमिताभ सुमन
=====
धनिया
नींबू दाम बढ़ेगा
धनिया
नींबू दाम बढ़ेगा,
कब
तक बोलो कब तक?
सी.एन.जी.
का नाम बढ़ेगा,
कबतक
आखिर कबतक?
जनता
की पीड़ा तो हर लो,
कीमत
आटे की कम कर लो।
भूख
मिटी तो सब नाचेंगे ,
बेस्ट
देश है सब गाएंगे।
रोटी
के अन्धे क्या गाए ,
बेहतर
भारत कब तक?
======
देश
में नए विधान की
आन
पड़ी है आज जरूरत,
देश
में नए विधान की,
नए
समय में नई समस्या ,
मांगे
नए निदान की।
आज
सभी को साथ मिलाकर ,
रचने
नए प्रतिमान की,
यही
वक्त है गाथा लिखने,
भारत
देश महान की।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
आहट
गर्मी
की लहरें क्या आफत बड़ी थी,
तपती
दुपहरी की शामत पड़ी थी।
खिड़की
से आती थी लू की वो लपटें,
जी
को बस ठंडक की चाहत बड़ी थी।
जरूरी
नहीं कि लू लहरी कुछ कम हो,
इतना
हीं काफी कि अग्नि कुछ नम हों।
बारिश
ना आई पर ठंडक तो पहुंची,
कि
मेघों की आहट से राहत बड़ी थी।
अजय
अमिताभ सुमन
#आहट #MicroPoetry #Poem #Poetryhub #poetrylovers #poetrygram
#poetryislife #kavita #LaghuKavita #Hindipoet #Hindipoetrylovers
====
भूख
बड़ी
मुश्किल थी राह , गुजर चूका हूँ मैं ,
ये
भी क्या कम है कि , सुधर चूका हूँ मैं।
मिला
नहीं इरम तो फिकर नहीं है मुझको ,
हूँ
भूख से मैं हैरान , बिफर चूका हूँ मैं।
ले
जाओ तुम ये राहें वो जन्नत के नक्शे,
कई
बार हीं चला पर उजड़ चुका हूँ मैं।
सह
ना सकेंगी आँखे, चिरागों की रोशन,
अंधा
हुआ था कब का उबर चूका हूँ मैं।
अजय
अमिताभ सुमन
#भूख #MicroPoetry #Poem #Poetryhub #poetrylovers #poetrygram
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=====
कंक्रीट
तपती
धूप की मारी जनता, पशु पंछी व गाय,
बदन
जले है अगन चले है, कहाँ से लाये राय।
चला
चक्र ये अजब काल का, भूले मठ्ठा सत्तू,
फिर
कैसे लू गर्मी से बच पाए जीव व जंतु।
पेड़
काट के ए. सी. कूलर. फ्रिज. तो रहे चलाय,
पर
कैसे तुम ले आगे ,ठंडक पी कर चाय।
वन
नदिया को चलो जिलाओ यही मात्र उपाय,
धरती
की हरियाली का ना कंक्रीट पर्याय।
अजय
अमिताभ सुमन
#कंक्रीट #MicroPoetry #Poem #Poetryhub #poetrylovers #poetrygram
#poetryislife #kavita #LaghuKavita #Hindipoet #Hindipoetrylovers
======
सिंहासन
जा
जाके सब टी. वी. खोलो, सिंहासन का भाषण तोलो।
क्या
कुछ दिखता है कुछ अंतर, इस मुखड़े से कुछ तो
बोलो।
मोदी
मोदी बात चली थी , मोदी की सरकार चली थी।
एन.डी.ए.सरकार
बनी क्यों, सोचो तो कुछ परदे
खोलो।
अजय
अमिताभ सुमन
#सिंहासन #MicroPoetry #Poem #Poetryhub #poetrylovers #poetrygram
#poetryislife #kavita #LaghuKavita #Hindipoet #Hindipoetrylovers
========
जंजीर
पुराना
सा कोई मंजर, सीने में खल गया,
ये
उठा दर्द और जी मचल गया।
बेफिक्री
के आलम में यादों का खंजर,
चला
तो क्या बुरा था, कि तू संभल गया,
अजय
अमिताभ सुमन
#जंजीर #MicroPoetry #Poem #Poetryhub #poetrylovers #poetrygram
#poetryislife #kavita #LaghuKavita #Hindipoet #Hindipoetrylovers
====
हवा
हो क्या तुम
ना
आँखों से ओझल
पर
दिखते नहीं,
है
पास भी तो मेरे ,
पर
मिलते नहीं।
छिपते
भी ऐसे कि
मौजूं
हो हरपल,
हवा
हीं हो क्या तुम ,
मिलते
नहीं ?
अजय
अमिताभ सुमन
====
राख
गलतियाँ
करना है फितरत ,
करता
है आदतन ।
और
सबक ये सीखना ,
कि
दोहराता है आदमी ।
आदमी
की हसरतों का ,
क्या
बताऊँ दास्ताँ।
आग
में जल खाक बनकर ,
राख
मांगे आदमी ।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
जरूरी
नहीं
हर
जीत का मतलब,
हार
हो जरूरी नहीं।
नफे
के वास्ते,
करार
हो जरूरी नहीं।
जीत
हार नफा हानि,
बेशक
मजबूरी मगर,
हर
रिश्ते का मतलब,
व्यापार
हो जरूरी नहीं।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
जहां
आंखों में आग
जब
तन बदन में फकत,
जिस्म
की नुमाईस हो,
फिर
क्या हुस्न के चर्चे,
मोहब्बत
की पैमाइश हो।
ये
खेल नहीं जिस्म का,
है
रूह की ये दौलत,
जहां
आंखों में आग कहां,
इश्के
आजमाइस हो।
अजय
अमिताभ सुमन
====
ना
पूछो मैं क्या कहता हूँ ,
क्या
करता हूँ क्या सुनता हूँ .
