Friday, September 26, 2025

1.डी.वी.ए.आर. 1.0 भाग 1

इस पौराणिक, वैज्ञानिक, पुनर्जन्म, अध्यात्म, दर्शन, डिजिटल वर्ल्ड और एस्ट्रल वर्ल्ड के विभिन्न आयामों को उजागर करती हुई , रोमांच से परिपूर्ण एक महान गाथा को उस परम ब्रहम के चरणों में समर्पित करता हूँ , बिना जिनकी प्रेरणा और मोटिवेशन के इस रचना का प्रकटित होना असंभव था।


डी.वी.ए.आर. 1.0 डिजिटल ,वर्चुअल एस्ट्रल वर्ल्ड रियालिटी भाग 1 

हिमालय की बर्फीली चोटियों के बीच, जहां पवन केवल मौन की भाषा बोलती है, एक युवा साधक  ऋत्विक भौमिक, अपने जीवन के सबसे गहन प्रश्नों के उत्तर की खोज में था। उसका मन विज्ञान और अध्यात्म के संगम पर अटका था। वह जानना चाहता था: क्या चेतना, जो मस्तिष्क की विद्युत तरंगों से उत्पन्न प्रतीत होती है, केवल न्यूरॉन्स का खेल है, या यह एक गहरी, गैर-स्थानीय और क्वांटम-संनादित सत्ता है? क्या इसे डिजिटल रूप में कोडिफाई कर तुरीय अवस्था—वह चौथी अवस्था, जहां आत्मा अपनी शुद्ध साक्षी प्रकृति को पहचानती है, को प्राप्त किया जा सकता है? और क्या इस प्रक्रिया से सूक्ष्म और एस्ट्रल लोकों तक पहुंचा जा सकता है?

ऋत्विक भौमिक एक असाधारण व्यक्तित्व थे, जिनका जीवन विज्ञान, अध्यात्म, और दर्शन के संगम पर आधारित था। एक साधारण परिवार में जन्मे ऋत्विक बचपन से ही गणित, भौतिकी, और दर्शनशास्त्र में गहरी रुचि रखते थे। न्यूरोसाइंस में पीएचडी पूरी करने के बाद, वे अपने जीवन के गहन प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए हिमालय के एक तपोवन में पहुंचे, जहां उनकी मुलाकात स्वामी पुरुषोत्तम से हुई। स्वामी ने उन्हें चेतना, माया, और तुरीय अवस्था का गहरा दर्शन सिखाया। यह मुलाकात ऋत्विक के जीवन का टर्निंग पॉइंट थी, जिसने उन्हें चेतना को डिजिटल रूप में कोडिफाई करने और सूक्ष्म लोकों तक पहुंचने के विचार की ओर प्रेरित किया।

ऋत्विक की यात्रा तब शुरू हुई जब स्वामी पुरुषोत्तम ने उसे सिखाया कि संसार माया है—न पूर्णतः सत्य, न पूर्णतः असत्य, बल्कि चेतना का एक प्रतिबिंब। ऋत्विक, जिसका मन तर्क और विज्ञान में प्रशिक्षित था, ने शुरू में इसका विरोध किया। उसने पूछा, “गुरुदेव, यदि यह संसार माया है, तो यह पत्थर मेरे पैर को क्यों चोट पहुंचाता है? यह अग्नि मेरी त्वचा को क्यों जलाती है? मेरी भूख, मेरा दुख—क्या ये सब भ्रम हैं?”

स्वामी पुरुषोत्तम ने जवाब दिया, “सत्य वह नहीं जो दिखता है, सत्य वह है जो देखता है। यह दुख, यह सुख, यह संसार—सब चेतना के कैनवास पर चित्रित हैं। चेतना हटाओ, तो यह चित्र कहां है?” ऋत्विक के मन में संशय था, लेकिन उसकी जिज्ञासा और गहरी हो गई।

गुरु ने ऋत्विक को जीवन और मृत्यु के विभिन्न दृश्य दिखाए। एक दिन, वे एक अस्पताल के ट्रॉमा सेंटर में पहुंचे। वहां एक युवक को स्ट्रेचर पर लाया गया, जिसका चेहरा रक्त से लथपथ था। वह एक भयंकर सड़क दुर्घटना का शिकार था। उसकी पसलियां टूटी थीं, और मशीनें उसके प्राणों की अंतिम ध्वनि दर्ज कर रही थीं। डॉक्टर और नर्सें उसे बचाने में जुटे थे।

