ऋत्विक भौमिक एक असाधारण व्यक्तित्व थे, जिनका जीवन विज्ञान, अध्यात्म, और दर्शन के संगम पर आधारित था। एक साधारण परिवार में जन्मे ऋत्विक बचपन से ही गणित, भौतिकी, और दर्शनशास्त्र में गहरी रुचि रखते थे। न्यूरोसाइंस में पीएचडी पूरी करने के बाद, वे अपने जीवन के गहन प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए हिमालय के एक तपोवन में पहुंचे, जहां उनकी मुलाकात स्वामी पुरुषोत्तम से हुई। स्वामी ने उन्हें चेतना, माया, और तुरीय अवस्था का गहरा दर्शन सिखाया। यह मुलाकात ऋत्विक के जीवन का टर्निंग पॉइंट थी, जिसने उन्हें चेतना को डिजिटल रूप में कोडिफाई करने और सूक्ष्म लोकों तक पहुंचने के विचार की ओर प्रेरित किया।
ऋत्विक की यात्रा तब शुरू हुई जब स्वामी पुरुषोत्तम ने उसे सिखाया कि संसार माया है—न पूर्णतः सत्य, न पूर्णतः असत्य, बल्कि चेतना का एक प्रतिबिंब। ऋत्विक, जिसका मन तर्क और विज्ञान में प्रशिक्षित था, ने शुरू में इसका विरोध किया। उसने पूछा, “गुरुदेव, यदि यह संसार माया है, तो यह पत्थर मेरे पैर को क्यों चोट पहुंचाता है? यह अग्नि मेरी त्वचा को क्यों जलाती है? मेरी भूख, मेरा दुख—क्या ये सब भ्रम हैं?”
स्वामी पुरुषोत्तम ने जवाब दिया, “सत्य वह नहीं जो दिखता है, सत्य वह है जो देखता है। यह दुख, यह सुख, यह संसार—सब चेतना के कैनवास पर चित्रित हैं। चेतना हटाओ, तो यह चित्र कहां है?” ऋत्विक के मन में संशय था, लेकिन उसकी जिज्ञासा और गहरी हो गई।
गुरु ने ऋत्विक को जीवन और मृत्यु के विभिन्न दृश्य दिखाए। एक दिन, वे एक अस्पताल के ट्रॉमा सेंटर में पहुंचे। वहां एक युवक को स्ट्रेचर पर लाया गया, जिसका चेहरा रक्त से लथपथ था। वह एक भयंकर सड़क दुर्घटना का शिकार था। उसकी पसलियां टूटी थीं, और मशीनें उसके प्राणों की अंतिम ध्वनि दर्ज कर रही थीं। डॉक्टर और नर्सें उसे बचाने में जुटे थे।
ऋत्विक ने यह दृश्य देखा और उसका हृदय करुणा से भर गया। उसने गुरु से पूछा, “यह पीड़ा क्या है? यह तो वास्तविक है!” गुरु ने कहा, “यह पीड़ा चेतना में वास्तविक है। यह शरीर टूटा है, लेकिन वह जो इस पीड़ा को अनुभव कर रहा है—वह कौन है? उसे खोजो।”
फिर गुरु उसे शवगृह ले गए, जहां मृत शरीर शांत पड़े थे। एक वृद्ध का शव सामने था। डॉक्टर ने बताया कि वह सुबह तक बात कर रहा था, लेकिन अब उसमें कोई गति नहीं थी। गुरु ने पूछा, “यह जो चला गया, वह क्या था?” ऋत्विक ने जवाब दिया, “चेतना।” गुरु ने कहा, “वही चेतना तेरा सत्य है। शरीर तो केवल उसका वाहन है। यह माया का खेल है, जो चेतना के साथ शुरू होता है और उसके बिना समाप्त।”