हूँ
दुनिया को देखा जैसे ,
चलते
वैसे ही मैं चलता हूँ .
सूरज
का उगना है मुश्किल ,
फिर
भी खुशफहमियों से सजता हूँ .
कभी
तो होगी सुबह सुहानी ,
शाम
हूँ यारो मैं ढलता हूँ
=====
मेरे
नाम में अचानक,
ये
क्या सूझी है तुझको ,
बदनाम
मैं बड़ा हूँ ,
दे
दूँ तुझे मैं कैसे .
मेरे
जीवन पे मुझको
कोई
नहीं भरोसा .
मेरी
मौत पे हुकूमत
दे
दूँ तुझे मैं कैसे .
=====
यहाँ
कत्ल नही देखते ,
देखे
जाते इरादे।
कानून
की किताबों के ,
अल्फाज
ही कुछ ऐसे हैं ।
बेखौफ
घुमती है ,
कातिल
तो मैं भी क्या करुँ ।
अदालत
की जुबानी ,
बयानात
ही कुछ ऐसे हैं ।
======
हम
आह भी भरते है ,
तो
ठोकती है जुरमाना।
इस
देश की कानून के ,
खैरात
ही कुछ ऐसे है।
फरियाद
अपनी लेके ,
बेनाम
अब जाए किधर ।
अल्लाह
भी बेजुबां है ,
सवालात
हीं कुछ ऐसे हैं ।
=====
लोगों
की नासमझी का उठाने भी दो फायदा,
“बेनाम” शराफत
जताने की भी हद है .
वो
नाराज हैं कि आसमाँ से तोड़ा नहीं चाँद को,
समझा
दे कोई आशिकी निभाने की भी हद है ,
=====
इंतजाम
तेरी
खिदमत के चर्चे मैं कैसे सरेआम करूं,
कहां
से शुरू हो कहां को तमाम करूं।
कि
मेरी हीं मिट्टी और मेरा हीं पसीना,
और
नाम फकत तेरा हो इतना इंतजाम करूं।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
कुछ
सोचना तो था
क्या
बोलना था तुझको ना कहने से पहले,
कुछ
सोचना तो था कुछ भी कहने से पहले,
नुकसान
हीं हो हरदम जरुरी नहीं,
ना
कहने से बाद , सम्भलने से पहले।
अजय
अमिताभ सुमन
========
तुझे
बुन भी लूँ
तू
पूछे और मैं सुन भी लूँ जरुरी नहीं,
गर
सुन लूँ तो चुन भी लूँ जरुरी नहीं।
कुछ
कहने का तुझपे तासीर भी तो हो,
कुछ
कह भी दूं तुझे बुन भी लूं जरुरी नहीं।
अजय
अमिताभ सुमन
======
क्यूँ
संभलता नहीं
इन
आँखों से ईश्वर तुम जानोगे कैसे?
है
पानी बरफ का तुम छानोगे कैसे?
है
नदिया के पानी सा हर पल बदलता,
खुद
रहता बिन बदला पहचानोगे कैसे?
अजय
अमिताभ सुमन
====
पुरुषोत्तम
पुरुषों
में हैं श्रेष्ठ राम ये लोग नहीं यूँ हीं कहते,
उत्तम
नर कई सारे हैं सब,राम नहीं बना करते।
जिस
रावण ने प्रभु राम को,वन वन में भटकाया था,
धोखे
से हर ली थी उनकी ,सीता को तड़पाया था।
उस
रावण को मृत होने पर,जो भ्राता कह पाते है,
ऐसे
हीं मर्यादा अनुगामी,पुरुषोत्तम कहलाते
हैं।
अजय
अमिताभ सुमन
========
क्या
रखा है जीत हार में
कितना
अंतर बचा हुआ है, जीत हार के होने में,
जितना
उर के हंस पड़ने या, किंचित इसके रोने में।
कहने
को तो बात रही है, क्या रखा है जीत हार
में,
जीवन
के बस दो ये पहलू , क्या रखा है प्रीत रार
में।
हाथों
में उग आए सोना , तो जो अंतर होता है,
और
वही जो उर छा जाए, इसके फिर से खोने में।
========
अंधेरे
में जब डर लगता
अंधेरे
में जब डर लगता,साहस तब भर जाता कौन ?
जुगनू
सारे जला जला कर,बरगद को चमकाता कौन?
कैसे
पेड़ पर पत्ते आते?पतझड़ में कैसे झड़
जाते?
कैसे
कोयल कूक सुनाती,खेतों में हरियाली
छाती?
चमगादड़
को दिशा दिखाता,बिना आंख बतलाता कौन,
और
रात में उल्लू के, नयनों को ज्योति देता
कौन?
अंधेरे
में जब डर लगता,साहस तब भर जाता कौन ?
जुगनू
सारे जला जला कर,बरगद को चमकाता कौन?
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
======
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई
बेईमानों
के नमक का, कर्जा बहुत था भारी,
चटी
थी दीमक सारी, ओहदेदार की बीमारी।
कि
कुर्सी के कच्चे चिट्ठे , किरदार खा गई ,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई।
घिसे
हुए थे चप्पल,लाचार की कहानी,
कि
धूल में सने सब ,बेगार की जुबानी।
दफ्तर
के जो थे मारे , अत्याचार खा गई ,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई,
अजय
अमिताभ सुमन
=====
धनिया
नींबू दाम बढ़ेगा
धनिया
नींबू दाम बढ़ेगा,
कब
तक बोलो कब तक?
सी.एन.जी.
का नाम बढ़ेगा,
कबतक
आखिर कबतक?
