Tuesday, December 31, 2024

अदालत, चाय और कॉफी की

 

दो वकील साहब अदालत में जोर-जोर से बहस कर रहे थे। कोर्टरूम में तनाव चरम पर था।

जज साहब ने हंसते हुए कहा : आप दोनों वकील साहब कुत्ते और बिल्ली की तरह लड़ रहे हैं! कभी सोचा है कि साथ बैठकर चाय पी लें?"

इस पर पहले वकील साहब ने कहा : माई लॉर्ड, ये नामुमकिन है क्योकिं मुझे तो सिर्फ कॉफी पसंद है जबकि मेरे दोस्त वकील को चाय हीं पसंद है ।"

जज साहब ने मजाकिया अंदाज में कहा : "ओह, तो ये सिर्फ कानूनी लड़ाई नहीं, बल्कि पेय पदार्थों की जंग भी है!"

इसपर पहले वकील साहब ने कहा : "बिलकुल, माई लॉर्ड; इनकी चाय इतनी फीकी है कि मुझे ताजगी आती हीं नहीं !"

दुसरे वकील साहब ने तुरंत जवाब दिया : माई लॉर्ड, केवल ताजगी के नाम पर मै इतनी कड़वी कॉफी। नहीं पी सकता कड़वी कॉफी इन्हें हीं मुबारक!"

जज ने हंसते हुए जवाब दिया : तो जनाब मेरा सुझाव है कि तब तक आप दोनों साथ मिलकर पानी हीं पी लें जबतक साथ बैठकर चाय-कॉफी पीने की कला सीख नहीं लेते!"

अजय अमिताभ सुमन

दुर्योधन कब मिट पाया?

यह कहानी उस एक व्यक्ति की है, जिसने अपने जीवन में एक ऐसा मोड़ देखा जिसे कभी उसने सोचा भी नहीं था। एक ऐसा मोड़, जहाँ से पीछे मुड़ना असंभव था, और आगे का रास्ता सिर्फ विनाश की ओर जाता था। वह व्यक्ति था कुरुवंश का सबसे बड़ा और ताकतवर राजकुमार—दुर्योधन।

दुर्योधन का बचपन से ही सत्ता और अधिकारों में लिप्त जीवन था। वह हमेशा से खुद को सर्वोपरि मानता था। जिस समय पांडव अपने संघर्षों से जूझ रहे थे, उस समय दुर्योधन को अपनी राजसी ठाट-बाट और अपार शक्ति पर घमंड था। उसकी आंखों में वह ज्वाला थी जो उसे हर उस व्यक्ति से बड़ा बना देती, जो उसकी सत्ता को चुनौती देने की हिम्मत करता।

लेकिन क्या यह ज्वाला हमेशा जलती रहती है? क्या कभी यह बुझती नहीं?

दुर्योधन ने अपने आसपास उन लोगों को इकट्ठा किया जो उसकी सत्ता को और मजबूत बनाते। जरासंध, शकुनि, कर्ण, दुःशासन—ये सभी उसकी शक्ति के प्रतीक बन चुके थे। शकुनि ने अपनी चालों से उसे विश्वास दिलाया कि जो वह चाहता है, वही होगा। लेकिन वह भूल गया था कि ये चालें और विश्वास उसे सिर्फ उस गर्त की ओर ले जा रहे थे, जहां से वापस आना असंभव था।

जब पांडवों को छल से जुए में हराकर, उनका सारा साम्राज्य हड़प लिया गया, तब दुर्योधन को लगा कि अब उसका आधिपत्य अखंड और अटूट हो गया है। लेकिन, यह सिर्फ शुरुआत थी। पांडवों का वनवास, द्रौपदी का चीर हरण, और इसके बाद की घटनाएँ, सब उसी विनाश का बीज बो रही थीं जिसे दुर्योधन समझ नहीं पाया।

फिर आया महाभारत का युद्ध, एक ऐसा युद्ध जिसमें न सिर्फ धरती बल्कि आकाश भी कांप उठा था। धरती के सबसे बड़े योद्धा एक-एक करके उस युद्ध में गिरने लगे। भीष्म पितामह, जो कभी दुर्योधन के पक्षधर थे, स्वयं ही उस युद्ध में शरशय्या पर लेटे हुए थे। गुरु द्रोण, जिनकी युद्धनीति पर दुर्योधन भरोसा करता था, वह भी इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए।

