Wednesday, December 31, 2025

कोर्पोरेट डोंकी

दिल्ली में गर्मी उफान पर थी—सूरज मानो आसमान से आग बरसा रहा था। दोपहर की तपिश ने सड़कों को तवे की तरह गरमा दिया था और हवा में धूल के साथ पसीने की गंध घुली हुई थी। कार की सर्विस कराने के लिए मैं ओखला के उस जाने-पहचाने कार सर्विस सेंटर पहुँचा, जहाँ मशीनों की घरघराहट और मैकेनिकों की आवाज़ें पहले से ही माहौल को और बोझिल बना रही थीं। ज़रूरी काग़ज़ात पूरे कर, चाबी काउंटर पर रखकर मैंने कार वहीं छोड़ दी।

अब अगली चुनौती थी—इस झुलसाती गर्मी में घर लौटने का इंतज़ाम। सर्विस सेंटर से बाहर निकलते ही मैं सड़क के किनारे खड़ा होकर इधर-उधर नज़र दौड़ाने लगा, किसी खाली ऑटो रिक्शा की तलाश में। कुछ ऑटो तेज़ी से आगे निकल गए, कुछ में पहले से सवारियाँ भरी थीं। पसीना माथे से टपक रहा था और हर गुजरते पल के साथ घर पहुँचने की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। 

एक दो ऑटो वाले रुके और अनाप शनाप किराया माँगते। मैंने झुंझला के मना कर दिया। एक ने नया आदमी समझकर 300 रुपये मांगा। मैंने कहा 1000 लोगे क्या? जिस झुंझलाहट से मैंने उसका डिमांड सुना, उसी झुंझलाहट से मैंने उत्तर दिया और उसी झुंझलाहट से ऑटो वाला आगे बढ़ गया। मन में गुस्सा आ रहा था। ये ऑटो वाले सही किराया लेकर चलते क्यों नहीं? बेईमानी तो इनके नस नस में समाई हुई है। खैर मैं अपने जिद पर अड़ा रहा और ऑटो वाले अपनी जिद पर। जंग जारी रही।

थोड़ी देर में एक ऑटो वाला दिखा। साफ सुथरे कपड़े, क्लीन शेव। देखने में संभ्रांत लग रहा था। आशा की किरण उठती दिखाई पड़ी।मैंने उससे बदरपुर चलने को कहा। मेरी आशा के विपरीत उसने कहा ठीक है साहब, कितना दोगे ? मैंने कहा: भाई मीटर पे ले चलो। अब तो किराया भी बढ़ गया है। अब क्या तकलीफ है? उसने कहा :साहब महंगाई बढ़ गयी है इससे काम नहीं चलता।

मैं सोच रहा था अगर बेईमानी चरित्र में हो तो लाख बहाने बना लेती है। इसी बेईमानी के मुद्दे पे सरकार बदल गयी। मनमोहन जी चले गए ,मोदी जी आ गए। और ये बेईमानी है कि लोगों की नसों में जड़े जमाये बैठी है।मैंने पूछा , एक कहावत सुने हो , "ते ते पांव पसरिए जे ते लंबी ठौर"? अपनी हैसियत के मुताबिक रहोगे तो महंगाई कभी कष्ट नहीं देगी।

मैं अभी कार में घूमता हूँ। जब औकात नहीं थी , बस में चलने में शर्म नहीं आती थी । तुमको अगर इतना हीं कष्ट है ,तो जाओ परीक्षा पास करो और सरकारी नौकरी पा लो , कौन रोका है तुम्हे? ये जनतंत्र है , एक चायवाला भी प्रधान मंत्री बन जाता है, तुम कोशिश क्यों नहीं करते?