जनता
की पीड़ा तो हर लो,
कीमत
आटे की कम कर लो।
भूख
मिटी तो सब नाचेंगे ,
बेस्ट
देश है सब गाएंगे।
रोटी
के अन्धे क्या गाए ,
बेहतर
भारत कब तक?
======
देश
में नए विधान की
आन
पड़ी है आज जरूरत,
देश
में नए विधान की,
नए
समय में नई समस्या ,
मांगे
नए निदान की।
आज
सभी को साथ मिलाकर ,
रचने
नए प्रतिमान की,
यही
वक्त है गाथा लिखने,
भारत
देश महान की।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
कुछ
इस तरह से जिंदगी, कट गयी चलते हुए,
तुझे
हीं ढूंढना था, तेरे घर मे रहते में
रहते हुए।
======
लोग
पूछते हैं मुझसे , मेरे मजहब का नाम ,
नाकाफी
है शायद मेरा इन्सान होना .
======
उसने
करके ख़बरदार , मारा बेनाम को ,
बेईमानी
में ईमान की जरुरत कुछ कम नहीं .
=======
दुनिया
ये चीज ठीक है सच से चलती नहीं,
झूठ
है मुकम्मल पर थोड़ा ईमान भी रखो।
=======
जाति
, धर्म, मजहब
की पहचान भी रखो,
अल्लाह
जेहन में ठीक ,भगवान भी रखो।
======
सजा
सुनाई तूने, क्या खूब इस गुनाह की,
कि
हाथ उठाई भी नहीं, और वो नजरों से गिर
गया।
======
ना
समन्दर की तरह गहरे , ना खाली ईन्सान की तरह
,
"अमिताभ" तुम जिए
भी तो क्या जिए , महज एक इन्सान की तरह.
=====
रोटी
की जद्दोजहद में , “अमिताभ ” तू बदला कहाँ,
पहले
खा नहीं सकते थे, अब खा नहीं पाते।
=====
जो
खरीदी नहीं जा सकती
उसी
के खरीदार है बाजार में ,
हाथ
की लकीरें देखी जाती है
“बेनाम” बदली
नहीं जाती .
=====
अजीब
है अंदाज
आदमी
के प्यास की भी,
कभी
समंदर कम पड़ जाता है
कभी
आंसू भारी पड़ जाते
=====
हाथ
में होते हुए भी
नहीं
है आदमी के हाथ में,
अजीब
है ये लकीरें
आदमी
के हाथ की ।
=====
क्या
खूब अख्तियार है, पीने पे जनाब,
कि
अच्छा पीने से पहले, और उम्दा पीने के बाद।
=====
जो
खोजता है, मिलता नहीं,
जो
मिलता है, खोजता नहीं,
आदमी
इसीलिए फलता नहीं, फूलता नहीं।
=====
उसने
करके खबरदार , मारा अमिताभ को,
बेईमानी
में ईमान की जरुरत कुछ कम नहीं।
======
"अमिताभ" के प्यास
की, बात ही कुछ खास है,
समंदर
से कुछ भी न , कम की तलाश है।
=====
इस
दुनिया में आने की हो गयी ऐसी खता,
बदस्तूर
अभी तक जारी है वो सिलसिला।
=====
ज़माने
ने किया नहीं कोई अत्याचार है,
"अमिताभ " तो खुद
की गलतियों का शिकार है।
=====
ये
क्या किया "अमिताभ", कि शख्सियत ही खुल गयी,
तेरी
जुबाँ से बेहतर , तेरी ख़ामोशी थी।
=====
जितने
भी घाव दिए उसने,
मेरी
छाती पे ही दिये,
वो
आदमी था बुरा जरूर,
पर
इतना बुरा भी नहीं।
=====
सजा
सुनाई तूने,
क्या
खूब इस गुनाह की,
कि
हाथ उठाई भी नहीं,
और
वो नजरों से उतर गया।।
=====
जग
जब भी दिखता है तुमको,
जग
सच हीं दिखता है तुमको।
=====
जब
मन डोला,
उड़न
खटोला।
=====
नफरतों
के दामन में,
जल
रहे जो सभी है,
कौन
सा है मजहब इनका ,
कौन
इनके नबी हैं?
=====
बात
तो है इतनी सी जाने क्यों खल गई,
अहम
की राख थी बुझाने पे जल गई।
=====
गर
दुष्कृत्य रचाकर कोई खुद को कह पाता हो वीर ,
न्याय
विवेचन में निश्चित हीं बाधा पड़ी हुई गंभीर।
=====
रोजी
रोटी
विजयी
विश्व है चंडा डंडा,
ना
लो रोटी से तुम पंगा।
जो
पंगा ले आफत आए,
सोते
जगते शामत आए,
कभी
सांप को रस्सी समझे,
कभी
नीम को लस्सी समझे,
ना
कोई भी सूझे उपाए,
किस
भांति रोटी आ जाए,
चाहे
कैसा भी हो धंधा,
ना
लो रोटी से तुम पंगा।
रोजी
रोटी चले हथौड़े,
रोटी
ने माथे बम फोड़े,
उड़ते
बाल बचे जो थोड़े,
हौले
हौले कर सब तोड़े,
काम
ना आए कंघी कंघा,
तेल
चमेली रजनी गंधा,
बस
माथे पर दिखता चंदा,
ना
लो रोटी से तुम पंगा।
रोजी
रोटी सब मन भाए,
ना
खाए जो जी ललचाए,
जो
खाए तो जी जल जाए,
छुट्टी
करने पर शामत है,
छुट्टी
होने पर आफत है,
गर
वेतन है तो जाफत है,
यही
खुशी है यही है फंदा,
ना
लो रोटी से तुम पंगा।
रोजी
रोटी के चक्कर में,
कैसे
कैसे बीन बजाते,
भैंस
चुगाली करती रहती,
राग
भैरवी मिल सब गाते,
माथे
में ताले लग जाय,
बुद्धि
मंदी बंदा मंदा ,
ना
लो भाई इससे पंगा,
ना
लो भाई इससे पंगा।
या
दिल्ली हो या कलकत्ता,
सबसे
ऊपर मासिक भत्ता,
आंखो
पर चश्मे खिलता है,
चालीस
में अस्सी दिखता है,
वेतन
का बबुआ ये चक्कर ,
पूरा
का पूरा घनचक्कर,
कमर
टूटी हिला है कंधा,
ना
लो भाई इससे पंगा।
विजयी
विश्व है चंडा डंडा,
ना
लो रोटी से तुम पंगा।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
कौन
मेघ गर्जन में शामिल? #God #Spiritual #Poetry
#Micropoetry #Instapoem #Poetryhub #Kavita #Viral #Viralpoetry #Short
कौन
मेघ गर्जन में शामिल?झिंगुर के गायन में
शामिल?
