धूल में मिल जाएगा फिर, ताज या शृंगार तेरा।
शूल के संताप से जो भाग जाए राह में,
फिर न महकेगा चमन, न हो सके उद्धार तेरा।
ज़ख़्म खा के मुस्कराना है सिपहगिरी का फ़र्ज़,
दर्द से जो भागता है, कैसा फिर किरदार तेरा?
छाँव में जो रह गया, इतिहास में खो जाएगा,
धूप से टकरा सके जो, बने वो सरदार तेरा।
आँधियों से डर गया तो, दीप कैसा फिर तेरा?
जो जले हर हाल में, हो वही इंकार तेरा।
तू लहू से सींच मिट्टी, तब उगेगा इक वतन,
ख़ून मांगेगी ज़मीं ही, माँ अगर पहचान तेरा।
काँपते हाथों से फिर तलवार क्या हासिल करे?
जंग में जो डट गया, बस हो वही हथियार तेरा।
ख़्वाब हो बेदर्द सा तो, नींद भी बेकार हो,
हौसला ज़िंदा रहे तो, मिल सके सत्कार तेरा।
वक़्त की दीवार पर तेरा लिखा हो नाम जब,
तब समझ पाये ज़माना, क्या है असली सार तेरा।
गर बहे अश्क़ों में बह कर, छोड़ दे हर मोड़ को,
फिर नहीं कोई भरोसा, ना ही कोई यार तेरा।
गर समर के ताप से डर, जीत ना स्वीकार तेरा,
शूरवीरों की ज़मीं में, फिर कहाँ उद्धार तेरा।
शूल के संताप से डर, फूल ना अधिकार तेरा,
ज़िंदगी है जंग जैसी, क्या हुआ इनकार तेरा।
छाँव में जो बैठ जाए, धूप क्यों स्वीकार करे,
धूप से लड़ता है जो, सूरज बने व्यवहार तेरा।
जो लहू से सींच दे पथ, वक़्त उसको याद रखे,
भीग जाए जो नयन से, हो सका आकार तेरा।
तू अगर गिरने से डरे, उड़ न पाएगा कभी,
पर फलक चूमे वही, हो जिसे संसार तेरा।
ख़्वाब जो देखे मगर, नींद में रह जाए सदा,
वो न होगा हक़ का क़ाबिल, ताज ना शृंगार तेरा।
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