ओ मरघट के मूल निवासी,भोले भाले शिव कैलाशी।
यदा कदा मन आकुल व्याकुल,जग जाता अंतर सन्यासी।जब जग बन्धन जुड़ जाते हैं,भाव सागर को मुड़ जाते हैं।
इस भव में यम के जब दर्शन,मन इक्छुक होता वनवासी।
ओ मरघट के मूल निवासी,भोले भाले शिव कैलाशी।
अति दूर है धाम तुम्हारे,किस भांति शिव धाम पधारे।
हम तो कर कर करम सब हारे,तन शक्ति भर रह उपवासी।
मन ईक्षण है चाह तुम्हारा,चेतन प्यासा छांह तुम्हारा।
ईधर उधर प्यासा बन फिरता,कभी मथुरा कभी काशी ।
ओ मरघट के मूल निवासी,भोले भाले शिव कैलाशी।
अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित
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