कौन
सृष्टि को देता वाणी?सर्व व्याप्त पर रहता
मौन?
कौन
सीपी में मोती धरता, कौन आखों में ज्योति
भरता ,
चर्म
कवच कच्छप को देता,कभी सर्प का जो हर
लेता।
कौन
सुगंधि है फूलों की?और तीक्ष्ण चुभन शूलों
की?
कौन
आम के मंजर में है?मरू भूमि में, बंजर में है?
जो
द्रष्टा हर कण कण क्षण का , पर दृष्टि को रहता गौण,
और
सृष्टि को देता वाणी , सर्व व्याप्त पर रहता
मौन?
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
तिनका
तिनका सजा सजाकर #Creator #Existence,
#Poetry #Micropoetry #Instapoem #Poetryhub #Kavita #Viral #Viralpoetry #Short
तिनका
तिनका सजा सजाकर,अवनि को महकाता कौन?
धारण
करता जो सृष्टि को,पर सृष्टि में रहता
मौन।
कैसे
वन वन उड़े कपोती?अग्नि से निकले क्यों
ज्योति,
किस
भांति बगिया में कलरव,कोयल की गायन होती?
भिन्न
भिन्न से रंग सजाकर ,गुलों में रख आता है,
हर
सावन में इन्द्रधनुष को ,अम्बर में चमकाता कौन?
तिनका
तिनका सजा सजाकर,अवनि को महकाता कौन?
धारण
करता जो सृष्टि को,पर सृष्टि में रहता
मौन।
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
अंधेरे
में जब डर लगता #Fear #Poetry #Micropoetry
#Instapoem #Poetryhub #Kavita #Viral #Viralpoetry #Short
अंधेरे
में जब डर लगता,साहस तब भर जाता कौन ?
जुगनू
सारे जला जला कर,बरगद को चमकाता कौन?
कैसे
पेड़ पर पत्ते आते?पतझड़ में कैसे झड़
जाते?
कैसे
कोयल कूक सुनाती,खेतों में हरियाली
छाती?
चमगादड़
को दिशा दिखाता,बिना आंख बतलाता कौन,
और
रात में उल्लू के, नयनों को ज्योति देता
कौन?
अंधेरे
में जब डर लगता,साहस तब भर जाता कौन ?
जुगनू
सारे जला जला कर,बरगद को चमकाता कौन?
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
जभी
भ्रूण हो गर्भ स्थापित #Existence #Regulation
#Poetry #Micropoetry #Instapoem #Poetryhub #Kavita #Viral #Viralpoetry #Short
जभी
भ्रूण हो गर्भ स्थापित, थन में दूध दिलाता कौन
?
एक
नीति में एक नियम में , सृष्टि को रच लाता कौन?
अगर
अगन शीतल बन जाए, सागर जल को ना धर पाए,
अगर
धूप ना आए अंबर, बागों में कौन फूल
खिलाए?
सहज
नहीं रुक पाता पानी, जब खेतों में वृष्टि
होती,
चक्रवात
का मिटना मुश्किल, जब जब इसकी सृष्टि
होती।
सबके
निज गुण धर्म बनाकर, सही समय पर कर्म फलाकर,
एक
नीति में एक नियम में , सृष्टि को रच लाता कौन?
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
भारत
को देश महान कहूँ
इसका
कैसे गुणगान कहूँ ? भारत को देश महान कहूँ
!
जब
भाव उठते हैं मन में ,तब ये सोचता हूँ मन
में ।
जिस
देश में ईश्वर बसते हैं, जिस देश को ईश्वर रचते
हैं।
उसी
ईश्वर पर क्यों लड़ते है, उसी ईश्वर पर कट मरते
हैं?
फिर
कैसा सम्मान कहूं? इसको मेरा अभिमान कहूं?
