Friday, July 25, 2025

अपमान या सम्मान ?

 एक दिन पंडित जी मंदिर के द्वार पर खड़े होकर बारिश का आनंद ले रहे थे। उनके चेहरे पर वैसा ही संतोष था जैसे किसी ने मुफ्त में खीर का भोग दे दिया हो। हाथ पीछे बाँधकर, पेट थोड़ा आगे निकालकर, वह पानी की हर बूँद को ऐसे निहार रहे थे जैसे बूँदें नहीं, स्वर्ग से आशीर्वाद की किश्तें गिर रही हों।

तभी एक भक्त, बड़ी तेजी से बारिश से बचने के लिए मंदिर की ओर भागा चला आ रहा था।

पंडित जी ने भौंहें तानकर उसे टोका,"अरे नादान! यह क्या कर रहे हो?ईश्वर इतनी श्रद्धा से अमृत बरसा रहे हैं, और तुम उससे भाग रहे हो?कुछ तो श्रद्धा रखो! भीगो... आत्मा तक भीगो!"

भक्त शरमा गया। सोचने लगा – पंडित जी सही कह रहे हैं, ईश्वर की बारिश है, बारिश में भींगना पुण्य का काम  होगा! वह वहीं रुक गया। आँखें बंद कीं। बाहें फैलाईं। और ईश्वर की बारिश का आनंद लेने लगा।


नतीजा?तीन दिन बाद उसकी आत्मा तो नहीं, लेकिन छाती जरूर भीग गई।खाँसी, जुकाम, और बुखार ने ऐसा संगत जमाया कि बिस्तर उसका तीर्थ बन गया।

एक दिन, वही भक्त खिड़की के पास बैठा था — कम्बल में लिपटा हुआ, अदरक वाली चाय और तुलसी की कसमों के सहारे जीवित। बाहर बारिश हो रही थी — वही ईश्वर वाली बारिश।

तभी, वो क्या देखता है?

पंडित जी धोती उठाकर, छाता सिर पर ताने, चप्पलों को पानी से बचाते हुए मंदिर की ओर भागे जा रहे हैं, जैसे धरती गीली हो गई तो मोक्ष रुक जाएगा!

भक्त ने मुस्कराते हुए टोका,"पंडित जी! यह क्या कर रहे हैं आप?ईश्वर इतनी श्रद्धा से बारिश बरसा रहे हैं, और आप उससे बच रहे हैं?कहाँ गई आपकी श्रद्धा?"

पंडित जी रुके। झल्लाए नहीं, मुस्कराए। बोले —"अरे मुर्ख!ईश्वर इतनी श्रद्धा से बारिश बरसा रहें  है, और मैं  कोशिश कर रहा हूँ कि बारिश का पानी मेरे पैर ना छुए।  अब तुम ही बताओ —मैं उनका अपमान कर रहा हूँ या सम्मान ?

No comments:

Post a Comment

My Blog List

Followers

Total Pageviews