कृष्ण में अभिव्यक्ति है शक्ति की भक्ति की,
कर्म से आसक्ति तो फल से भी विरक्ति की।
कृष्ण पक्ष के कृष्ण रात्रि में कृष्ण अति अँधियारे थे ,
तब विधर्मी कंस संहारक गिरिधर वहीं पधारे थे।
कभी गोपी के वस्त्र चुराकर मर्यादा के पाठ पढ़ाए,
पांचाली के वस्त्र बढ़ाकर चीर हरण से उसे बचाए।
इस जग को रचने वाले कभी कहलाये थे माखनचोर,
कभी गोवर्धन पर्वत धारी कभी युद्ध तजते रणछोड़।
पूतना , शकटासुर ,तृणावर्त असुर अति अभिचारी ,
कंस आदि के मर्दन कर्ता कृष्ण अति बलशाली।
वो कान्हा थे योगि राज पर भोगी बनकर नृत्य करें,
जरासंध जब रण को तत्पर भागे रण से कृत्य रचे।
सारंग धारी कृष्ण हरि ने वत्सासुर संहार किया ,
बकासुर और अघासुर के प्राणों का व्यापार किया।
मात्र तर्जनी से हीं तो गिरि धर ने गिरि उठाया था,
कभी देवाधि पति इंद्र को घुटनों तले झुकाया था।
जब पापी कुचक्र रचे तब हीं वो चक्र चलाते हैं,
कुटिल दर्प सर्वत्र फले तब दृष्टि वक्र उठाते हैं।
उरग जिनसे थर्र थर्र काँपे पर्वत जिनके हाथों नाचे,
इन्द्रदेव भी कंपित होते हैं नतमस्तक जिनके आगे।
एक हाथ में चक्र हैं जिनके मुरली मधुर बजाते हैं,
गोवर्धन धारी डर कर भगने का खेल दिखातें है।
जैसे गज शिशु से कोई डरने का खेल रचाता है,
कारक बन कर कर्ता का कारण से मेल कराता है।
राधा के कान्हा तो शकुनि के छलिया हैं,
काल दुर्योधन के मुरली के रसिया हैं।
कल्मष विकर्म आदि पातक प्रतिकूल वो,
धर्म कर्म मर्म आदि जिनके अनुकूल हो।
सृष्टि की क्रिया प्रतिक्रिया के चक्र हैं,
सृष्टि के कर्ता भी कारक पर अक्र हैं।
साम,दाम,दंड, भेद ,विषदंत आवेग आदि,
लोभ का संवेग ना हीं मोह संवेग व्याधि।
युद्ध हो समक्ष गर जो शस्त्रों में दक्ष हैं,
पक्ष ना विपक्ष में ना कोई समकक्ष है।
वो व्याप्त है नभ में जल में चल में थल में भूतल में,
बीत गया जो पल आज जो आने वाले उस कल में।
उनसे हीं बनता है जग ये वो हीं तो बसते हैं जग में,
जग के डग डग में शामिल हैं शामिल जग के रग रग में।
आगत जो काल भी है , काल जो व्यतीत भी,
चल रहा जो आज भी है , गुजरा अतीत भी।
मन की चंचलता में, चित्त के अवधारण में,
सृष्टि की सृजना संरक्षण संहारण में।
रूप रंग देह धारी दृश्य दृष्टित भिन्न वो,
सृष्टि की भिन्नता से भिन्न अवच्छिन्न वो।
कृष्ण सर्व सत्व आदि तत्व अनेकार्थ है,
काम,क्रोध,भोग आदि मोक्ष भी परमार्थ है।
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