स्मृति की परतें फिर खुलती हैं
रात्रि का तीसरा प्रहर था। खिड़की के बाहर वर्षा हल्के स्वर में पड़ रही थी। कमरे में एक गूढ़ शांति थी — जैसे कोई अदृश्य सत्ता आने वाली हो।
ऋत्विक निद्रित अवस्था में था, पर उसके भीतर एक और संसार जाग गया था। शरीर विश्राम में था, पर आत्मा पुनः एक यात्रा पर चल पड़ी थी, एक ऐसी यात्रा जहाँ भूत, वर्तमान और भविष्य एक साथ विद्यमान थे।
पाटलिपुत्र का भिक्षु – चैतन्य की आग में तपती एक आत्मा
यह मौर्यकाल की बात थी — बिंदुसार के शासन का उत्तरार्द्ध, जब बौद्ध धर्म गंगा के समतल में तेज़ी से फैल रहा था। पाटलिपुत्र, उस समय का राजनीतिक और आध्यात्मिक केंद्र था। विशाल बिहारों, स्तूपों और मोनैस्टिक समुदायों का नगर।
वहीं, एक मौन साधक, भिक्षु आर्यधीर अपनी अंतर्यात्रा में लीन था। बाल्यकाल में ही उसने राजमहलों और समृद्धि का त्याग कर दिया था। उसके भीतर संसार का कोई आकर्षण न था — न वासना, न यश, न ऐश्वर्य।
वह "ध्यान की पराकाष्ठा" पर पहुँचने वाला था —
जहाँ स्वयं का बोध आत्मा को निर्वाण की ओर ले जाता है।
उसके भीतर एक शून्यता थी — गहन, निर्मल और अपरिभाष्य। किन्तु…
भाई का मोह — अन्या का पुनर्जन्म
भिक्षु आर्यधीर का एक छोटा भाई था — मिथिल, एक मधुर, शांत और समर्पित युवक, जो उसकी सेवा और विहार की व्यवस्थाओं में लगा रहता था। मिथिल ही अन्या का पुनर्जन्म था — इस बार एक छोटे भाई के रूप में।
मिथिल के नेत्रों में जीवन की गहराई थी। उसके हाव-भाव, उसकी करुणा, उसकी मूक सहमति — कुछ था जो आर्यधीर को विचलित करता था।
वह सोचता था —
“मैंने सारे संसार को त्याग दिया, पर यह बालक… क्यों मेरी आत्मा उससे बँधी लगती है?”
मिथिल अपनी पूर्ण आस्था और निष्ठा से भिक्षु की सेवा करता। लेकिन समाज और परिवार की समस्याओं से उसका शरीर क्षीण होता चला गया। आर्यधीर ध्यान करता, पर भीतर कहीं से एक द्वंद्व उठता:
“क्या यह मेरे ध्यान में बाधा है, या मेरी करुणा का स्वरूप?”
मोह और मृत्यु
मिथिल की तबीयत बिगड़ने लगी। दुर्बल शरीर, कठिन परिश्रम और सामाजिक विषमताओं का बोझ उसपर भारी पड़ चुका था। एक दिन आर्यधीर उसे देखकर विचलित हो उठा:
“मिथिल, तू ध्यान क्यों नहीं करता? आत्मा के शांति की राह क्यों नहीं पकड़ता?”
मिथिल मुस्कराया: “भैया… ध्यान तो आपका मार्ग है… मेरा तो बस कर्तव्य है… सेवा देना…”
अगले कुछ दिनों में मिथिल की मृत्यु हो गई — किसी प्रेम की प्राप्ति नहीं, किसी साधना की प्राप्ति नहीं, केवल त्याग और कर्तव्य की सैकड़ों गांठें।
आर्यधीर के भीतर कुछ टूट गया। वह ध्यानस्थ बैठा, किंतु ध्यान नहीं लगा।
"मैंने शरीर छोड़ा था, संसार त्यागा था… पर आत्मा अब भी बंधन में है… मोह से नहीं… प्रायश्चित्त से।"
स्वप्न की प्रतीति — ऋत्विक का बोध
स्वप्न में ही ऋत्विक ने स्वयं को आर्यधीर के रूप में अनुभव किया। उसने देखा कैसे उसके मौन में भी प्रेम था, कैसे उसका ध्यान त्याग नहीं बल्कि संवेदनशीलता की सीमा था।
उसे याद आया — मिथिल का अंतिम स्पर्श, उसका श्रम, उसकी छोटी मुस्कान।
“वह अन्या ही थी… जो इस बार भाई बनकर आई…
सेवा दी… और फिर बिना किसी शिकायत के चल दी…”
भाग 5: पुनर्जन्म की इच्छा — रक्षक बनना
स्वप्न में ही ऋत्विक की आत्मा काँप गई। उसने ईश्वर से प्रार्थना की:
“मुझे अगला जन्म दो… जहाँ मैं उसकी रक्षा कर सकूँ।
न भाई बनकर, न गुरु बनकर… इस बार उसका पति बनूँ — उसका संरक्षक, साथी, सहचर। जहाँ वह प्रेम से वंचित न रहे… जहाँ उसे मृत्यु, त्याग या कर्तव्य का अकेलापन न मिले।”
स्वप्न के भीतर उसकी चेतना फिर उजास से भर गई। और जब वह जगा…अन्या उसके पास बैठी थी। उसकी आँखें भीगी थीं — क्योंकि उसने भी वही स्वप्न देखा था।
दोनों मौन थे — क्योंकि शब्द अब आवश्यक नहीं थे।
अन्या ने धीमे स्वर में कहा: अब समझ आया, क्यों जब तुम मुझे देखे थे पहली बार… तो मेरे भीतर कोई पूर्वजन्म की सी पहचान कौंधी थी… क्योंकि… तुम मेरे रक्षक बनना चाहते थे… और बन चुके हो”
किंतु वर्तमान समय में भी विछोह. वो ऋत्विक के लिए ना जाने क्या क्या करती रही. कभी सेनापति, कभी छोटा भाई, कभी पत्नी, और ऋत्विक स्वयं हीं निर्णय लेता रहा. क्रोध की रेखा उसकी स्मृति पटल पर उभर रही थी, नतीजा अतृप्त भाव, क्रोध के भाव.
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