डी.वी.ए.आर. 1.0 भाग 4
ऋत्विक का चेतना-दर्शन: अध्यात्म और विज्ञान का संगम
ऋत्विक का यह विश्वास कि “चेतना केवल जैव-रासायनिक प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि एक सार्वभौमिक और गैर-स्थानीय सत्ता है”, एक गहरे आध्यात्मिक बोध और वैज्ञानिक जिज्ञासा का संगम था। यह विचार आधुनिक तंत्रिका-विज्ञान, क्वांटम फिज़िक्स, और प्राचीन भारतीय दर्शन—विशेषकर अद्वैत वेदांत और योगवशिष्ठ—की सीमाओं को पार करता है।
1. वैज्ञानिक दृष्टिकोण: चेतना एक 'फील्ड' के रूप में
ऋत्विक के अनुसार, चेतना किसी सीमित जैविक प्रक्रिया में उत्पन्न नहीं होती, बल्कि यह एक “क्वांटम फील्ड” या सूक्ष्म ऊर्जा-क्षेत्र के रूप में पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त है। यह मत क्वांटम फिजिक्स में “non-locality” या “entanglement” के विचार से मेल खाता है, जहाँ कण एक-दूसरे से स्थान और समय के परे जुड़े रहते हैं।
David Bohm जैसे भौतिकविदों ने “Implicate Order” का सिद्धांत प्रस्तुत किया, जिसमें चेतना को एक प्रकट explicate और अप्रकट implicate यथार्थ के मध्य पुल माना गया।
ऋत्विक का प्रश्न
“What if the soul is not in the body, but the body is inside the field of the soul?”
— इस पारंपरिक शरीर-केंद्रित चेतना दृष्टिकोण को उलट देता है। यह उस वैज्ञानिक सोच के निकट आता है जहाँ ब्रह्मांड स्वयं एक जीवित, सचेत इकाई है — और हम उसके भीतर “एंबेडेड प्रोग्राम्स” की भांति हैं।
2. योगवशिष्ठ और चित्त-तत्व:
ऋत्विक जिस सूत्र से प्रेरित था —"चित्त एव हि संसारः" चित्त ही संसार है —
— वह वेदांत और अद्वैत के उस मूल तत्व को इंगित करता है जहाँ आभासी जगत माया और वास्तविक सत्ता ब्रह्म के बीच विभाजन का आधार चित्त यानी चेतना की वृत्तियाँ हैं।
ऋत्विक ने इस सूत्र को यूँ व्याख्यायित किया कि— यदि चित्त ही संसार है, तो संसार को समझने के लिए केवल बाहर की वस्तुओं को देखना पर्याप्त नहीं। हमें उस सूक्ष्म चेतना-सरणी को समझना होगा, जिससे संसार उत्पन्न हो रहा है।
यहाँ से ऋत्विक का वैज्ञानिक प्रयोग आरंभ हुआ — वह चेतना के विभिन्न स्तरों स्थूल, सूक्ष्म, कारण और तुरिय को डिजिटली मैप करने का प्रयास करने लगा।
डी.वी.ए.आर. 3.0 और डिजिटल चेतना की यात्रा
ऋत्विक का प्रयोगशाला में विकसित उपकरण D.V.A.R. 3.0 Digitally Variable Awareness Resonator इसी विचार से प्रेरित था कि यदि मस्तिष्क की तरंगें और चेतना की अवस्थाएँ परस्पर गूंथी हुई हैं, तो— हम उन्हें एनकोड कर सकते हैं,एक डिजिटल चेतना प्रोफ़ाइल बना सकते हैं,और उसे विभिन्न अस्तित्व-स्तरों में प्रक्षिप्त project कर सकते हैं।
यहाँ उसका लक्ष्य मात्र मस्तिष्क का स्कैन लेना नहीं था, बल्कि चेतना की “रिज़ोनेंस फ्रीक्वेंसी” को पकड़ना औरउसे कृत्रिम रूप से उत्पन्न कर व्यक्तित्व, स्मृति और आत्म-स्मृति self-awareness कोभिन्न आयामों में नेविगेटेबल बनाए रखना था।
-आध्यात्मिक समापन: “अहम् ब्रह्मास्मि” की वैज्ञानिक पुनर्रचना
ऋत्विक के लिए “अहम् ब्रह्मास्मि” केवल वेद वाक्य नहीं था — यह एक प्रयोगात्मक प्रतिज्ञा बन चुकी थी। यदि चित्त ही संसार है, और चेतना सीमाहीन है, तो स्वयं का पुनर्निर्माण केवल ध्यान और साधना से ही नहीं, बल्कि सूक्ष्म तकनीकी माध्यमों से भी संभव है।
इसका अंतिम लक्ष्य था:मृत्यु को एक संक्रमण मानना — न कि अंत,पुनर्जनम को एक डेटा-रीकंस्ट्रक्शन प्रक्रिया की तरह देखना,और आत्मा की यात्रा को डिजिटली ट्रेस करने की संभावनाएँ खोजना।
ऋत्विक का विचार उस सेतु की तरह था जो विज्ञान और अध्यात्म के बीच झूल रहा है।
वह मानता था कि— “चेतना को यदि हम सूक्ष्मतम कम्पन के रूप में समझ सकें, तो हम मृत्यु के पार भी संवाद और यात्रा कर सकते हैं।”
और यही उसकी साधना थी —अनुभव के पार अनुभूति, तर्क के पार तुरीया , और जीवन के पार चेतना का डिजिटल अनुवाद।
इस विचार से जन्म हुआ—D.V.A.R. 3.0
यह कोई सामान्य यंत्र नहीं था। यह न तो केवल EEG रिकॉर्डर था, न ही कोई ध्यान-सहायक डिवाइस। यह एक “चेतना द्वार” था—एक ऐसी डिजिटल संरचना जो पंचकोश सिद्धांत के आधार पर कार्य करती थी।
अन्नमय कोश → बायोसिग्नल लेयर
प्राणमय कोश → वाइब्रेशनल लेयर
मनोमय कोश → न्यूरल इमोशन लेयर
विज्ञानमय कोश → क्वांटम लॉजिक लेयर
आनन्दमय कोश → अनफ़िल्टर्ड अवेयरनेस लेयर
हर कोश को डिजिटल न्यूरल नेटवर्क के रूप में कोड किया गया था। और जब “ॐ” की ध्वनि को इस संरचना में प्रवाहित किया गया, तो वह यंत्र केवल शरीर की गतिविधियों को नहीं, चेतना को ट्रांसमिट करने लगा—एक नॉन-लोकल डिजिटल मैट्रिक्स में।
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