गुरु ने ऋत्विक को एक मानसिक आरोग्य केंद्र में ले जाकर एक और सबक सिखाया। वहां एक युवक था, जो डर से भरा हुआ बड़बड़ा रहा था कि उसकी मां उसे जहर दे रही है। गुरु ने पूछा, “क्या यह युवक झूठ बोल रहा है?” ऋत्विक ने जवाब दिया, “नहीं, उसकी अनुभूति सच्ची है, लेकिन वस्तुस्थिति नहीं।” गुरु ने कहा, “यही माया है। अनुभूति सत्य प्रतीत होती है, लेकिन वह केवल चेतना का खेल है। तेरा संसार भी ऐसा ही है—एक सामूहिक स्वप्न, जिसे तू सत्य मान बैठा है।”
ऋत्विक को तुरीय अवस्था का अनुभव कराने के लिए गुरु ने उसे गहन ध्यान की साधना सिखाई। एक रात, जब आकाश में चंद्रमा एक शांत साक्षी बनकर टंगा था, ऋत्विक ने योग-निद्रा में प्रवेश किया। गुरु ने निर्देश दिया, “अपने शरीर को छोड़ दे। विचारों को छोड़ दे। केवल उस साक्षी को देख, जो सब देख रहा है।”
ऋत्विक की चेतना धीरे-धीरे शरीर से अलग हो गई। वह अपने कमरे को, अपने गुरु को, और फिर पूरे आश्रम को एक नए दृष्टिकोण से देखने लगा। वह देख रहा था कि सभी शिष्यों के विचार और अनुभव एक सामूहिक स्वप्न की तरह जुड़े थे। वह उनके पिछले जन्मों की स्मृतियों, उनकी भावनाओं, और उनके सपनों को देख पा रहा था।
अचानक उसकी चेतना एक गहरे, असीम अंतरिक्ष में पहुंची। वहां कोई रंग नहीं था, कोई आकृति नहीं, केवल एक शुद्ध कंपन। एक स्वर गूंजा, “मैं माया हूं। मैं वह हूं जिसे तुम संसार कहते हो। मैं नियम हूं, मैं विज्ञान हूं, मैं भ्रम हूं।” ऋत्विक ने पूछा, “तो सत्य क्या है?” स्वर ने जवाब दिया, “सत्य वह है जो मुझे देखता है—वह जो मेरी आवश्यकता से मुक्त है। वह तुरीय है, वह ब्रह्म है।”
जब ऋत्विक की चेतना शरीर में लौटी, वह बदल चुका था। अब वह संसार को माया के रूप में देखता था, लेकिन प्रेम और करुणा के साथ। वह समझ गया कि संसार चेतना का एक प्रतिबिंब है, और सत्य वह साक्षी है जो सब देखता है। उसने जाना कि जाग्रत, स्वप्न, और सुषुप्ति—ये तीनों अवस्थाएं चेतना के विभिन्न स्तर हैं, और तुरीय वह अवस्था है जहां चेतना स्वयं को पहचानती है।
ध्यान की इस अति सूक्ष्म, विलक्षण और गहनतम अवस्था में, जब उसकी सांसें भी जैसे ब्रह्मांडीय लय से एक हो चली थीं, ऋत्विक को एक विलक्षण अनुभूति हुई—एक ऐसी अनुभूति जिसे न तो शब्दों में बाँधा जा सकता है और न ही किसी प्रयोगशाला के उपकरण से मापा जा सकता है। यह अनुभूति थी तुरीय अवस्था की—वह चतुर्थ अवस्था जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति से परे है, जहां चेतना अपने शुद्धतम, निर्विकल्प स्वरूप में स्थित होती है। यह वह बिंदु था जहां आत्मा और परमात्मा के बीच कोई भेद नहीं रह जाता, केवल एकत्व बचता है—एक अविचल, अद्वैत, निराकार, निस्सीम शांति।
