मैं इस कहानी का ना ही नायक हूँ, ना ही खलनायक। मैं तो बस सरकारी दफ्तर के कोने वाली कुर्सी पर बैठा वो छोटा बाबू हूँ, जो फाइलों की धूल के पीछे से हर तमाशा देख लेता है — चुपचाप। इस बार जो तमाशा हुआ, वो एक प्रेम कथा थी। ऐसी प्रेम कथा जो मिठाई की दुकान पर शुरू हुई और सरकारी नियमों की दीवार से टकरा गई। हमारा दफ्तर शहर के पुराने हिस्से में है, जहां बाहर ठेले पर समोसे मिलते हैं और अंदर पंखा झल्लाता है। वहीं एक दिन आया रमेश साहू — नया-नया भर्ती हुआ क्लर्क। छोटे कद का, पर ख्वाब आसमान जितने ऊँचे। चेहरे पर ऐसा भाव, जैसे अभी-अभी फिल्मों से निकला हो और फाइल उठाने को मजबूर हो गया हो। मेश का दिल वहीं धड़क गया। उसने अपने मन में तय कर लिया — “यही है मेरी जीवन संगिनी।”
उसे ना कविता का स्वभाव समझ आया, ना दफ्तर का नियम। बस उसका मन वही अटक गया।
हर दिन कविता के लिए चाय लेने लगा, बिना पूछे। गलती से उसका पंखा चला देता, टेबल साफ कर देता, और बीच-बीच में “कुछ मदद कर दूँ क्या?” पूछता।
कविता मुस्कराती नहीं थी, लेकिन रमेश को लगता, "दिल में बात छुपा रही है।"
मैंने एक दिन देखा, रमेश कविता के लिए गुलाब का फूल लाया — वो भी सरकारी फाइलों में छुपाकर। ये देखकर मेरे हाथ की कलम हँसी के मारे गिर गई। ऐसा लग रहा था जैसे प्रेम नहीं, टाइपिंग परीक्षा दे रहा हो! हमारे दफ्तर में एक बड़े सयाने आदमी थे — ज्ञानू काका। उम्र में साठ के पार, लेकिन दिमाग में पूरे मोहल्ले का अनुभव। वो बोले,
“बेटा रमेश, सरकारी दफ्तर में दो चीज़ों से बचना चाहिए — पेंशन की गड़बड़ी और दिल की चूक। वरना काम भी जाएगा, और इज़्ज़त भी।”
रमेश ने सुना ज़रूर, पर माना नहीं। वो रोज़ नये बहाने बनाकर कविता के आसपास मंडराता रहा।जैसे ही उसने पहली बार पानी पीने की बोतल भरी, सामने देखा — कविता यादव, जो पेंशन विभाग में काम करती थी। शांत, सीधी, लेकिन तेवर में सख़्त। हर आदमी से दूरी बनाकर रखती, जैसे नोटबंदी के बाद बैंकवाले मुस्कराते हैं — दिखावे भर को। फिर आया वह दिन — वार्षिक निरीक्षण, जब बड़े अधिकारी दौरा करने आए। दफ्तर की सफ़ाई चल रही थी, हर बाबू कागज़ों को करीने से जमा रहा था। अगले दिन से रमेश चुप रहने लगा। कविता का ट्रांसफर हो गया, और दफ्तर फिर वही बन गया — शांति से बोरियत करने की जगह।
ज्ञानू काका ने एक दिन कहा —
“बाबू लोग! याद रखो — प्रेम कभी बुरा नहीं होता, पर अगर आँखें बंद करके किया जाए, तो चोट ज़रूर लगती है।
रूप पर मरने से पहले मन को पहचानो। वरना फिसलन तो दफ्तर में भी होती है, और दिल में भी।”
रमेश ने सोचा, यही सही मौका है — कविता के सामने अपना दिल खोलने का। वह गुलाब लेकर दौड़ा, लेकिन जैसे ही आगे बढ़ा, फिसल कर लंच बॉक्स के ढक्कन पर गिर पड़ा। सब्ज़ी, रोटी, और उसके ख्वाब — सब उड़ गए।
कविता ने देखा और मुंह घुमा लिया। बाक़ी स्टाफ ने ठहाका लगाया, और अधिकारी ने टिप्पणी लिख दी — “कर्मचारी अनुशासनहीन।”
मैंने देखा — रमेश का चेहरा लाल था, जैसे प्याज के भाव सुनकर आदमी का हो जाता है। अगले दिन से रमेश चुप रहने लगा। कविता का ट्रांसफर हो गया, और दफ्तर फिर वही बन गया — शांति से बोरियत करने की जगह।
ज्ञानू काका ने एक दिन कहा —“बाबू लोग! याद रखो — प्रेम कभी बुरा नहीं होता, पर अगर आँखें बंद करके किया जाए, तो चोट ज़रूर लगती है।
