मृग तृष्णा समदर्शी सपना ,
भव ऐसा बुद्धों का कहना।
था उनका अनुभव खोल गए,
अंतर अनुभूति बोल गए।
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पर बोध मेरा कुछ और सही,
निज प्रज्ञा कहती और रही।
जब प्रेमलिप्त हो आलिंगन,
तब हो जाता है पुलकित मन।
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और शत्रु से उर हो कलुषित ,
किंतु मित्र से हर्षित हो मन।
चाटें भी लगते हैं मग में ,
काँटें भी चुभतें हैं पग में।
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वो हीं जाने क्या मिथ्या डग में,
ऐसा क्यों कहते इस मग में?
पर मेरी नज़रों में सच्चा ,
लहू लाल बहता जो रग में?
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अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
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