घर में रहकर आराम करें हम ,नवजीवन प्रदान करें हम
कभी राष्ट्र पे आक्रान्ताओं का हीं भीषण शासन था,
ना खेत हमारे होते थे ना फसल हमारा राशन था,
गाँधी , नेहरू की कितनी रातें जेलों में खो जाती थीं,
कितनी हीं लक्ष्मीबाई जाने आगों में सो जाती थीं,
सालों साल बिताने पर यूँ आजादी का साल मिला,
पर इसका अबतक कैसा यूँ तुमने इस्तेमाल किया?
जो भी चाहे खा जाते हो, जो भी चाहे गा जाते हो,
फिर रातों को चलने फिरने की ऐसी माँग सुनते हो।
बस कंक्रीटों के शहर बने औ यहाँ धुआँ है मचा शोर,
कि गंगा यमुना काली है यहाँ भीड़ है वहाँ की दौड़।
ना खुद पे कोई शासन है ना मन पे कोई जोर चले,
जंगल जंगल कट जाते हैं जाने कैसी ये दौड़ चले।
जब तुमने धरती माता के आँचल को बर्बाद किया,
तभी कोरोना आया है धरती माँ ने ईजाद किया।
देख कोरोना आजादी का तुमको मोल बताता है,
गली गली हर शहर शहर ,ये अपना ढ़ोल बजाता है।
जो खुली हवा की साँसे है, उनकी कीमत पहचान करो।
ये आजादी जो मिली हुई है, थोड़ा सा सम्मान करो,
ये बात सही है कोरोना, तुमपे थोड़ा शासन चाहे,
मन इधर उधर जो होता है थोड़ा सा प्रसाशन चाहे।
कुछ दिवस निरंतर घर में हीं होकर खुद को आबाद करो,
निज बंधन हीं अभी श्रेयकर है ना खुद को तुम बर्बाद करो।
सारे निज घर में रहकर अपना स्व धर्म निभाएँ हम,
मोल आजादी का चुका चुकाकर कोरोना भगाएँ हम।
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