परंतु सबसे बड़ा आघात तब हुआ, जब कर्ण मारा गया।

कर्ण, जो दुर्योधन के लिए न सिर्फ एक योद्धा बल्कि उसके मित्र, भाई और साथी थे, जब युद्ध में मारा गया तो दुर्योधन की आत्मा अंदर से टूट चुकी थी। उसके पास अब कुछ नहीं बचा था, न सत्ता, न मित्र, न सेना। लेकिन अहंकार, वह अब भी बचा हुआ था, जो उसे सत्य से दूर रखे हुए था।

रणभूमि में जब दुर्योधन की जंघा टूट चुकी थी, वह धरती पर गिरा हुआ था। उसका शरीर खून से लथपथ था, लेकिन उसकी आँखों में अभी भी एक अजीब सा संकल्प था—एक विश्वास, जो उसे अपने अंत से भी आगे देखने पर मजबूर कर रहा था। वह सोचता था कि उसने जो किया, वह सही था।

पर क्या वह वास्तव में सही था?

अंत में, जब उसका अंतिम क्षण आया, तब उसे यह अहसास हुआ कि उसकी हार केवल युद्ध की नहीं थी। उसकी हार उसके अहंकार की थी। वह समझ चुका था कि धर्म और अधर्म के बीच की लड़ाई में, धर्म ही विजयी होता है।

लेकिन यह अंत नहीं था।

दुर्योधन की कहानी केवल उसकी व्यक्तिगत हार की नहीं है। यह उस अहंकार की कहानी है जो समाज में किसी न किसी रूप में जीवित रहता है। क्या आज भी कोई दुर्योधन हमारे आसपास नहीं है? क्या आज भी सत्ता और शक्ति का घमंड हमारे समाज में मौजूद नहीं है? क्या आज भी कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो अपने अहंकार के चलते दूसरों को कुचलने की कोशिश करता है?

कहानी यहीं खत्म नहीं होती, क्योंकि यह केवल एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि एक युग की कहानी है। सत्ता और अहंकार का यह चक्र आज भी किसी न किसी रूप में घूमता रहता है, और यह चक्र कभी नहीं रुकता।

तो क्या यह संभव है कि दुर्योधन आज भी हमारे समाज में जीवित हो, किसी नये रूप में, किसी नये नाम से?

न्याय सम्राट अशोक का

 कुछ साल पहले की बात है। दिल्ली हाई कोर्ट के एक माननीय न्यायधीश रिटायर हो रहे थे। दिल्ली हाई कोर्ट बार एसोसिएशन की तरफ से उनके सम्मान में एक पार्टी आयोजित की गई थी। जब माननीय न्यायाधीश महोदय अपने कार्यकाल का अनुभव प्रस्तुत कर रहे थे तो बातों बातों में उन्होंने एक कहानी सुनाई। ये कहानी बहुत हीं प्रासंगिक है। ये कहानी सम्राट अशोक से संबंधित है।

सम्राट अशोक यदा कदा रात को वेश बदलकर अपने राज्य का दौरा करते थे। वेश बदलकर राज्य का दौरा करने का मकसद ये था कि वो जान सकें कि उनके राज्य में उनके आधीन राज्याधिकारी प्रजा के साथ किस तरह का व्यवहार कर रहे हैं?एक बार रात को वो अपना वेश बदल कर बाहर निकले। जब राज्य का दौरा कर वो वापस अपने महल में आए तो महल के दरवाजे पर खड़े दो द्वारपालों ने उन्हें रोक लिया।

जब सम्राट अशोक ने अपना परिचय दिया तब भी दोनों द्वारपाल नहीं माने। उन दोनों द्वारपालो ने सम्राट अशोक को बताया कि उनकी नियुक्ति अभी नई नई हुई है। वो सम्राट अशोक को नहीं पहचानते। इसलिए सम्राट अशोक को थोड़ी देर इंतजार करने के लिए कहा।

एक द्वारपाल अपने उच्च अधिकारी से मिलने चला गया ताकि उचित आदेश ले कर आगे की कार्यवाही पूरा कर सके। रात्रि का पहर था, उच्च अधिकारी सो रहा था , इसलिए उसे जगाकर लाने में देरी हो रही थी।इधर सम्राट अशोक लंबे समय तक महल के दरवाजे के बाहर खड़े खड़े परेशान हो रहे थे। जब उन्होंने जबरदस्ती महल के भीतर जाने की कोशिश की तो द्वारपाल ने उन्हें धक्का दे दिया।