शायद मैंने उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया था। जलती हुई मुस्कान से साथ उसने कहा , इस आरक्षण के ज़माने में सरकारी नौकरी पाना रेगिस्तान में तेल निकालने के बराबर है।संविधान बनाने वालों ने तो कुछ ही समय के लिए आरक्षण का प्रावधान रखा था पर ये है कि सुरसा के मुंह की तरह ख़त्म होने का नाम हीं नहीं ले रही है । पिछड़ों का भला हो ना हो, पिछड़ों की राजनीति करने वालों का जरूर भला हो रहा है।

आप सही किराया लेने की बात करते हैं। ये प्रश्न आप डॉक्टरों, वकीलों से क्यों नहीं पूछते? कुछ भी पैसा डिमांड कर लेते हैं। ड्राइविंग लाइसेंस, राशन कार्ड , पासपोर्ट , यहां कौन सा काम बिना दलाल के होता है?बिना पैसों के किसी भी सरकारी दफ्तर में फाइल सरक सकती है क्या? परीक्षा में दलाली, इंटरव्यू में दलाली, कैसे आदमी पास करे परीक्षा?

मैंने ऑटो में बैठते हुए पूछा ,तो फिर प्राइवेट नौकरी क्यों नहीं कर लेते? वहाँ पे तो कोई आरक्षण नहीं? वहाँ पे तो घुस नहीं चलता। वहाँ पे तो प्रतिभा की पहचान है। उसने ऑटो स्टार्ट कर दिया। ऑटो चल पड़ी। प्रतिभा की पहचान है?वो हँसने लगा। साहब आपको लगता है प्राइवेट सेक्टर में काबिलीयत की क़द्र है ? कैसी प्रतिभा? किस तरह की काबलियत? खैर जो सचमुच काबिल है उसे नीचे खींचने में सारे लग जाते है । जो चाटुकार है , आगे बढ़ जाता है, भले हीं गधा क्यों न हो। उसने आग उगलना जारी रखा, रामधारी सिंह दिनकर की बातें आपको याद है न? "यदि सारे गधे किसी व्यक्ति को मारना शुरू कर दें तो समझो वो व्यक्ति प्रतिभाशाली नहीं बल्कि महाप्रतिभाशाली है"। और प्रतिभा भी तो कैसी?क्या ईमानदारी और सच्चाई? मेहनत और लगन?क्या आप इसकी बात कर रहे हैं? उसने आग उगलना जारी रखा। बीच में ट्रैफिक जाम आ गया। ऑटो रुक गया। फिर ग्रीन लाइट हो गई। एक बाइक वाला उल्टी दिशा से ऑटो को टेक ओवर करते हुए निकल गया। साले को ओलिम्पिक का मेडल जितना है। ऑटो वाले ने गुस्साते हुए कहा। ऑटो को संभालते हुए चला रहा था। उसका आग उगलना जारी रहा। भाई भतीजावाद कहाँ नहीं है?वकालत में, बिज़नेस में, सिनेमा मे , कहाँ नहीं है?सुना नहीं आपने ये कंगना रौनत और करण जौहर की कहानी? टाटा, अम्बानी को देखिए।और तो और लालू को देखिए, राम विलास पासवान को देखिए,मायावती मुलायम को देखिए, देवगौड़ा को देखिए, कहाँ नहीं है भाई भतीजावाद? वकील, डॉक्टर, बिजनेसमैन , कौन यहाँ आगे बढ़ पाता है बिना दलाली के?हर काम में कट की आदत सबको लड़ी हुई है। और हम दो रोटी के लिए थोड़ा सा किराया ज्यादा क्या मांग लिए, आपको बुरा लग रहा है? ईमानदारी का पाठ पढ़ाने चल दिए।अगर पूरी व्यवस्था हीं गलत है तो आप हमसे ईमानदारी की उम्मीद क्यों लगा रहे हैं? मैंने कहा कि सूरज तो रोज हीं उगता है और उजाला फैलता है। और कोई काला चश्मा पहनकर कहे कि अंधेरा है तो दोष सूरज का है या काले चश्मे का?