मिथ्या:अजय अमिताभ सुमन
ऐ मेरे बंधू हैे कैसा ये क्रंदन,
कैसी घबराहट है छायी अब हर क्षण।
बुद्धि हो शुद्धि हो तुम तो निरंजन,
संसार माया क्यों करते हो चिंतन।
पोता कभी पिता कभी दादा बने तुम,
थकते नही करके रिश्तों का अर्जन।
निद्रा तुम्हारी कई जन्मों से हावी,
दुनिया ये मिथ्या है स्वप्नों का मंथन।
समय की गाड़ी पे बैठा तन तेरा,
मन है ये चालक और यात्री तेरा चेतन।
क्या तुमने पाया था खोया क्या तुमने,
खेला है मन का तेरे मन का प्रक्षेपण।
ना तुम जगत के ना संसार तेरा,
ना तन भी तुम्हारा ना मन का स्पंदन।
तुम हीं में वायु ये आकाश सारा ,
तुममें जगत है ना समझो अकिंचन।
त्यागो ये मिथ्या अब त्यागो ये दुनिया,
आया समय छोड़ो स्वप्नों का बंधन।
बुद्धि हो शुद्धि हो तुम तो निरंजन,
संसार माया क्यों करते हो चिंतन।