जब एक आत्मा का इस धरती पर अवतरण होता है, तभी से उसकी यात्रा का एक अटूट साथी बन जाती है - मृत्यु। मृत्यु के देवता, यमराज, बार-बार उसके पास आते हैं, अपनी दैवीय कर्तव्यों का पालन करने के लिए, परंतु हर बार वह आत्मा किसी न किसी बहाने से उन्हें टाल देती है। जीवन के हर पड़ाव पर आत्मा कोई न कोई तर्क देकर, एक और क्षण, एक और दिन मांगती रहती है।जब वह आत्मा बुढ़ापे को पार कर मृत्यु-शैय्या पर लेट जाती है, जब जीवन का भार थका चुका होता है, तब यमराज फिर उसके समक्ष आते हैं। और यह अंतिम मिलन होता है। उस क्षण आत्मा का उत्तर क्या होता है? क्या वह फिर बहाने बनाती है, या इस बार यमराज के सामने सिर झुकाकर अपनी नियति को स्वीकार करती है?
अभी भ्रूण को हूँ स्थापित , अस्थि मज्जा बनने को,
आँखों का निर्माण चल रहा,धड़कन भी है चलने को,
अभी दिवस क्या बिता हे यम, आ पहुँचे इस द्वार,
तनिक वक्त है ईक्क्षित किंचित, इतनी सी दरकार ।
माता के तन पर फलता हूँ, घुटनों के बल पर रहता हूँ,
बंदर मामा पहन पजामा, ऐसे गीत सुना करता हूँ,
इतने सारे खेल खिलौने , खेलूँ तो एक बार ,
तनिक वक्त है ईक्क्षित किंचित, विनती करें स्वीकार।
मृग नयनी का आना जाना, बातें बहुत सुहाती है,
प्रेम सुधा रग में संचारित , जब जब वो मुस्काती है।
मुझको भी किंचित करने दें, अधरों का व्यापार,
तनिक वक्त है ईक्क्षित किंचित, दिल की यही पुकार।
बीबी का हूँ मात्र सहारा , बच्चों का हूँ एक किनारा,
करने हैं कई कार्य अधूरे, पर काल से मैं तो हारा,
यम आएँ आप बाद में बेशक , जीवन रहा उधार,
तनिक वक्त है ईक्क्षित किंचित, फिर छोडूँ संसार।
धर्म पताका लह राना है, सत्य प्रतिष्ठा कर जाना है,
प्रेम आदि का रक्षण बाकी, समन्याय जय कर जाना है।
छिपी हुई नयनों में कितनी , अभिलाषाएँ हज़ार,
तनिक वक्त है ईक्क्षित किंचित, यम याचन इस बार।
देख नहीं पाता हूँ तन से, किंचित चाह करूँ पर मन से,
निरासक्त ना मैं हो पाऊँ , या इस तन से , या इस मन से।
एक तथ्य जो अटल सत्य है, करता हूँ मैं स्वीकार ,
कभी नहीं ईक्क्षा ये सिंचित , जाऊँ मैं यम द्वार।
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