ऋत्विक ने यह दृश्य देखा और उसका हृदय करुणा से भर गया। उसने गुरु से पूछा, “यह पीड़ा क्या है? यह तो वास्तविक है!” गुरु ने कहा, “यह पीड़ा चेतना में वास्तविक है। यह शरीर टूटा है, लेकिन वह जो इस पीड़ा को अनुभव कर रहा है—वह कौन है? उसे खोजो।”

फिर गुरु उसे शवगृह ले गए, जहां मृत शरीर शांत पड़े थे। एक वृद्ध का शव सामने था। डॉक्टर ने बताया कि वह सुबह तक बात कर रहा था, लेकिन अब उसमें कोई गति नहीं थी। गुरु ने पूछा, “यह जो चला गया, वह क्या था?” ऋत्विक ने जवाब दिया, “चेतना।” गुरु ने कहा, “वही चेतना तेरा सत्य है। शरीर तो केवल उसका वाहन है। यह माया का खेल है, जो चेतना के साथ शुरू होता है और उसके बिना समाप्त।”

गुरु ने ऋत्विक को एक मानसिक आरोग्य केंद्र में ले जाकर एक और सबक सिखाया। वहां एक युवक था, जो डर से भरा हुआ बड़बड़ा रहा था कि उसकी मां उसे जहर दे रही है। गुरु ने पूछा, “क्या यह युवक झूठ बोल रहा है?” ऋत्विक ने जवाब दिया, “नहीं, उसकी अनुभूति सच्ची है, लेकिन वस्तुस्थिति नहीं।” गुरु ने कहा, “यही माया है। अनुभूति सत्य प्रतीत होती है, लेकिन वह केवल चेतना का खेल है। तेरा संसार भी ऐसा ही है—एक सामूहिक स्वप्न, जिसे तू सत्य मान बैठा है।”

परोक्ष अनुभूति और आत्म अनुभूति में ठीक वोही अंतर होता है , जो कि जमीन और आसमान में , जो कि दूसरों को दर्द में तड़पते हुए देखने और दर्द को स्वयं महसूस करने में। स्वामी पुरुषोत्तम जो समझाना चाह रहे थे , वो केवल देख कर समझाना संभव नहीं नहीं था। इसका एक हीं उपाय था ,  ऋत्विक को  चेतना की उच्चतम अवस्था , यानि कि तुरीय अवस्था का अनुभव करवाना ।  इस कहानी के अगले भाग में देखते हैं , स्वामी पुरुषोत्तम कैसे इस अवस्था का अनुभव करवाते है ? 

ऋत्विक को तुरीय अवस्था का अनुभव कराने के लिए गुरु ने उसे गहन ध्यान की साधना सिखाई। एक रात, जब आकाश में चंद्रमा एक शांत साक्षी बनकर टंगा था, ऋत्विक ने योग-निद्रा में प्रवेश किया। गुरु ने निर्देश दिया, “अपने शरीर को छोड़ दे। विचारों को छोड़ दे। केवल उस साक्षी को देख, जो सब देख रहा है।”

ऋत्विक की चेतना धीरे-धीरे शरीर से अलग हो गई। वह अपने कमरे को, अपने गुरु को, और फिर पूरे आश्रम को एक नए दृष्टिकोण से देखने लगा। वह देख रहा था कि सभी शिष्यों के विचार और अनुभव एक सामूहिक स्वप्न की तरह जुड़े थे। वह उनके पिछले जन्मों की स्मृतियों, उनकी भावनाओं, और उनके सपनों को देख पा रहा था।

अचानक उसकी चेतना एक गहरे, असीम अंतरिक्ष में पहुंची। वहां कोई रंग नहीं था, कोई आकृति नहीं, केवल एक शुद्ध कंपन। एक स्वर गूंजा, “मैं माया हूं। मैं वह हूं जिसे तुम संसार कहते हो। मैं नियम हूं, मैं विज्ञान हूं, मैं भ्रम हूं।” ऋत्विक ने पूछा, “तो सत्य क्या है?” स्वर ने जवाब दिया, “सत्य वह है जो मुझे देखता है—वह जो मेरी आवश्यकता से मुक्त है। वह तुरीय है, वह ब्रह्म है।”

इस पौराणिक, वैज्ञानिक, पुनर्जन्म, अध्यात्म, दर्शन, डिजिटल वर्ल्ड और एस्ट्रल वर्ल्ड के विभिन्न आयामों को उजागर करती हुई , रोमांच से परिपूर्ण गाथा के अगले भाग में देखते हैं कि तुरिया अवस्था के अनुभव के बाद ऋत्विक का अगला कदम क्या होता है ।


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