"सत्ता और साधना: अन्या की सम्राज्ञी-यात्रा और विद्रोही योगी ऋत्विक"
स्मृति का काँपता तल
ऋत्विक के शब्द अन्या के हृदय में गूंजते रहे —
“मैं तुम्हारा रक्षक बनना चाहता था… और बन चुका हूँ…”
पर अन्या की अंतश्चेतना की गहराइयों में कोई और स्वर भी था — दबी हुई पीड़ा, किसी अधूरी यात्रा की धधकती राख।
उसने मन ही मन सोचा:
"हर जन्म में मैंने उसका साथ दिया…
सेनापति बनकर उसकी आज्ञा मानी,
भाई बनकर उसकी सेवा की,
पत्नी बनकर उसका समर्पण किया…
पर हर जन्म में निर्णय उसी ने लिए…
और मैं… उसके जीवन की अनकही भूमिका भर रही।
क्या मैं केवल उसकी परछाईं हूँ?"
उसका माथा तपने लगा। स्मृतियाँ झिलमिलाईं —
और अचानक… वो फिर एक नये युग में प्रवेश कर गई…
सम्राज्ञी अन्वेषणा — शक्ति की पूर्णता
यह शुंग-गुप्त काल के बाद का एक अपूर्ण इतिहास था —
एक ऐसा युग जो पाण्डुलिपियों में छुपा रह गया, पर लोककथाओं में जीवित रहा।
यह कथा थी "आर्या अन्वेषणा" की — एक योद्धा राजकुमारी जो अपने बल, बुद्धि और ध्यान के सामर्थ्य से "आग्निवर्मा राष्ट्र" की सम्राज्ञी बनी थी।
उसके राज्य में विद्या, कला और स्त्री-शक्ति का गूढ़ संचार था। वह न्याय करती थी, पर क्रूर नहीं थी। वह निर्णय लेती थी, पर एकान्त में मनुष्य के हृदय को पढ़ती थी।
राज्य में सब कुछ व्यवस्थित था —किन्तु तभी, एक व्यक्ति ने उसकी नींदें चुरा लीं…
अग्नियोगी ऋत्विक — विद्रोह की शांत ज्वाला
वह एक योगी था — एक ऐसा सन्यासी, जिसने जीवन के सारे बंधनों को त्याग कर हिमालय के कन्दराओं में "अग्नियोग" साधा था। उसका नाम था ऋत्विक —
पर उसे ‘विद्रोही’ कहा गया क्योंकि वह सत्ता के अहंकार से टकराता था।
उसका संकल्प था —
“सत्ता को जब तक ध्यान का स्पर्श न मिले, वह राक्षसी बनती है।मैं उस सत्ता से नहीं डरता, चाहे वह सम्राज्ञी स्वयं क्यों न हो।”
एक दिन वह राजधानी के प्रवेशद्वार पर ध्यानस्थ बैठा मिला। लोगों ने उसे पकड़ा, पर उसकी दृष्टि में भय नहीं था — केवल शून्यता।
जब उसे राजसभा में लाया गया —अन्वेषणा और ऋत्विक आमने-सामने थे।
संवाद — सत्ता और साधना का टकराव
“तुम कौन हो जो मेरी प्रजा में विद्रोह का बीज बोते हो?”
सम्राज्ञी की आवाज़ स्थिर थी, पर आँखें कुछ पहचान रही थीं।
ऋत्विक ने उत्तर दिया: “मैं वह हूँ जो तुम्हारे भीतर भी है,
पर जिसे तुमने सिंहासन के भार में दबा दिया है। मैं चेतना हूँ — याद रखो, तुम भी केवल एक देह नहीं हो। तुम जन्मों से मुझे पहचानती हो…”
एक क्षण को सभा स्तब्ध हो गई। अन्वेषणा का चेहरा तपने लगा।
“तुम… तुम मेरे भीतर का चिरपरिचित आकाश हो, जिसे मैं हर जन्म में खोजती आई हूँ।लेकिन इस जन्म में मैं सम्राज्ञी हूँ…
और तुम मेरे आदेश के विरुद्ध हो!”
“तो फिर मुझे दण्ड दो…जैसे पिछले जन्म में मेरे आदेश से तुमने संत को मारा था… और फिर आत्मा ने जन्मों तक वह दोष ढोया था।”
अन्वेषणा की आँखें काँप गईं। वह गिरते-गिरते संभली।
सत्ता और आत्मा का द्वंद्व
उस रात्रि अन्वेषणा राजमहल की छत पर बैठी थी। उसके पास सिंहासन था, राज्य था, पर मन अशांत था।
उसने आकाश की ओर देखा और आत्मा से प्रश्न किया:
“क्या मैं सिर्फ़ सम्राज्ञी हूँ?क्या मेरे हर जन्म का कर्तव्य केवल ऋत्विक के निर्णयों का अनुसरण भर है?
क्या मैं कभी अपने लिए भी जीवित रह सकती हूँ?”
उस रात स्वप्न में उसने फिर वही दृश्य देखा —
ऋत्विक, हिमालय की चोटी पर, ध्यान में लीन…
और वह, सम्राज्ञी की पोशाक में, हाथ में तलवार लिए…
पर फिर वह तलवार गिरा देती है…
“मैं अब सत्ता नहीं, साधना का वरण करूँगी।”
अंत और अगला जन्म
सुबह होते ही सम्राज्ञी ने सभा बुलाई —
“ऋत्विक को मुक्त करो।मैं अपने पद से त्यागपत्र देती हूँ।
मैं उसकी साधना में बाधा नहीं, उसकी सहयात्री बनूँगी।
क्योंकि यह जीवन सत्ता और युद्ध का नहीं, आत्मा की मुक्ति का है।”
ऋत्विक ने कोई उत्तर नहीं दिया।
उसने अन्वेषणा को देखा — उसकी आँखों में क्रोध नहीं, अधिकार नहीं, केवल शांति थी।
लेकिन स्वपन जारी थी. जहाँ न सिंहासन था, न सीमा… केवल चेतना की यात्रा। भविष्य की यात्रा.
क्या अगले जन्म की यात्रा यहीं से शुरू हो रही थी?
या वर्तमान ही अब नया जन्म बन रहा था?
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