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
#micropoetry #Poetry #microPoem #Shortpoem
#Shorts #Kavita #Laghukavita #Poetrylover #Poetrycommunity #Hindikavita
#Hindipoem #Corruption #Dishonesty #Satire #Blackmarketing #Office
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई
बेईमानों
के नमक का, कर्जा बहुत था भारी,
चटी
थी दीमक सारी, ओहदेदार की बीमारी।
कि
कुर्सी के कच्चे चिट्ठे , किरदार खा गई ,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई।
घिसे
हुए थे चप्पल,लाचार की कहानी,
कि
धूल में सने सब ,बेगार की जुबानी।
दफ्तर
के जो थे मारे , अत्याचार खा गई ,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई,
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
थी
भूख की ये मारी, आदत की थी लाचारी,
दफ्तर
के सारे सारे , मक्कारों से थी यारी,
कि
सच के सारे सारे , चौकीदार खा गई ,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई।
तफसीस
क्या करें हम, दफ्तर के सब अधिकारी,
दीमक
से भी सौदा करते, दीमक भी है व्यापारी।
कि
झूठ के वो सारे , व्यापार खा गई,
जालिम
ये दीमक सारी, मक्कार खा गई।
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
मार्ग
एक ही सही नहीं है , अन्य मार्ग भी सही
कहीं है,
परम
तत्व के सब अनुगामी ,ना निज पथ अभिमान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे, किंचित कोई परिणाम
रहे।
कर्मयोग
कहीं राह सही है , भक्ति की कहीं चाह बही
है,
जिसकी
जैसी रही प्रकृत्ति , वैसा हीं निदान रहे।
अवसर
की क्यों करे प्रतीक्षा, ज्ञान धरना और
तितिक्षा,
मुमक्षु
बन बहो निरंतर , हर अवसर प्रभु ध्यान
रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे, किंचित कोई परिणाम
रहे।
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
ईक्छित
तुझको प्राप्त नहीं गर, मंजिल दृष्टित ज्ञात
नहीं गर,
निज
कर्म त्रुटि शोधन हो , निज प्रयासों में
प्राण रहे।
परम
तत्व ना मिले अचानक , परम सत्व के पात्र
कथानक ,
आजीवन
रत श्रम के आदि ,परम ब्रह्म गुणगान
रहे।
एक
जन्म की बात नहीं, नहीं एक वक्त दिन रात
कहीं,
जन्मों
की है खोज प्रतीक्षा, थोड़ा सा तो भान रहे।
अभिमान
, ज्ञान , सम्मान
, गुणगान , त्राण
किंचित
कोई परिणाम रहे, किंचित कोई परिणाम रहे।
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
पत्थर
धर सर पर चलते हैं मजदूरों के घर मिलते हैं,
टोपी
कुर्ता कभी जनेऊ कंधे पर धारण करते हैं।
कंघा
पगड़ी जाने क्या क्या सब तो है तैयार,
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
अल्लाह
नाम भज लेते भाई राम नाम जप लेते भाई,
मंदिर
मस्जिद स्वाद लगी अब गुरुद्वारे चख लेते भाई।
जीसस
का भी भोग लगा जाते साई दरबार,
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
नैन
मटक्का पे भी यूँ ना छेड़ो तीर कमान,
चूक
वुक तो होती रहती भारत देश महान ,
गले
पड़े तो शोर शराबा क्योंकर इतनी बार?
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
माना
उनके कहने का कुछ ऐसा है अन्दाज,
हँसी
कभी आ जाती हमको और कभी तो लाज।
भूल
चुक है माना पर माफी दे दो इस बार।
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
प्रजातंत्र
में तो होते रहते है एक बवाल,
चमचों
में रहतें है जाने कैसे देश का हाल।
सीख
जाएंगे देश चलाना आये जो इस बार।
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
फ़टी
जेब ले चलते जग में छाले पड़ जाते हैं पग में,
मर्सिडीज
पे उड़ने वाले क्या क्या कष्ट सहे हैं जग में।
जोगी
बन दर घूम रहे हैं मेरे राज कुमार,
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
अजय
अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार
सुरक्षित
=====
मृग
जैसी ना चाह बनाओ ,
छद्म
तत्व ना राह बनाओ ,
मान
ज्ञान अर्जन करने से ,
ना
चित्त को परित्राण रहे ,
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
ईश
यज्ञ अभिमान समर्पित,
हव
अग्नि को मान प्रत्यर्पित,
अतिरिक्त
हो चाह कोई ना,
राह
अन्य संज्ञान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
मार्ग
एक ही सही नहीं है ,
अन्य
मार्ग भी सही कहीं है,
परम
तत्व के सब अनुगामी ,
ना
निज पथ अभिमान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
साधक
ना साधन का कामी,
ना
साधन की कोई गुलामी,
साधन, साधक , साध्य
एक ना,
ईक्छित
और संधान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
प्रभु
प्रेम का भाव फले जब,
परम
तत्व को हृदय जले जब,
क्या
संकोच नर्तन कीर्तन में ,
मान
रहे अपमान रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
अवसर
की क्यों करे प्रतीक्षा,
ज्ञान
धरना और तितिक्षा,
मुमक्षु
बन बहो निरंतर ,
हर
अवसर प्रभु ध्यान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
ईक्छित
तुझको प्राप्त नहीं गर,
मंजिल
दृष्टित ज्ञात नहीं गर,
निज
कर्म त्रुटि शोधन हो ,
निज
प्रयासों में प्राण रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
परम
तत्व ना मिले अचानक ,
परम
सत्व के पात्र कथानक ,
आजीवन
रत श्रम के आदि ,
परम
ब्रह्म गुणगान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
एक
जन्म की बात नहीं,
नहीं
एक वक्त दिन रात कहीं,
जन्मों
की है खोज प्रतीक्षा,
थोड़ा
सा तो भान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
साधक
ना साधन का कामी,
ना
साधन की कोई गुलामी,
साधन, साधक , साध्य
एक ना,
ईक्छित
और संधान रहे।
किंचित
कोई परिणाम रहे,
किंचित
कोई परिणाम रहे।
मेहनत
में कोई कमी नही पर एक बात का रोना,
किस्मत
की हीं खोट नोट का ना डिपोजल होना।
तिसपे
भारी लगती लगती ई.वी.एम.की मार,
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
जिसे
देश चलाना एक दिन ढूंढे अपना फ्यूचर,
जन्म
पत्री तो ठीक ठाक कहते हैं ये कंप्यूटर।
राहु
केतु जो आन पड़े हैं कर दो बेड़ा पार।
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
राजनीति
की रीत नई है कुंवारों से प्रीत सही है,
ममता
,माया, मोदी
,योगी ,जोगी
गण की जीत नई है।
जनतंत्र
की नई माँग पर यौवन है लाचार,
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
गठबंधन
का दोष यही है जो दोषी है वो ही सही है,
कोई
चाहे करे ढ़ीठाई पर पर तंत्र की बात यही है।
सत्ता
की भी यही जरूरत देसी यही जुगाड़ ।
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
आप
चाहें तो बुद्धि भाग्य का हो सकता है योग,
और
कुर्सी के सहयोगी का मिल सकता सहयोग।
कबतक
माता का रहे अधूरा सपना एक आजार।
दीन
दयालु दीन बंधु हे विनती बारंबार,
@अजय अमिताभ सुमन
फूल
और कांटे
जरा
बना दे इनके मन की अबकी तो सरकार।
धनिया
नींबू दाम बढ़ेगा,कब तक बोलो कब तक?
