Friday, December 8, 2017

गुनाह



छोड दी मैंने कोशिश
ज़माने को बदलने की,
शिद्दत से थी जरुरत
खुद हीं संभलने की.
 
हजारों करके गुनाह
बदलता रहा नकाब मैं,
आदत बना ली थी
ज़माने को कोसने की.
 
जेहन में थी मैल और
चेहरे पे थी नजर मेरी,
दिले-गन्दगी की चाहत    
पोशाक अपनी बदलने की.   
 
जमीर के गुनाहों ने
गन्दा किया अमिताभ को,
नहीं थी इनकी फितरत
आंसुओ से धुलने की.



अजय अमिताभ सुमन 



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