क्या तुमको नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार नहीं दिखते?अपनी ईमादार राजनीति से पूरे भारत को बदल दिया। वो फिर हँसने लगा:भाई साहब ईमानदारी पर संदेह नहीं है। पर बुरा न माने, बीबी को छोड़कर भाग खड़ा होना कोई उचित बात भी नहीं। इन दोनों के पारिवारिक जीवन पर जरा प्रकाश डालिए। दोनों ने हीं पारिवारिक जिम्मेदारियों को उठाने से मना कर दिया। मैं चिढ़ गया:अजीब आदमी हो, कोई परिवार को सपोर्ट करे तो भाई भतीजावाद, और परिवार को छोड़े तो कमजोर। आखिर है कौन आदर्श तुम्हारी नजरों में। खैर महात्मा गाँधी जी को देखो। शादी शुदा भी थे और परिवारवाद के समर्थक तो कतई नहीं। सही बात है। इतने ईमानदार कि नंगी लड़कियों के साथ ब्रह्मचर्य के प्रयोग करते। पर उनके बच्चों का क्या हुआ? उनसे तो बेहतर ये नेहरू निकला जिसने अपने परिवार के लिए तो पूरी व्यवस्था कर दी। मैंने गुस्से में झड़प दिया। अजब मूर्ख हो। कोई परिवार वाद को बढ़ावा दे रहा है तो खराब और परिवारवाद को प्रश्रय दे वो बेहतर। आखिर तुम्हारा मापदंड क्या है? उसने कहा, नाराज न हों भाई साहब। आपका कहना वाकई जायज है। मैंने कहा कि नेहरू ने अपने परिवार के लिए अच्छा किया, पर मैं उसका प्रशंसक नहीं हूं। मुझे गाँधी के अलावा अन्ना हज़ारे भी दिखाई पड़ते हैं। परिवार छोड़ा, ईमानदार रहे, पर उनका हुआ क्या? लोकपाल आंदोलन का फायदा किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल को मिला। खासकर अरविंद केजरीवाल ने अन्ना हज़ारे को चूसकर फेक दिया। आपको स्टॅलिन, गद्दाफी क्यों दिखाई नहीं पड़ते?स्टॅलिन ने इतने लोगो को मरवाया पर फिर भी रूस में निंदनीय नहीं है। गद्दाफी ने इतने लोगो ओर निरंकुशता से लीबिया में शासन किया,फिर भी लोग उसे ठीक हीं मानते हैं। जरूरत पड़ने पे इनलोगों ने अपनी दुम भी हिलाई और दुलत्ती भी मेरी। न केवल इनलोगों को जीभ निकालने हीं आता था, बल्कि जरूरत पड़ने पर आँख दिखाने की भी कला भी आती थी। कहा भी गया है, "क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो,उसको क्या जो दंतहीन विषहीन विनीत सरल हो।" मैं उसकी प्रतिभा पर चकित था। मैं सोच रहा था कि ऐसे लोग भारत में ऑटो चलाने को मजबूर हैं। ये भारत का सौभाग्य है या दुर्भाग्य? एक तरफ तो एक चाय वाला भारत का प्रधान मंत्री बन जाता है, तो दूसरी तरफ इस ऑटो वाले की तरह अनगिनत लोग इस तरह के पेशे में उतरने को मजबूर हो जाते हैं। वो बोलता हीं चला जा रहा था। युद्धिष्ठिर के भरोसे तो महाभारत की जंग नही जीती जा सकती। अगर कृष्ण भी युद्धिष्ठिर की राह चल पड़ते तो क्या महाभारत का युद्ध जीत पाते?क्या शकुनि और दुर्योधन के सामने युद्धिष्ठिर अपनी मात्र धर्मपरायणता का संस्थापन बिना अर्जुन और भीम के कर पाते? ऑटो गंतव्य स्थल के नजदीक आ गई थी। उसका आग उगलना जारी रहा। मेरे कहने का कुल मतलब ये है कि ईमानदार होना कोई गुण नहीं, कोई प्रतिभा नहीं। ईमानदार रहे तो अन्ना हज़ारे और गाँधी का हाल हो जाएगा। जिसने बेईमानी का सदुपयोग किया वो आगे बढ़ा। मैंने पूछा भाई ये सब तुम कैसे जानते हो ? उसने कहा , कभी सरकारी नौकरियों के लिए तैयारी की थी।