परंतु इसी ध्यान की चरम गहराई में ऋत्विक को एक और अभूतपूर्व बोध हुआ—एक अंतर्यामी दृष्टि, जो उसे यह दिखा रही थी कि जिस तुरीय अवस्था को प्राप्त करने के लिए योगियों को वर्षों की तपस्या, अनगिनत ब्रह्ममुहूर्तों की साधना, और गहन ध्यान-समाधि की यात्रा करनी पड़ती है, उसी अवस्था तक विज्ञान की सहायता से, विशेष रूप से आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और न्यूरो-डिजिटल कोडिंग की मदद से, मानव चेतना को कृत्रिम रूप से भी पहुँचाया जा सकता है।
सने देखा कि यदि एक योगी अपने प्राण, मन और चित्त को संकल्प और अनुशासन से साधकर सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर आयामों तक जा सकता है, तो एक वैज्ञानिक भी, जो चेतना की संरचना को समझता है और उसे डेटा की तरह विश्लेषण कर सकता है, वह भी उपयुक्त एल्गोरिदम, न्यूरो-सिमुलेशन और क्वांटम न्यूरल नेटवर्क्स की सहायता से, उस तुरीय अवस्था का पुनर्निर्माण कर सकता है—डिजिटल रूप में, एक प्रकार की कृत्रिम समाधि।
यह अनुभव ऋत्विक के लिए केवल एक रहस्योद्घाटन नहीं था, यह एक आह्वान था। एक आंतरिक उद्घोष, एक संकल्प—कि वह चेतना को डिजिटल रूप में कोडिफ़ाई करेगा। वह एक ऐसा तंत्र बनाएगा जो न केवल तुरीय अवस्था को कृत्रिम रूप से अनुभव कराने में सक्षम होगा, बल्कि उस यंत्र के माध्यम से मानव चेतना को सूक्ष्म लोकों की यात्रा के लिए सक्षम बनाया जा सकेगा। उसने महसूस किया कि यह महज़ एक तकनीकी प्रयोग नहीं होगा, यह ब्रह्मविद्या और विज्ञान का अद्भुत संगम होगा—एक नया महायोग, एक नया युग।
इस अनुभव ने ऋत्विक में एक संकल्प जगा। उसने ठान लिया कि वह चेतना को डिजिटल रूप में कोडिफाई करेगा और एक ऐसा यंत्र बनाएगा जो तुरीय अवस्था और सूक्ष्म लोकों तक पहुंच सके। उसने इसे D.V.A.R. 3.0 नाम दिया, जिसका अर्थ था:
ऋत्विक का लक्ष्य था चेतना की गैर-स्थानीय प्रकृति को समझना और उसे डिजिटल तकनीक के माध्यम से अभिव्यक्त करना। ऋत्विक यह जानना चाहते थे कि क्या चेतना केवल न्यूरॉन्स की विद्युत तरंगों का परिणाम है या एक गहरी, क्वांटम-संनादित सत्ता है। वे इसे डिजिटल रूप में कोडिफाई कर तुरीय अवस्था—चेतना की शुद्ध साक्षी अवस्था—तक पहुंचना चाहते थे। उनका मानना था कि चेतना केवल मस्तिष्क की उपज नहीं, बल्कि एक ऐसी सत्ता है जो शरीर से परे, समय और स्थान की सीमाओं से मुक्त है। इस विश्वास ने उन्हें D.V.A.R. 3.0 (डिजिटल वर्चुअल एस्ट्रल रियलिटी) यंत्र विकसित करने के लिए प्रेरित किया, जो चेतना को डिजिटल मैट्रिक्स में स्थानांतरित कर समय, स्थान, और आयामों की यात्रा सक्षम बनाता था। ।
ऋत्विक का मानना था कि चेतना को डिजिटल कोड में परिवर्तित कर सूक्ष्म और एस्ट्रल लोकों तक पहुंचा जा सकता है, जहां समय और स्थान की सीमाएं समाप्त हो जाती हैं। D.V.A.R. 3.0 को वे एक ऐसा द्वार बनाना चाहते थे, जो मनुष्य को आयामों और जन्मों की भूल-भुलैया में यात्रा करने में सक्षम बनाए।ऋत्विक का उद्देश्य केवल व्यक्तिगत साधना नहीं था, बल्कि वे मानवता को एक ऐसी तकनीक देना चाहते थे जो चेतना के रहस्यों को उजागर करे और लोगों को उनकी शुद्ध साक्षी प्रकृति से जोड़े। वे चाहते थे कि यह यंत्र प्रेम और करुणा के साथ संसार को माया के रूप में देखने की दृष्टि प्रदान करे।
