यह कहानी उस एक व्यक्ति की है, जिसने अपने जीवन में एक ऐसा मोड़ देखा जिसे कभी उसने सोचा भी नहीं था। एक ऐसा मोड़, जहाँ से पीछे मुड़ना असंभव था, और आगे का रास्ता सिर्फ विनाश की ओर जाता था। वह व्यक्ति था कुरुवंश का सबसे बड़ा और ताकतवर राजकुमार—दुर्योधन।
दुर्योधन का बचपन से ही सत्ता और अधिकारों में लिप्त जीवन था। वह हमेशा से खुद को सर्वोपरि मानता था। जिस समय पांडव अपने संघर्षों से जूझ रहे थे, उस समय दुर्योधन को अपनी राजसी ठाट-बाट और अपार शक्ति पर घमंड था। उसकी आंखों में वह ज्वाला थी जो उसे हर उस व्यक्ति से बड़ा बना देती, जो उसकी सत्ता को चुनौती देने की हिम्मत करता।
लेकिन क्या यह ज्वाला हमेशा जलती रहती है? क्या कभी यह बुझती नहीं?
दुर्योधन ने अपने आसपास उन लोगों को इकट्ठा किया जो उसकी सत्ता को और मजबूत बनाते। जरासंध, शकुनि, कर्ण, दुःशासन—ये सभी उसकी शक्ति के प्रतीक बन चुके थे। शकुनि ने अपनी चालों से उसे विश्वास दिलाया कि जो वह चाहता है, वही होगा। लेकिन वह भूल गया था कि ये चालें और विश्वास उसे सिर्फ उस गर्त की ओर ले जा रहे थे, जहां से वापस आना असंभव था।
जब पांडवों को छल से जुए में हराकर, उनका सारा साम्राज्य हड़प लिया गया, तब दुर्योधन को लगा कि अब उसका आधिपत्य अखंड और अटूट हो गया है। लेकिन, यह सिर्फ शुरुआत थी। पांडवों का वनवास, द्रौपदी का चीर हरण, और इसके बाद की घटनाएँ, सब उसी विनाश का बीज बो रही थीं जिसे दुर्योधन समझ नहीं पाया।
फिर आया महाभारत का युद्ध, एक ऐसा युद्ध जिसमें न सिर्फ धरती बल्कि आकाश भी कांप उठा था। धरती के सबसे बड़े योद्धा एक-एक करके उस युद्ध में गिरने लगे। भीष्म पितामह, जो कभी दुर्योधन के पक्षधर थे, स्वयं ही उस युद्ध में शरशय्या पर लेटे हुए थे। गुरु द्रोण, जिनकी युद्धनीति पर दुर्योधन भरोसा करता था, वह भी इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए।
परंतु सबसे बड़ा आघात तब हुआ, जब कर्ण मारा गया।
कर्ण, जो दुर्योधन के लिए न सिर्फ एक योद्धा बल्कि उसके मित्र, भाई और साथी थे, जब युद्ध में मारा गया तो दुर्योधन की आत्मा अंदर से टूट चुकी थी। उसके पास अब कुछ नहीं बचा था, न सत्ता, न मित्र, न सेना। लेकिन अहंकार, वह अब भी बचा हुआ था, जो उसे सत्य से दूर रखे हुए था।
रणभूमि में जब दुर्योधन की जंघा टूट चुकी थी, वह धरती पर गिरा हुआ था। उसका शरीर खून से लथपथ था, लेकिन उसकी आँखों में अभी भी एक अजीब सा संकल्प था—एक विश्वास, जो उसे अपने अंत से भी आगे देखने पर मजबूर कर रहा था। वह सोचता था कि उसने जो किया, वह सही था।
पर क्या वह वास्तव में सही था?
अंत में, जब उसका अंतिम क्षण आया, तब उसे यह अहसास हुआ कि उसकी हार केवल युद्ध की नहीं थी। उसकी हार उसके अहंकार की थी। वह समझ चुका था कि धर्म और अधर्म के बीच की लड़ाई में, धर्म ही विजयी होता है।
लेकिन यह अंत नहीं था।
दुर्योधन की कहानी केवल उसकी व्यक्तिगत हार की नहीं है। यह उस अहंकार की कहानी है जो समाज में किसी न किसी रूप में जीवित रहता है। क्या आज भी कोई दुर्योधन हमारे आसपास नहीं है? क्या आज भी सत्ता और शक्ति का घमंड हमारे समाज में मौजूद नहीं है? क्या आज भी कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो अपने अहंकार के चलते दूसरों को कुचलने की कोशिश करता है?
कहानी यहीं खत्म नहीं होती, क्योंकि यह केवल एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि एक युग की कहानी है। सत्ता और अहंकार का यह चक्र आज भी किसी न किसी रूप में घूमता रहता है, और यह चक्र कभी नहीं रुकता।
तो क्या यह संभव है कि दुर्योधन आज भी हमारे समाज में जीवित हो, किसी नये रूप में, किसी नये नाम से?