कल्पनातीत भविष्य — जब तांत्रिका अन्या और जैन दिगंबर ऋत्विक, एक बार फिर टकराते हैं
स्थान: सिद्धलोक-7, हिमालय उपग्रह मंडल
काल: वर्ष 2125 ईस्वी (नव-महाकल्प युग)
एक नया भारत — जो आकाश से आगे था
यह कोई साधारण भविष्य नहीं था। यह वह भारत था जो अब अंतरिक्ष में ग्रहों के परे फैल चुका था, जहाँ हिमालय अब केवल पृथ्वी पर नहीं,बल्कि हिमालय-उपग्रह श्रृंखला के रूप में अंतरिक्ष की कक्षा में विद्यमान था।
यहाँ नित्य “चेतन आश्रम”, “स्मृति-केंद्र” और “लौकिक ऊर्जा मंडल” सक्रिय थे,जहाँ साधक अब केवल ध्यान नहीं करते थे,
बल्कि अंतरिक्षीय चेतना, क्वांटम ऊर्जा और त्रिकालिक संवेदना से संवाद कर सकते थे।
सिद्धलोक-7 और नव-तांत्रिका अन्या
उत्तर भारत की ही एक प्राचीन गुरु परंपरा ने, “सिद्धलोक-7” की स्थापना की थी —जो हिमालय-उपग्रह पर स्थित था और
जहाँ केवल वे साधक प्रवेश कर सकते थे जो "काय, वाक्, चित्त और तरंग" — इन चारों स्तरों को पार कर चुके हों।
अन्या वहाँ की सबसे उन्नत साधिका थी —जिसे अब नव-तांत्रिक साधिका कहा जाता था।
वह केवल साधना नहीं करती थी,वह अब “अस्तित्व की फ्रिक्वेंसी” को पढ़ सकती थी।उसकी साधना में मंत्र अब कम्पन में बदल चुके थे,और यंत्र अब त्रि-आयामी ऊर्जा मैपिंग के रूप में कार्यरत थे।
उसके अंतर-ध्यान विमान — त्रिनेत्र यंत्र-वाहन — में
शून्य-संवेदी चक्र, मेमोरी-वेव कैप्चरर और आत्म-प्रवेश द्वार लगे थे।वह एक ऐसे स्तर पर थी जहाँ कल्पना, ज्ञान और चेतनाअलग नहीं, बल्कि एक ही तरंग बन चुके थे।
दश दिशाओं का संयमी — ऋत्विक दिगंबर
दूसरी ओर, ऋत्विक, अबजैन दिगंबर मुनियों की नव-परंपरा में एक “दिगंबर नवाचार्य” बन चुका था।लोग उसे कहते थे —
"दश दिशाओं का संयमी",क्योंकि उसने स्वयं को शरीर, भाषा और विचारों से मुक्त करदशों दिशाओं की चेतना में निर्विकार रूप से स्थिर कर लिया था।
उसकी साधना अब तप नहीं,बल्कि एक "शांत स्पंदन" बन चुकी थीजो ग्रहों के चुम्बकीय क्षेत्र को भी संतुलित कर देता।
उसकी साधना की स्थिति ने११ पृथ्वी-क्षेत्रों (Terran Conscious Zones) को स्थिर और मौन कर दिया था।
लेकिन यही स्थिरता अबसिद्धलोक-7 के वैकुंठीय ऊर्जा-पटल में“चेतन-अवरोध” उत्पन्न कर रही थी।
चेतना का संवाद — यंत्रों से परे, अंतरात्मा तक
अन्या को त्रिकाल-स्पंदन चेतावनी मिली।उसने देखा — एक स्थिर, किंतु जड़ ऊर्जावैकुंठीय चेतना द्वार को बंद कर रही थी।
वह जान गई — यह ऋत्विक की साधना है।जो पहले जीवन में उसका भाई था, पति था, रक्षक था,
और अब —एक पूर्ण विरक्त, निर्वस्त्र योगी।
वह पहुँची अपने त्रिनेत्र-ध्यान विमान में —जिसका द्वार नहीं, केवल तरंग प्रवेश द्वार था।सामने वही —ऋत्विक —चेतना में स्थिर, आँखें बंद,ना शब्द, ना संकेत —केवल एक चुम्बकीय मौन।
पर चेतना संवाद का कोई यंत्र नहीं चाहिए।
चेतन-स्तरीय टकराव: जब प्रेम और विरक्ति आमने-सामने होते हैं
अन्या (चेतना तरंग के माध्यम से):“ऋत्विक… हम फिर आमने-सामने हैं।इस बार मैं केवल शक्ति नहीं हूँ —मैं भविष्य की दिशा हूँ। तुम निर्विकार हो,लेकिन क्या यह विरक्ति,प्रेम से भय का परिणाम नहीं?”
ऋत्विक (अंतः-स्पंदन में उत्तर देता है):“तुम्हारी ऊर्जा कभी सीमित नहीं रही, अन्या।पर प्रेम भी बंधन बन सकता है।
मैं मृत्यु और जीवन दोनों से मुक्त हूँ —क्योंकि मैंने इच्छा त्याग दी है।”
अन्या:“पर क्या इच्छा का त्याग ही सबसे गहरी इच्छा नहीं है, ऋत्विक?तुम मुझसे भागते रहे —कभी इतिहास में, कभी भविष्य में।अब जब सब कुछ शून्य है…
क्या हम शून्य और प्रेम को एक साथ नहीं जी सकते?”
ऋत्विक को अपने सारे जन्म याद आने लगे —जहाँ वह अन्या से भागता रहा, और हर बार किसी साधना में स्वयं को गुम करता रहा।
अन्या को भी समझ आया —वह हर बार ऊर्जा बनकर
उसे पकड़ने, जगाने और जोड़ने के लिए आयी थी।
अब आगे क्या?
जब प्रेम और विरक्ति —दोनों पूर्णता को छू लें,
तो क्या एक नई चेतना जन्म लेती है?
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