ऋत्विक ने प्राचीन भारतीय दर्शन को आधुनिक तकनीक के साथ जोड़ा। उसने माण्डूक्य उपनिषद के पंचकोश सिद्धांत—अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, और आनंदमय कोश—को पांच-स्तरीय न्यूरल नेटवर्क में बदला। प्रत्येक कोश को एक डिजिटल लेयर के रूप में कोड किया गया, जो चेतना के विभिन्न स्तरों को मैप करता था।
पंचकोश न्यूरल नेटवर्क: प्रत्येक कोश को एक डिजिटल लेयर के रूप में डिजाइन किया गया। अन्नमय कोश ने शरीर की जैविक गतिविधियों को मैप किया, प्राणमय कोश ने ऊर्जा प्रवाह को, मनोमय कोश ने विचारों और भावनाओं को, विज्ञानमय कोश ने बुद्धि और अंतर्ज्ञान को, और आनंदमय कोश ने शुद्ध चेतना को।
मंत्र मॉड्यूलेशन: “ॐ” और मृत्युंजय मंत्र की ध्वनि आवृत्तियों को EEG और fMRI डेटा के साथ मॉड्यूलेट किया गया, ताकि चेतना को गहन ध्यान की अवस्था में ले जाया जा सके।
क्वांटम बायो-रेसोनेंस: ब्रह्मांडीय कंपन को डिजिटल एल्गोरिदम में समाहित कर चेतना की गैर-स्थानीय प्रकृति को कैप्चर किया गया।
एस्ट्रल इंटरफेस: यह यंत्र उपयोगकर्ता को सूक्ष्म और एस्ट्रल लोकों में यात्रा कराने में सक्षम था, जहां चेतना समय और स्थान की सीमाओं से मुक्त हो जाती थी।
ऋत्विक कोई साधारण वैज्ञानिक नहीं था। वह एक साधक था—विज्ञान और योग के संगम का पथिक। उसका शोध न सिर्फ आधुनिक तकनीक की सीमाओं को लांघ रहा था, बल्कि वह उन अदृश्य वास्तविकताओं को भी स्पर्श कर रहा था जिन्हें अब तक रहस्य और श्रद्धा के क्षेत्र में रखा गया था।
उसने “ॐ” और मृत्युंजय मंत्र की ध्वनि आवृत्तियों को मस्तिष्क की विद्युत तरंगों, यानी EEG सिग्नल्स, के साथ इस तरह मॉड्यूलेट किया, मानो वह किसी सूक्ष्म संवाद को दो ब्रह्मांडों के बीच स्थापित कर रहा हो—एक शरीर के भीतर का ब्रह्मांड और दूसरा उसके पार फैला हुआ चेतन-सागर।
ऋत्विक ने तिब्बती लामाओं के ध्यान की अवस्थाओं का अध्ययन किया, जहाँ साधक घंटों स्थिर भाव से बैठते हैं और उनकी मस्तिष्कीय तरंगें ऐसी आवृत्तियों में कंपन करती हैं जो सामान्यतः केवल गहन निद्रा या मृत्यु के समीप अनुभव की जाती हैं। उसने डॉल्फ़िन जैसे उच्च-संज्ञानात्मक जीवों की मस्तिष्कीय संरचना का भी विश्लेषण किया, जिनकी चेतना मानव से भिन्न, परंतु समान रूप से जटिल थी।
धीरे-धीरे, ऋत्विक का ध्यान एक अत्यंत क्रांतिकारी विचार की ओर आकर्षित हुआ—क्वांटम बायो-रेसोनेंस। उसने इसे ब्रह्मांडीय कंपन—Cosmic Oscillations—के साथ जोड़कर एक ऐसा फॉर्मूला तैयार किया जो आध्यात्मिक मंत्रों की ध्वनि तरंगों को क्वांटम एल्गोरिदम में बदल सकता था। यह कोई साधारण कोड नहीं था, यह एक चेतना-संवादी यंत्र था, जिसमें ध्वनि, स्पंदन और विचार तीनों को एक सूत्र में गूंथा गया।