गुस्से में आकर सम्राट अशोक ने उस द्वारपाल की हत्या कर दी। जबतक उच्च अधिकारी दूसरे द्वारपाल के साथ महल के दरवाजे पर आया तबतक सम्राट अशोक के हाथ में रक्तरंजित तलवार और द्वारपाल का प्राणहीन शहरी पड़ा था। अगले दिन द्वारपाल की मृत्यु का समाचार चारो तरफ फैल गया। महल के एक एक अधिकारी को ज्ञात हो गया की द्वारपाल की हत्या सम्राट अशोक के हाथों हो गई है।

नियमानुसार सम्राट अशोक को हीं मामले की शुरुआत करनी थी। उस हत्या के मामले में तहकीकात करनी थी।लिहाजा उन्होंने उसी उच्च अधिकारी को मामले की तहकीकात करने की जिम्मेदारी सौंपी। सम्राट अशोक के पास असीमित ताकत थी। वो मामले को रफा दफा भी कर सकते थे। लेकिन उन्होंने असीमित शक्ति के साथ साथ अपनी जिम्मेदारी भी समझी। उन्हें पता था कि वो ही उच्च अधिकारी सही गवाही दे सकता है, इसलिए उसी को चुना।

जब मामले की तहकीकात कर लेने के बाद उच्च अधिकारी ने दरबार लगाने की मांग की , तब सम्राट अशोक ने नियत समय दरबार लगाया।उस भरे दरबार में उच्च अधिकारी ने पूरी घटना का वर्णन किया। और बताया कि उस द्वारपाल का हत्यारा सम्राट अशोक हीं है। हालांकि उस वध में सम्राट अशोक के साथ साथ अनेपक्षित परिस्थियां भी जिम्मेदार थी। सम्राट अशोक ने बड़ी विनम्रता के साथ उस आरोप को स्वीकार किया।

इस कहानी को सुनाकर माननीय न्यायाधीश ने बताया कि आजीवन उन्होंने अपने कोर्ट को वैसे हीं चलाया। ऐसा देखा जाता है कि मामले की सुनवाई के दौरान कुछ माननीय न्यायधीश अनावश्यक टिप्पणियां करते रहते है। एडवोकेट और पार्टी को अनावश्यक रूप से डांटते रहते हैं।ये उचित नहीं। एक न्यायाधीश के।सहिष्णु होना बहुत जरूरी है। यदि माननीय न्यायधीश डर का माहौल कर दे तो फिर एक तानाशाह और न्यायधीश में अंतर क्या रह पाएगा।

उन्होंने आगे कहा कि न्यायधीश तो ऐसा होना चाहिए कि आम आदमी उसके पास आकर अपनी बात खुलकर रख रखे। यहां तक कि उसके खिलाफ भी बोल सके।एक न्यायधीश ईश्वर नहीं होता। फिर भी यदि ईश्वर के हाथों भी गलती हो जाती है तो फिर एक न्यायधीश की क्या औकात? एक न्यायधीश को न्यायिक प्रक्रिया के दौरान अनावशक टिप्पणी करने से बचना चाहिए। और यदि अनावश्यक टिप्पणी करते हैं तो जनता की बीच उठी आवाज को सुनने को क्षमता भी होनी चाहिए।

माननीय न्यायाधीश ईश्वर तो होते नहीं। आखिर हैं तो ये भी एक इंसान हीं। यदि आप ईश्वर की तरह शक्ति और सम्मान चाहते हो तो। ईश्वर की तरह व्यवहार भी करो। हालांकि गलतियां ईश्वर से भी तो हो जाती है। तो ईश्वर की तरह असीमित धीरज भी तो रखो।कोई भी न्याय व्यवस्था से ऊपर नहीं हो सकता। यहां तक कि न्यायधीश भी। कौन नहीं जानता भगवान शिव को भी अपने वरदान के कारण हीं भस्मासुर से भयभीत होकर भागना पड़ा था। असीमित शक्ति बिना किसी जिम्मेदारी के अत्यंत घातक सिद्ध होती है।

उन्होंने आगे कहा, अपने न्यायिक जीवन में उन्होंने सम्राट अशोक के उसी न्याय व्यवस्था को अपनाया। अदालती।करवाई के दौरान अनावश्यक टिप्पणियों से बचने की कोशिश करना और यदि अनचाहे उनसे इस तरह की टिप्पणी हो गई हो तो उसके खिलाफ आती प्रतिरोधात्मक स्वर को धैर्य के साथ सुनना।

एक बीज में बरगद देखा

 कुदरत तेरा करतब देखा, एक बीज में बरगद देखा।

रोज रोज ये सूरज कैसे, पूरब से उग जाता है।
सुबह गुलाबी दिन मे तपता, शाम को ये डूब जाता है।
रात को कैसे जा छिपता है, अनजाने ये सरहद देखा,
कुदरत तेरा करतब देखा, एक बीज में बरगद देखा।