डीजल
का यूँ नाम बढ़ेगा,कबतक आखिर कबतक?
जनता
की पीड़ा तो हर लो,कीमत आटे की कम कर लो।
रोटी
के अन्धे क्या गाए ,बेहतर भारत कब तक?
भूख
मिटी तो सब नाचेंगे ,बेस्ट देश है सब
गाएंगे।
अभी
क्षुधा है भारी तेरे,देश प्रेम पे अब तक।
भारत
की जो गाथा गाते,मिट्टी पावन कथा
बताते।
हम
अपनी जो व्यथा बताते ,ना सुनते क्यों अब तक?
सारे
जहाँ से सच्चा कैसे?देश हमारा अच्छा कैसे?
भूख
से मरता बच्चा कैसे?त्राण मिलेगा कब तक ?
जग
में सुख दुःख भी पीड़ा होती ,योगी कहते प्रज्ञा
झूठी?
मित्र
आदि जो बच्चे हैं , निज अनुभव में सब
सच्चे हैं।
हाँ
उदर क्षोभ जब होता है ,बिन फल के क्या ये
खोता है ?
तन
पर जो ये छाले होते , समझूँ कैसे मिथ्या
होते?
और
उदर क्षोभ से व्याकुल तन, हो जठर उष्म का वेग
गहन।
तब
कुक्ष हुताशन हरने को , नर क्या न करता भरने
को।
जो
भी दीखता संसार मेरा , जिससे चलता व्यापार
मेरा।
जब
व्याघ्र सिंह आ जाते हैं , क्या हम ना जान बचाते
हैं ?
और
काया के जल जाने पर , क्या हँस पाते मिथ्या
कह कर?
जो
आग जले जल जायेंगे , जो पानी हो गल
जायेंगे।
जीवन
में जो है पक्का है , हर अनुभव सीधा सच्चा
है।
सच्चा
लगता जग ये है कहना, जो दृष्टि में ना है
सपना ।
एकलव्य
प्रश्न
चिन्ह सा लक्ष्य दृष्टि में,निज बल से सृष्टि रचता
हूँ।
फुटपाथ
पर रहने वाला,ऐसे निज जीवन गढ़ता
हूँ।
माना
द्रोण नहीं मिलते हैं,भीष्म दृष्टि में ना
रहते हैं।
परशुराम
से क्या अपेक्षण,श्राप गरल हीं तो
मिलते हैं।
एकलव्य
सा ध्यान लगाकर,निज हीं शास्त्र संधान
चढ़ाकर।
फूटपाथ
पर रहने वाला, फुटपाथ पर हीं पढ़ता
हूँ।
ऐसे
हीं रण मैं लड़ता हूँ,जीवन रण ऐसे लड़ता हूँ।
मरघट
वासी
ओ
मरघट के मूल निवासी,भोले भाले शिव कैलाशी।
यदा
कदा मन आकुल व्याकुल,जग जाता अंतर सन्यासी।
जब
जग बन्धन जुड़ जाते हैं,भाव सागर को मुड़ जाते
हैं।
इस
भव में यम के जब दर्शन,मन इक्छुक होता
वनवासी।
मन
ईक्षण है चाह तुम्हारा,चेतन प्यासा छांह
तुम्हारा।
ईधर
उधर प्यासा बन फिरता,कभी मथुरा कभी काशी ।
ओ
मरघट के मूल निवासी,भोले भाले शिव कैलाशी।
ना
जात पर धरम पर,जन गण का धन हरण कर
टिको
ना तुम करम पर,भ्रष्टाचार है चरम पर,
शामत
पर शामत आई,जनता दे रही दुहाई,
एक
पुल जो बनी थी,दिनों में हीं चरमराई,
और
पूछते है साहब,कौन सी है आफत आई,
और
क्या है तेरे किसी बाप की कमाई,
आंखों
में कुछ शरम कर, जन गण का धन हरण कर
टिको
ना तुम करम पर,भ्रष्टाचार है चरम पर,
भूखों
का ले निवाला तुम भरते जठर ज्वाला,
कईयों
के उदर खाली तुम भरते उदर ज्वाला,
सरकार
के ये पैसे ,कैसे उड़ाते भाई,
जन
गण निज हीं श्रम कर, ये घन उगाते भाई,
जन
गण के संचित धन पर, कुछ तो तू रहम कर
टिको
ना तुम करम पर,भ्रष्टाचार है चरम पर,
ऐसे
हीं जनता रोती अब और ना चिर हरण कर,
भाई
कुछ तो शरम कर, कुछ श्रम कर कुछ श्रम
कर।
पोंगा
पंडित काम ना आए,
ना
पोथी ना पतरा,
एक
बात है सुन ले भाई,
लोक
तंत्र है खतरा।
पुरुषोत्तम
श्रीराम
गद्दी
त्यागे, राज्य भी त्यागे,
त्यागे
सब सुख धाम,
तब
जाके हीं बन पाए वो,
पुरुषोत्तम
श्रीराम,
हे
ईश्वर संसार तुम्हारा
अद्भुत
है आकार तुम्हारा,
हे
ईश्वर संसार तुम्हारा
अजय
अमिताभ सुमन
तेरे
हीं नामों को लिखकर
कितने
हीं महाग्रंथ लिखे हैं,
योग
,जोग, नियोग
अधिज्ञाता,
तंत्र
मंत्र आदि ग्रंथ फले हैं।
छुपा
कर रखी थी जो अबतक उस जात पे ,
आखिर
आ हीं गए तुम अपनी औकात पे.