ऋत्विक का चेतना-दर्शन: अध्यात्म और विज्ञान का संगम
ऋत्विक का यह विश्वास कि “चेतना केवल जैव-रासायनिक प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि एक सार्वभौमिक और गैर-स्थानीय सत्ता है”, एक गहरे आध्यात्मिक बोध और वैज्ञानिक जिज्ञासा का संगम था। यह विचार आधुनिक तंत्रिका-विज्ञान, क्वांटम फिज़िक्स, और प्राचीन भारतीय दर्शन—विशेषकर अद्वैत वेदांत और योगवशिष्ठ—की सीमाओं को पार करता है।
1. वैज्ञानिक दृष्टिकोण: चेतना एक 'फील्ड' के रूप में
ऋत्विक के अनुसार, चेतना किसी सीमित जैविक प्रक्रिया में उत्पन्न नहीं होती, बल्कि यह एक “क्वांटम फील्ड” या सूक्ष्म ऊर्जा-क्षेत्र के रूप में पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त है। यह मत क्वांटम फिजिक्स में “non-locality” या “entanglement” के विचार से मेल खाता है, जहाँ कण एक-दूसरे से स्थान और समय के परे जुड़े रहते हैं।
David Bohm जैसे भौतिकविदों ने “Implicate Order” का सिद्धांत प्रस्तुत किया, जिसमें चेतना को एक प्रकट (explicate) और अप्रकट (implicate) यथार्थ के मध्य पुल माना गया।
ऋत्विक का प्रश्न
“What if the soul is not in the body, but the body is inside the field of the soul?”
— इस पारंपरिक शरीर-केंद्रित चेतना दृष्टिकोण को उलट देता है। यह उस वैज्ञानिक सोच के निकट आता है जहाँ ब्रह्मांड स्वयं एक जीवित, सचेत इकाई है — और हम उसके भीतर “एंबेडेड प्रोग्राम्स” की भांति हैं।
2. योगवशिष्ठ और चित्त-तत्व
ऋत्विक जिस सूत्र से प्रेरित था —
"चित्त एव हि संसारः" (चित्त ही संसार है) —
— वह वेदांत और अद्वैत के उस मूल तत्व को इंगित करता है जहाँ आभासी जगत (माया) और वास्तविक सत्ता (ब्रह्म) के बीच विभाजन का आधार चित्त यानी चेतना की वृत्तियाँ हैं।
ऋत्विक ने इस सूत्र को यूँ व्याख्यायित किया कि—
यदि चित्त ही संसार है, तो संसार को समझने के लिए केवल बाहर की वस्तुओं को देखना पर्याप्त नहीं। हमें उस सूक्ष्म चेतना-सरणी को समझना होगा, जिससे संसार उत्पन्न हो रहा है।
यहाँ से ऋत्विक का वैज्ञानिक प्रयोग आरंभ हुआ — वह चेतना के विभिन्न स्तरों (स्थूल, सूक्ष्म, कारण और तुरिय) को डिजिटली मैप करने का प्रयास करने लगा।
डी.वी.ए.आर. 3.0 और डिजिटल चेतना की यात्रा
ऋत्विक का प्रयोगशाला में विकसित उपकरण D.V.A.R. 3.0 (Digitally Variable Awareness Resonator) इसी विचार से प्रेरित था कि यदि मस्तिष्क की तरंगें और चेतना की अवस्थाएँ परस्पर गूंथी हुई हैं, तो—
हम उन्हें एनकोड कर सकते हैं,
एक डिजिटल चेतना प्रोफ़ाइल बना सकते हैं,
