कचहरी नंबर छह में गर्मियों की दोपहरी वैसे भी भारी लगती थी, ऊपर से अगर बिजली भी चली जाए तो न्याय की देवी खुद भी पसीना-पसीना हो जाती हैं। ऐसे ही एक दिन, जब पंखा झपक-झपक कर चल रहा था और स्टेनो अपनी कुर्सी पर नींद और होश के बीच झूल रहा था, न्यायाधीश श्रीमान वर्मा ने चश्मा ठीक करते हुए गरजते स्वर में कहा,
“अगला मामला पेश किया जाए!”
स्टेनो ने ऊंघते हुए नाम पुकारा, “वकील श्री हरिश्चंद्र बनाम यथास्थिति...”
तभी दरवाज़ा धड़ाम से खुला और एक दुबले-पतले, गठीले, परंतु अत्यंत जोशीले इंसान ने अदालत में प्रवेश किया। कोट ऐसा जैसे पुराने ज़माने के स्वतंत्रता सेनानियों की वर्दी हो, जूते पर पॉलिश का दूर-दूर तक नामोनिशान नहीं, और हाथ में एक मोटी फाइल जिसे देखकर किसी को भी भ्रम हो जाए कि मामला शायद सुप्रीम कोर्ट तक गया होगा।
वह थे वकील श्री मित्तल साहब—मोहल्ले के सबसे ईमानदार, सबसे तर्कशील और सबसे अकेले वकील।
“माई लॉर्ड,” मित्तल साहब ने कहा, “मैं आज आपके सामने एक ऐसा मुद्दा रखने जा रहा हूँ, जो न केवल न्याय का बल्कि इंसानियत का भी सवाल है!”
माई लॉर्ड, यह कोई साधारण मुकदमा नहीं है। यह उस मौन, उस चुप्पी, उस अनदेखी के खिलाफ एक अपील है जिसे हम 'यथास्थिति' कहकर टालते आ रहे हैं।”
“माई लॉर्ड,” उन्होंने ऊँची आवाज़ में कहा, “जब व्यवस्था स्वयं निष्क्रिय हो जाए, जब अन्याय को 'सिस्टम' कहकर स्वीकार लिया जाए, जब हर नुक्कड़, हर गलियारे में न्याय ठिठककर खड़ा हो जाए, तब क्या एक साधारण नागरिक को यह अधिकार नहीं कि वह न्यायालय की शरण में आए?”
जज साहब ने कौतुक से चश्मे के ऊपर से झांका, “बहुत अच्छा, शुरू कीजिए। आपकी दलील बड़ी आक्रामक लग रही है।”
मित्तल साहब ने सीना तानते हुए कहा, “माई लॉर्ड, आक्रामकता ही तो मेरी इकलौती पूँजी है। मुवक्किल होते तो कुछ और बात होती!”
जज साहब ने अपनी पीठ कुर्सी से टिकाई और बोले—
“मगर मानना पड़ेगा, मित्तल साहब , आप इतने कम मुवक्किल पर ही इतने आक्रामक हो गए हैं, तो सोच रहा हूँ—अगर आपके पास दो मुवक्किल होते, तो आप क्या करते?
No comments:
Post a Comment