दुनिया ये तेरी मेरी ,फरक फकत के यूं है,
ना आरजू हुनुज है , ना कोई जुस्तजू हैI
दियार-ए-खंजर माफिक, है मंजर कायनात के,
ताऊन से भी उसरत, तबियत हालात केI
धुएं का असर है कि , लहर इक सड़ा हुआ,
जहर में बसर है ये , खाक में पड़ा हुआ।
बह रही ना हर सहर ,मसर्रत बहार की,
शामें है शाम-ए-हिज्र ,रातें शब-ए-फ़िराक़ कीI
सजदे तो मैं भी रखता ,रहगुजर में माबूद,
फकत तल्खी-ए-जिस्त से ,रूह तन्हा रंज-ए-वजूद।
चलो चलें पूरा करने ,अपने आपने शौक,
तू पैदा कर नस्ल-ए-आदम, मैं मुकर्रर अपनी मौतI
अजय अमिताभ सुमन