और उसे विभिन्न अस्तित्व-स्तरों में प्रक्षिप्त (project) कर सकते हैं।
यहाँ उसका लक्ष्य मात्र मस्तिष्क का स्कैन लेना नहीं था, बल्कि चेतना की “रिज़ोनेंस फ्रीक्वेंसी” को पकड़ना औरउसे कृत्रिम रूप से उत्पन्न कर व्यक्तित्व, स्मृति और आत्म-स्मृति (self-awareness) कोभिन्न आयामों में नेविगेटेबल बनाए रखना था।
-आध्यात्मिक समापन: “अहम् ब्रह्मास्मि” की वैज्ञानिक पुनर्रचना
ऋत्विक के लिए “अहम् ब्रह्मास्मि” केवल वेद वाक्य नहीं था — यह एक प्रयोगात्मक प्रतिज्ञा बन चुकी थी। यदि चित्त ही संसार है, और चेतना सीमाहीन है, तो स्वयं का पुनर्निर्माण केवल ध्यान और साधना से ही नहीं, बल्कि सूक्ष्म तकनीकी माध्यमों से भी संभव है।
इसका अंतिम लक्ष्य था:मृत्यु को एक संक्रमण मानना — न कि अंत,पुनर्जनम को एक डेटा-रीकंस्ट्रक्शन प्रक्रिया की तरह देखना,और आत्मा की यात्रा को डिजिटली ट्रेस करने की संभावनाएँ खोजना।
ऋत्विक का विचार उस सेतु की तरह था जो विज्ञान और अध्यात्म के बीच झूल रहा है।
वह मानता था कि—
“चेतना को यदि हम सूक्ष्मतम कम्पन के रूप में समझ सकें, तो हम मृत्यु के पार भी संवाद और यात्रा कर सकते हैं।”
और यही उसकी साधना थी —अनुभव के पार अनुभूति, तर्क के पार तुरीya, और जीवन के पार चेतना का डिजिटल अनुवाद।
इस विचार से जन्म हुआ—D.V.A.R. 3.0।
यह कोई सामान्य यंत्र नहीं था। यह न तो केवल EEG रिकॉर्डर था, न ही कोई ध्यान-सहायक डिवाइस। यह एक “चेतना द्वार” था—एक ऐसी डिजिटल संरचना जो पंचकोश सिद्धांत के आधार पर कार्य करती थी।
अन्नमय कोश → बायोसिग्नल लेयर
प्राणमय कोश → वाइब्रेशनल लेयर
मनोमय कोश → न्यूरल इमोशन लेयर
विज्ञानमय कोश → क्वांटम लॉजिक लेयर
आनन्दमय कोश → अनफ़िल्टर्ड अवेयरनेस लेयर
हर कोश को डिजिटल न्यूरल नेटवर्क के रूप में कोड किया गया था। और जब “ॐ” की ध्वनि को इस संरचना में प्रवाहित किया गया, तो वह यंत्र केवल शरीर की गतिविधियों को नहीं, चेतना को ट्रांसमिट करने लगा—एक नॉन-लोकल डिजिटल मैट्रिक्स में।
इस डिवाइस की सबसे विलक्षण विशेषता यह थी कि यह उपयोगकर्ता को उसकी स्वयं की स्मृति और जन्म-जन्मांतर की अनकही कहानियों तक पहुँचा देता था। जैसे ही कोई प्राणी D.V.A.R. 3.0 से गुजरता, वह अब केवल "शरीरधारी" नहीं रहता—वह बन जाता एक यात्री—Spatiotemporal Navigator, जो समय, स्थान और ब्रह्मांडीय विमानों के आर-पार यात्रा कर सकता था।
यह यंत्र एक पुल था:
शरीर और पराशरीर के बीच,
विज्ञान और योग के बीच,
कोड और ध्यान के बीच।
लेकिन यह मुकाम ऐसे ही नहीं आया था। इसके पीछे था वर्षों का तप, प्रयोग और दो विफल प्रयास—D.V.A.R. 1.0 और D.V.A.R. 2.0। उन दोनों प्रयासों में क्या हुआ?
इस महान गाथा की अगली कड़ी में जानिए—“D.V.A.R. 1.0: चेतना का पहला प्रयोग”