माघ
की रात
फिर
छाने लगी रूह में
सर्द
माघ की रात,
सन
सन करती दिन रात दिन,
रूह
कांपती रात।
अजय
अमिताभ सुमन
आजाद
है
आजाद
कौन था,
आजाद
कौन है,
इस
प्रश्न पर धरा ये,
क्यों
आज मौन है,
इस
देश पर मिटा जो,
आजाद
नहीं था,
मिट्टी
पर था टिका जो,
आजाद
वो ही था।
आवाज
रूह की,
ना
तख्त के लिए,
ना
ताज के लिए,
ना
नाम की भी ख्वाहिश,
ना
नाज के लिए,
दफ़न
ना रह जाएं कहीं,
लफ्ज़
कोई सीने में,
मैं
लिखता हूं रूह की,
आवाज
के लिए।
@अजय अमिताभ सुमन
चिंगारी
से जला नहीं जो
चिंगारी
से जला नहीं जो,
उसने
कब प्रकाश रचा है,
अंधेरों
में चला नहीं जो,
उसने
कब इतिहास रचा है।
आड़ी
तिरछी सी गलियों से,
जो
लड़ते गाथा रचते,
जिसको
सीधी राह मिली हो,
उसने
कब मधुमास रचा है,
चिंगारी
से जला नहीं जो,
उसने
कब प्रकाश रचा है।
@अजय अमिताभ सुमन
=====
उस
सत में ना चिंता पीड़ा,
ये
जग उसकी है बस क्रीड़ा,
नर
का पर ये जीवन कैसा,
व्यर्थ
विफलता दुख संपीड़ा,
प्रभु
राह की अंतिम बाधा ,
तृष्णा
काम मिटाएं कैसे?
ईश्वर
हीं बसते सब नर में,
ये
पहचान कराएं कैसे?
=====
खुद
को खोने से डरता है,
जीवन
सोने से भरता है,
तिनका
तिनका महल सजाकर,
जीवन
में उठता गिरता है।
प्रभु
प्रेम में खोकर मिलता,
उसको
जग जतलाएं कैसे?
ईश्वर
हीं बसते सब नर में
ये
पहचान कराएं कैसे?
======
सम्मान
भाड़
में गया ईगो विगो,
और
भाड़ सम्मान,
बंधु
जेब में होने चाहिए,
भर
के नोट तमाम,
भर
के नोट तमाम।
@अजय अमिताभ सुमन
अभागी
जो
पानी से आग लगा दी,
उनको
कैसे कहूं अभागी।
@अजय अमिताभ सुमन
आप्त
तू
तबतक ना आप्त है,
पर्याप्त
है जो प्राप्त है।
@अजय अमिताभ सुमन
चाय
बात
यूं ना थी कि चाय,
कैसे
हलक में अटक गई,
बात
यूं थी दरअसल ,
कि
प्याली थी झूठ की,
और
सच गटक गई
@अजय अमिताभ सुमन
वक्त
और काम
कौन
न कहता काम दो,
काम
दो भई काम दो,
काम
दो तमाम दो,
दिन
रात सुबहो शाम दो,
अर्ज
फकत इतना सा है,
कि
काम होते वक्त दो,
या
वक्त होते काम दो।
जीवन
में दुख भी है,
जीवन
में सुख भी,
दुख
की परछाई तो,
सुख
भी है चख ले,
कांटे
तो चुभते ,
चुभाते
हीं जायेंगे,
हंसने
को राजी गर ,
फूल
भी है हंस ले।
@अजय अमिताभ सुमन
पहचान
लोग
पूछते हैं मुझसे,
मेरे
मजहब का नाम,
नाकाफी
है शायद,
मेरा
इंसान होना।
@अजय अमिताभ सुमन
हादसा
अखबार
में आ जाए,
ये
तय नहीं है,
हादसा
तो है,
पर
समय नहीं है।
@अजय अमिताभ सुमन
ख्वाहिश-ए-मंजिल
है जायज़ "अमिताभ", मजा तो तब है,
लुत्फ़-ए
सफर में असर हो, नशा-ए–मंजिल का।
बार
वकीलों
का जीवन
ना
जीत में , ना हार में ,
या
तो लड़ते है बार में ,
या
पड़ते हैं हैं बार में
@अजय अमिताभ सुमन
आप्त
तू
तबतक ना आप्त है,
पर्याप्त
है जो प्राप्त है।
@अजय अमिताभ सुमन
चाय
बात
यूं ना थी कि चाय,
कैसे
हलक में अटक गई,
बात
यूं थी दरअसल ,
कि
प्याली थी झूठ की,
और
सच गटक गई
@अजय अमिताभ सुमन
कॉर्पोरेट
या
तो समय रहते काम दो,
या
काम के लिए समय दो।
@अजय अमिताभ सुमन
प्रश्न
विकट है मेरे मन में,
आए
बारंबार,
क्या
सच में होते हैं लड़के,
भैरव
के अवतार।
ना
कोई व्यापार
लड़के
तो होते हैं भैया
शिव
जी के अवतार,
10 रंग के लाल लिपिस्टिक
भस्म
विभूति, ना कोई श्रृंगार
मीट
भात सब चटल रहे
दांत
आंत पर डटल रहे
पटल, अटल,सकल, सफल,
तरल, तलल, गरल
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अगर
दिवस हो छत्तीस घंटे
काला
ज्यादा , कम सफेद है,
बस
इसी बात का तो खेद है।
हैरान
बस इस बात का ,
हैरान
नहीं हूँ मैं ,
खुद
से हीं अपरिचित ,
अंजान
हूँ मैं.