बैंक पी ओ बनने के लिए इतिहास, भूगोल, गणित, विज्ञान जाने क्या क्या छान मारा। पर इस आरक्षण के सामने सब फीका पड़ गया। अलबत्ता पढ़ने की लत लग गई। पढ़ने की वो आदत आज तक नहीं गई। बिना पढ़े रहा नहीं जाता। कविता , कहानियां भी लिखता हूँ । पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं । पर इन कविताओं और कहानियों से परिवार नहीं चलता । ये तो भला हो इस ऑटो का , जिसने कितनी हीं कविताओं , कहानियों को बिखरने से बचा लिया। उसने आगे कहा, प्राइवेट जॉब भी करके देख लिया। वहां पे तो आत्म स्वाभिमान की तो ऐसी की तैसी हो जाती है। काम करो और बस करते रहो। क्या सोमवार , क्या रविवार। बीमार पड़े तो पैसे कटते है, छुट्टी करो तो छुट्टी कर देते हैं । मैं कोई गधा नहीं जो पैसों के लिए मालिक के सामने अपनी दुम हिलाता रहूँ। और छुट्टी का कोई सिस्टम नहीं। इस साल रामनवमी पे छुट्टी तो अगले साल कैंसिल। सब एक लाला के मूड पर निर्भर करता है। आज बीबी से लड़कर आया है, तो सैलरी नहीं मांग सकते। बोनस भी साल खुदरे खुदरे में 6-6 महीने तक मिलता रहता है। लाला को जो अच्छा लगता है, तुमको भी अच्छा लगना चाहिए।अगर उसको फुटबॉल की सनक है तो तुमको भी क्रिकेट जा शौक छोड़ देना चाहिए। साला पूरा दिमाग का दही बन जाता है।मैं इन जगहों पर टिक नहीं पाया। ऑफिस में काम करो ना करो पर चौकीदारी करते रहो। पूरे दिन लैपटॉप पर ब्लू फिल्म देखते हुए गुजार दो, कोई नहीं पूछने वाला, अलबत्ता देर रात तक टीके रहो, तभी लाला के करीब जाते हो। कोई सोशल लाइफ नहीं। ये सब मेरे बस का नहीं। ये मेरा ऑटो मेरा साम्राज्य है और मैं इसका मालिक। अपनी मर्जी से निकलता हूँ, अपनी मर्जी से लौटता हूँ। कोई जी हुजूरी नहीं, कोई रोक टोक नहीं। किराया जँचे तो बैठिए वरना राम राम। और ऊपर वाले की कृपा से परिवार का खर्चा बड़े आराम से चल जाता है। "ना ऊधो का देना, ना माधो का लेना" गंतव्य स्थल आ चुका था। ऑटो वाले को मुँह मांगा किराया देना मजबूरी थी। उतरने के बाद घर की तरफ आगे चल पड़ा। ऑटो वाले की बात मेरे जेहन में घूम रही थी। मैं सोच रहा था , सहना भी तो एक प्रतिभा है।मालिक की हाँ में हाँ मिलाना भी तो एक प्रतिभा है। दुम हिलाना भी तो एक प्रतिभा है। गधे की तरह ही सही। नौकर मालिक के सामने दुम हिलाता है, और मालिक क्लाइंट के आगे।जो सही तरीके से अपनी दुम हिलाना जान गया समझो वो चल गया। समय की मांग के अनुसार दुम हिलाना भी पड़ता है, दुम मरोड़ना भी पड़ता है और दुलत्ती भी मारनी पड़ती है। अलबत्ता वेश भूषा समय के अनुसार बदलनी पड़ती है। "कोर्पोरेट डोंकी" हीं आगे बढ़ते है। ये बात शायद ऑटो वाला नहीं समझ पाया था।

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