हिमालय पर्वत के बारे में सुनकर या पढ़कर उसके बारे में
जानकरी प्राप्त करना एक बात है और हिमालय पर्वत के हिम आच्छादित तुंग शिखर पर चढ़कर
साक्षात अनुभूति करना और बात । शिवजी की असीमित शक्ति के बारे में अश्वत्थामा ने
सुन तो रखा था परंतु उनकी ताकत का प्रत्यक्ष अनुभव तब हुआ जब उसने जो भी अस्त्र
शिव जी पर चलाये सारे के सारे उनमें ही विलुप्त हो गए। ये बात उसकी समझ मे आ हीं
गई थी कि महादेव से पार पाना असम्भव था। अब मुद्दा ये था कि इस बात की प्रतीति
होने के बाद क्या हो? आईये
देखते हैं दीर्घ कविता “दुर्योधन
कब मिट पाया” का
पच्चीसवाँ भाग।
किससे लड़ने चला द्रोण पुत्र थोड़ा तो था अंदेशा,
तन
पे भस्म विभूति जिनके मृत्युमूर्त रूप संदेशा।
कृपिपुत्र
को मालूम तो था मृत्युंजय गणपतिधारी,
वामदेव
विरुपाक्ष भूत पति विष्णु वल्लभ त्रिपुरारी।
चिर वैरागी योगनिष्ठ हिमशैल कैलाश के निवासी,
हाथों
में रुद्राक्ष की माला महाकाल है अविनाशी।
डमरूधारी
के डम डम पर सृष्टि का व्यवहार फले,
और
कृपा हो इनकी जीवन नैया भव के पार चले।
सृष्टि रचयिता सकल जीव प्राणी जंतु के सर्वेश्वर,
प्रभु
राम की बाधा हरकर कहलाये थे रामेश्वर।
तन
पे मृग का चर्म चढाते भूतों के हैं नाथ कहाते,
चंद्र
सुशोभित मस्तक पर जो पर्वत ध्यान लगाते।
जिनकी सोच के हीं कारण गोचित ये संसार फला,
त्रिनेत्र
जग जाए जब भी तांडव का व्यापार फला।
अमृत
मंथन में कंठों को विष का पान कराए थे,
तभी
देवों के देव महादेव नीलकंठ कहलाए थे।
वो पर्वत पर रहने वाले हैं सिद्धेश्वर सुखकर्ता,
किंतु
दुष्टों के मान हरण करते रहते जीवन हर्ता।
त्रिभुवनपति
त्रिनेत्री त्रिशूल सुशोभित जिनके हाथ,
काल
मुठ्ठी में धरते जो प्रातिपक्ष खड़े थे गौरीनाथ।
हो समक्ष सागर तब लड़कर रहना ना उपाय भला,
लहरों
के संग जो बहता है होता ना निरुपाय भला।
महाकाल
से यूँ भिड़ने का ना कोई भी अर्थ रहा,
प्राप्त
हुआ था ये अनुभव शिवसे लड़ना व्यर्थ रहा।
अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित
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