पानी में मछली रहती क्यों? पर चिड़िया इसमें मरती क्यों?
सर्प सरकता रेंग रेंग कर, छिपकीली छत पे चढ़ती क्यों?
कोयल कूके बाग में आके,मकसद क्या अनजाने देखा।
कुदरत तेरा करतब देखा, एक बीज में बरगद देखा।

नाजाने क्या मकसद देखा, एक बीज में बरगद देखा।


Saturday, December 28, 2024

रामलीला मैदान पे हुई सनतन की भीड़

 

रामलीला मैदान पे ,हुई सनतन की भीड़,

भूखे प्यासे अन्ना बैठे, जनता बड़ी अधीर।

 

जनता बड़ी अधीर कि कैसे देश बने महान ?

किरण, मनीष, विश्वास सकल करते जाते गुणगान।

 

करते जाते गुणगान किया फिर तुमने ऐसा वार,

किरण, प्रशांत चलते बने करने और व्यापार।

 

ओ अरविन्द ओ स्वामी तेरी कैसी थी वो माया,

बड़ी चतुराई से यूज किया कैसे बूढ़े की काया।

 

लोकपाल के नाम पे कैसे बना जनता को मुर्ख,

शेखचिल्ली से सूखे गाल अब बने लाल व सुर्ख।

 

बने लाल व सुर्ख कि अब देख रहा जग सारा,

कभी टोपी कभी पगड़ी पहने केजरी देख हमारा।

 

केजरी देख हमारा नहीं था कभी आदमी आम,

अन्नाजी के नाम पे खुद की सजा रहा था दुकान।

 

सजा रहा था दुकान बन गया तू दिल्ली का लाल,

और बेचारे अन्ना सटके देख बुरा है हाल।

 

देख बुरा है हाल फटा है लोकपाल का पन्ना.

हो गई बेजार क्रांति चूस अन्ना जी का गन्ना।


 

एक व्याघ्र से नहीं अपेक्षित प्रेम प्यार की भीख

 

एक व्याघ्र से नहीं अपेक्षित प्रेम प्यार की भीख,

किसी मीन से कब लेते हो तुम अम्बर की सीख ?

लाल मिर्च खाये तोता फिर भी जपता हरिनाम,

काँव-काँव ही बोले कौआ कितना खाले आम।

 

डंक मारना ही बिच्छू का होता निज स्वभाव,

विषदंत से ही विषधर का होता कोई प्रभाव।

कहाँ कभी गीदड़ के सर तुम कभी चढ़ाते हार ?

और नहीं तुम कर सकते हो कभी गिद्ध से प्यार ?

 

जयचंदों की मिट्टी में ही छुपा हुआ है घात,

और काम शकुनियों का करना होता प्रति घात।

फिर अरिदल को तुम क्यों देने चले प्रेम आशीष ?

जहाँ जहाँ शिशुपाल छिपे हैं तुम काट दो शीश।


 

जहाँ जुर्म की दस्तानों पे लफ़्ज़ों के हैं कील

 

जहाँ जुर्म की दस्तानों पे ,
लफ़्ज़ों के हैं कील।
वहीं कचहरी मिल जायेंगे ,
जिंदलजी वकील।

लफ़्ज़ों पे हीं जिंदलजी का ,
पूरा है बाजार टिका,
झूठ बदल जाता है सच में,
ऐसी होती है दलील।

औरों के हालात पे इनको,
कोई भी जज्बात नही,
धर तो आगे नोट तभी तो,
हो पाती है डील।

काला कोट पहनते जिंदल,
काला हीं सबकुछ भाए,
मिले सफेदी काले में वो,
कर देते तब्दील।

कागज के अल्फ़ाज़ बहुत है,
भारी धीर पहाड़ों से,
फाइलों में दबे पड़े हैं,
नामी मुवक्किल।

अगर जरूरत राई को भी ,
जिंदल जी पहाड़ कहें,
और जरूरी परबत को भी ,
कह देते हैं तिल।

गीता पर धर हाथ शपथ ये,
दिलवाते हैं जिंदल साहब,
अगर बोलोगे सच तुम प्यारे,
होगी फिर मुश्किल।

आईन-ए-बाजार हैं चोखा,
जींदल जी सारे जाने,
दफ़ा के चादर ओढ़ के सच को,
कर देते जलील।

