Thursday, December 10, 2020

विलय


श्वांसों का लय जीवन  में तय है,
पर  क्या नर  का  ये परिचय है?

जन्म  मरण  क्यों , ज्ञात नही है,
ज्ञान  अस्त  कोई  प्रात  नहीं है।

मन  का  बस विस्तार अजय है,
हे   मानव   ये    कैसा   क्षय  है?

अकारण    मन   संचय  आतुर,
हृदय फलित विषयी मन नासूर।

निज  बंधन  व्यापार  बढ़ा  कर,
तन पर मन पर बोझ चढ़ा  कर।

क्या हासिल अर्जित कर लोगे?
नाम  थोड़ा   संचित कर लोगे।

इस  नाम का  मतलब  है क्या?
देखो  मन  का करतब है  क्या?

सोचो   कैसे   मन   आप्त  हो,
दूर   अंधेरा   त्राण   प्राप्त  हो।

जब तक मन  के पार ना जाओ,
ना निज का परिचय कर पाओ।

तब तक क्या रखा जग जय में,
जीवन तो निज मन के क्षय  में।

अजय अमिताभ सुमन

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