जीवन के थपेड़ों के कारण मनुष्य में अनगिनत नकारात्मक
प्रवृत्तियां जन्म ले लेती है , पर मानव इन प्रवृत्तियों को
स्वीकार नहीं कर पाता. उसकी नजर में ईश्वर अमृत की तरह अनुकरणीय है , पर विष के रास्तों से
गुजरते हुए ईश्वर उसकी परिकल्पना का वस्तु मात्र रह जाता है. वो प्रेम , सच्चाई को मानता है , पर जानता नहीं . जिस
प्रकार टार्च लेकर अँधेरे को तलाशा नहीं जा सकता , उसी प्रकार सच्चाई , प्रेम की बातों को
मानकर ईश्वर को जाना नहीं जा सकता. ईश्वर को अपनी बुराइयों की पहचान कर और उसपे
नियंत्रण प्राप्त करके वैसे हीं पाया जा सकता है, जैसे किसी विषधर को
देखते हीं मनुष्य उसका हनन कर देता है. ये कविता इसी सत्य को उद्घाटित करती है.
पत्थर में क्यों ढूढें ईश को, क्यों पत्थर को कर जल
भर दे?
जीवन
को क्यों करता पत्थर? पत्थर
में जीवन बस भर दे।
तेरी जीत पे क्या तू खुश है? क्या हार पे सच में
दुःख है?
निराकाश
पे बनती मिटती, फिर
क्या दुख है, फिर
क्या सुख है?
सागर की लहरों पे टिक कर, कहता मन कुछ कुछ लिख
लिख कर,
भला
किसी को सूरज मिला है, तम
के बाहों में लुक छिप कर?
झूठ बुरा है, माना तूने, पर क्या सच पहचाना
तुने?
क्रोध
बला है कह देने से, कभी
शांति को जाना तूने?
जहर कभी ना माना तूने, विष को हीं पहचाना
तूने,
जभी
ज्ञात कोई विषधर तुझको, रोम
रोम में जाना तूने।
प्रेम सुधा की बातें करते , पर सबसे तुम जलते
रहते,
घृणा
सत्य है तुमको बंधू , निंदा
पर हीं तुम तो फलते।
तो ईश्वर को विष दृष जानो, फिर क्या मुश्किल न
पहचानो?
पर
अमृत सम माया कहते , फिर
कैसे उसको पहचानो?
अमृत जैसा वो ना भ्रम है, अति निरर्थक तेरा
श्रम है,
गरल
सरीखा उसको जानो, प्रभु
मिलेंगे मेरा प्रण है ?
अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित
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