उदर बड़ा है कचहरी का,
उदर क्षोभ न मिटता है,
जैसे हनुमत को सुरसा कभी ,
ले जाती थी लील।

आँखों में पट्टी लगवाक़े,
सही खड़ी है कचहरी,
बन्द आँखों में छुपी पड़ी है,
हरी भरी सी झील।

यही खेल है एक ऐसा कि,
जीत हार की फिक्र नहीं,
जीत गए तो ठीक ठाक ,
और हारे तो अपील।


ये अच्छी या वो अच्छी चुनूँ किसको सरकार में

 

ये अच्छी या वो अच्छी चुनूँ किसको सरकार में ,

सरकारें आती जाती ना बदलाहट व्यवहार  में।

 

मुख्य पेज पे खबर छपी है कहाँ सिपाही नाका डाला,

कहाँ किसी की जेब कटी है कहाँ चोर ने डाका डाला।

जैसे जंग छिड़ी हो डग डग हर पग पग संसार में,

सरकारें आती जाती ना बदलाहट व्यवहार  में।

 

रोज रोज का धर्मं युद्ध मंदिर मस्जिद की भीषण चर्चा,

दाल आँटे की वो  ही झंझट और  प्याज का बढ़ता खर्चा।

जंग  छिड़ी  थी  महंगाई  से  अब तक है व्यापार  में

सरकारें आती जाती ना बदलाहट व्यवहार  में।

 

कोई दरोगा आया था कि कारखानों में छाप पड़ी थी,

नकली चावल जो लाता था लाला पे चुपचाप पड़ी थी।

पैसे देकर इधर उधर बचता फिरता बाजार में,

सरकारें आती जाती ना बदलाहट व्यवहार  में।

 

किसी पार्टी का झूठा वादा किसी सेठ की बातें झूठी,

खबर नवीस  है जाने कैसे सच में भी बस ढूंढे त्रुटि।

कल तक छपी रही थी अब तक है वो ही अखबार में,

सरकारें आती जाती ना बदलाहट व्यवहार  में।

 

ये अच्छी या वो अच्छी चुनूँ किसको सरकार में ,

सरकारें  आती  जाती ना  बदलाहट  व्यवहार  में।

Friday, December 27, 2024

अंतर्द्वंद्व

 

अंतर्द्वंद्व

जीवन यापन के लिए बहुधा व्यक्ति को वो सब कुछ करना पड़ता है , जिसे उसकी आत्मा सही नहीं समझती, सही नहीं मानती । फिर भी भौतिक प्रगति की दौड़ में स्वयं के विरुद्ध अनैतिक कार्य करते हुए आर्थिक प्रगति प्राप्त करने हेतु अनेक प्रयत्न करता है और भौतिक समृद्धि प्राप्त भी कर लेता है , परन्तु उसकी आत्मा अशांत हो जाती है। इसका परिणाम स्वयं का स्वयम से विरोध , निज से निज का द्वंद्व।विरोध यदि बाहर से हो तो व्यक्ति लड़ भी ले , परन्तु व्यक्ति का सामना उसकी आत्मा और अंतर्मन से हो तो कैसे शांति स्थापित हो ? मानव के मन और चेतना के अंतर्विरोध को रेखांकित करती हुई रचना ।

दृढ़ निश्चयी अनिरुद्ध अड़ा है

ना कोई विरुद्ध खड़ा है।


जग की नज़रों में काबिल पर

चेतन अंतर रूद्ध डरा है।

 

घन तम गहन नियुद्ध पड़ा है

चित्त किंचित अवरुद्ध बड़ा है।


अभिलाषा के श्यामल बादल

काटे क्या अनुरुद्ध पड़ा है।


स्वयं जाल ही निर्मित करता

और स्वयं ही क्रुद्ध खड़ा है।


अजब द्वंद्व है दुविधा तेरी

मन चितवन निरुद्ध बड़ा है।


तबतक जगतक दौड़ लगाते

जबतक मन सन्निरुद्ध पड़ा है।


किस कीमत पे जग हासिल है

चेतन मन अबुद्ध अधरा है।


अरि दल होता किंचित हरते

निज निज से उपरुद्ध अड़ा है।


किस शिकार का भक्षण श्रेयकर

तू तूझसे प्रतिरुद्ध पड़ा है।


निज निश्चय पर संशय अतिशय

मन से मन संरुद्ध लड़ा है।


मन चेतन संयोजन क्या जब

खुद से तेरा युद्ध पड़ा है।

 

अजय अमिताभ सुमन

सर्वाधिकार सुरक्षित

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