=====
रात
के अंधेरों में तू भी क्या चीज है,
जुगनूओं
की रोशनी हीं तुझको अजीज है।
रेत
के समंदर में कारवां बिखर गया,
और
तू कि फरेब हीं, मरीचिका उम्मीद है ।
=====
ना
नास्तिक ना आस्तिक
वास्तविक
, स्वास्तिक
=====
पुरुषोत्तम
श्रीराम
गद्दी
त्यागे, राज्य भी त्यागे,
त्यागे
सब सुख धाम,
तब
जाके हीं बन पाए वो,
पुरुषोत्तम
श्रीराम,
हे
ईश्वर संसार तुम्हारा
अद्भुत
है आकार तुम्हारा,
हे
ईश्वर संसार तुम्हारा
अजय
अमिताभ सुमन
तेरे
हीं नामों को लिखकर
कितने
हीं महाग्रंथ लिखे हैं,
योग
,जोग, नियोग
अधिज्ञाता,
तंत्र
मंत्र आदि ग्रंथ फले हैं।
माघ
की रात
फिर
छाने लगी रूह में
सर्द
माघ की रात,
सन
सन करती दिन रात दिन,
रूह
कांपती रात।
अजय
अमिताभ सुमन
आजाद
है
आजाद
कौन था,
आजाद
कौन है,
इस
प्रश्न पर धरा ये,
क्यों
आज मौन है,
इस
देश पर मिटा जो,
आजाद
नहीं था,
मिट्टी
पर था टिका जो,
आजाद
वो ही था।
अभागी
जो
पानी से आग लगा दी,
उनको
कैसे कहूं अभागी।
@अजय अमिताभ सुमन
आप्त
तू
तबतक ना आप्त है,
पर्याप्त
है जो प्राप्त है।
@अजय अमिताभ सुमन
वक्त
और काम
कौन
न कहता काम दो,
काम
दो भई काम दो,
काम
दो तमाम दो,
दिन
रात सुबहो शाम दो,
अर्ज
फकत इतना सा है,
कि
काम होते वक्त दो,
या
वक्त होते काम दो।
@अजय अमिताभ सुमन
फूल
और कांटे
जीवन
में दुख भी है,
जीवन
में सुख भी,
दुख
की परछाई तो,
सुख
भी है चख ले,
कांटे
तो चुभते ,
चुभाते
हीं जायेंगे,
हंसने
को राजी गर ,
फूल
भी है हंस ले।
@अजय अमिताभ सुमन
ख्वाहिश-ए-मंजिल
है जायज़ "अमिताभ", मजा तो तब है,
लुत्फ़-ए
सफर में असर हो, नशा-ए–मंजिल का।
बार
वकीलों
का जीवन
ना
जीत में , ना हार में ,
या
तो लड़ते है बार में ,
या
पड़ते हैं हैं बार में
@अजय अमिताभ सुमन
आप्त
तू
तबतक ना आप्त है,
पर्याप्त
है जो प्राप्त है।
@अजय अमिताभ सुमन
चाय
बात
यूं ना थी कि चाय,
कैसे
हलक में अटक गई,
बात
यूं थी दरअसल ,
कि
प्याली थी झूठ की,
और
सच गटक गई
@अजय अमिताभ सुमन
कॉर्पोरेट
या
तो समय रहते काम दो,
या
काम के लिए समय दो।
@अजय अमिताभ सुमन
आसमान
की तरह
ना
समन्दर के माफ़िक़ गहरे,
ना
खाली आसमान की तरह,
ये
जीना भी कोई जीना है
कि
महज इंसान की तरह।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
खुदा
और हवा
दिखते
तो हो हर जगह ,दिखते पर नहीं,
रहते
तो हो इस दिल में, छिपते पर नहीं,
हो
नजर के सामने और नजरों से ओझल,
हवा
हो क्या खुदा तुम, मिलते पर नहीं।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
हाथ
की लकीरें
हाथ
में रहकर भी नहीं आदमी के हाथ में,
हाथ
की लकीरें भी चीज क्या है वाइज।
अजय
अमिताभ सुमन
=====
खुदा
हो गया है
तेरे
हीं शहर में तुझी को ढूंढता हूँ,
अब
बता भी दे अपना पता ,
क्या
तू भी खुदा हो गया है?
अजय
अमिताभ सुमन
अहम
का था बना वो, वहम में हिल गया,
मिट्टी
से न जुड़ा था , मिट्टी में मिल गया।
=====
“ये वकील का पेशा है या कि पत्थरों की
दास्तां,
क़ि
जीत पे जश्न नहीं, हार का गम नहीं।”
====
होते
कुछ और हो, दिखाते कुछ और हो,
“बेनाम” खुद
को अख़बार समझ रखा है क्या।
====
अमीरों
को मलाल , गरीबी ना मिली,
गरीबों
को मलाल,अमीरी ना मिली।
पलंग
पे सोते अमीर को तरसे गरीब,
और
अमीर कि सुकून-ए-फकीरी ना मिली।
====
कैसे
करूँ इंकार , काँटों का तेरे भगवन,
फूलों
में तू उतना ही है, जितना की काँटों में।
====
पोंगा
पंडित काम ना आए,
ना
पोथी ना पतरा,
एक
बात है सुन ले भाई,
लोक
तंत्र है खतरा।
आवाज
रूह की,
आवाज
रूह की,
ना
तख्त के लिए,
ना
ताज के लिए,
ना
नाम की भी ख्वाहिश,
ना
नाज के लिए,
दफ़न
ना रह जाएं कहीं,
लफ्ज़
कोई सीने में,
मैं
लिखता हूं रूह की,
आवाज
के लिए।
=====