रूप पर मरने से पहले मन को पहचानो। वरना फिसलन तो दफ्तर में भी होती है, और दिल में भी।” आज भी मैं उसी कोने की कुर्सी पर बैठा हूँ। रमेश अब वक्त पर चाय पीता है, कविता का नाम नहीं लेता।
और मैं?मैं हर नये कर्मचारी को चुपचाप देखता हूँ — कौन कब कॉफ़ी मशीन के पास खड़ा होकर दिल बहकाएगा, और कब दफ्तर की ज़मीन उसे सबक सिखाएगी।
क्योंकि इस दफ्तर में काम के बाद सबसे ज़्यादा फाइलें दिल की गलती की जमा होती हैं। जो केवल चेहरा देखता है, वो अक्सर गिर जाता है।
कविता के ट्रांसफर के बाद दफ्तर कुछ और भी शांत हो गया था। रमेश अब वक्त पर आता, फाइल में सिर घुसेड़े बैठा रहता। चाय पीता, पर बिना कुछ बोले। जैसे किसी ने उसके मन की हवा निकाल दी हो।
मैंने देखा, वो अब न गुलाब लाता था, न पंखा चलाता था किसी और की तरफ़। वह धीरे-धीरे समझने लगा था — सबका साथ काम का होता है, हर मुस्कान का मतलब प्रेम नहीं होता।
फिर एक दिन दफ्तर में हलचल हुई। किसी पुराने कर्मचारी ने बताया —
“अरे, कविता का तो बड़ा तगड़ा प्रमोशन हो गया! और उसका ट्रांसफर उसी अफसर के शहर में हुआ है, जिससे उसकी शादी तय हुई है।”
हम सब ने चुपचाप एक-दूसरे की तरफ देखा। बात धीरे-धीरे पूरे दफ्तर में फैल गई — कविता की शादी एक वरिष्ठ अधिकारी से तय थी, और उसी ने ही उसका प्रमोशन और ट्रांसफर अपने शहर में करवाया था।
रमेश ने कुछ नहीं कहा, सिर्फ पानी पिया और खिड़की की तरफ देखता रहा — बाहर उड़ती धूल की तरह उसका वह भ्रम भी उड़ चुका था। कविता के जाने के बाद हमारे दफ्तर की हवा में पहले जैसी हलचल नहीं रही। पंखे अब भी झनझनाते थे, चाय अब भी मीठी कम पड़ती थी, पर अब कोई "फूल लेकर आने वाला बाबू" नहीं था।
रमेश अब सीधा चलता था — टिफ़िन लेकर, टाइम पर। अब वह चुपचाप फाइल खोलता, दस्तखत करता, और चुपचाप घर चला जाता।
एक दिन मैंने देखा, वो मेज़ पर बैठा था, पर सामने कुछ पढ़ नहीं रहा था — कुछ सोच रहा था। उसकी आँखें अब भी गीली नहीं थीं, पर जैसे अंदर कुछ बहुत ठहरा हुआ था। उस दिन बारिश हो रही थी। बाहर चायवाले की दुकान पर छाता उड़ गया था, और हमारे दफ्तर के फर्श पर पानी आ गया था। अगले दिन रमेश नहीं आया। वह गया — अपने गाँव। माँ के साथ बैठा। खाट पर लेटा। खेतों को देखा, वो मिट्टी को छुआ, जहाँ बचपन में खेला था।
उसने मोबाइल बंद रखा। किसी से बात नहीं की। सिर्फ खुद से।
वहीं से उसने एक चिट्ठी भेजी — दफ्तर को नहीं, ज्ञानू काका को:"काका,आप सही कहते थे। रूप पर मरना आसान है, जीना नहीं।मैं अब समझ गया हूँ — प्रेम तभी सही होता है जब उसमें आत्म-सम्मान बचा रह जाए।मैं वापसी करूंगा, पर अब फूल लेकर नहीं, फाइल लेकर चलूंगा।आपका –रमेश"
मैंने देखा — रमेश ने छुट्टी का आवेदन पत्र निकाला। सादी सफेद कागज़ पर हाथ से लिखा:
"सेवा में,प्रधान लिपिक महोदय,विषय: आत्म-समझ हेतु एक दिन की छुट्टी हेतु निवेदन।
महोदय,मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि मुझे कल एक दिन की छुट्टी दी जाए।कारण? कारण कोई शादी या मृत्यु नहीं है।कारण है — मैं खुद से मिलना चाहता हूँ।मैं जानता हूँ कि छुट्टी का आवेदन ऐसे नहीं लिखा जाता। पर आज मैं नियम से नहीं, ज़रूरत से लिख रहा हूँ। धन्यवाद सहित,रमेश साहू"
मैंने पढ़ा तो कुछ देर तक चुप रहा। यह वह रमेश नहीं था जो कॉफ़ी मशीन के पास फूल लेकर घूमता था। यह कोई और था — जो अब खुद को पहचानने चला था। रमेश जब लौटा, उसके कपड़े वही थे, पर चाल बदल गई थी। अब वह किसी की तरफ देखकर मुस्कराता नहीं था, खुद को देखकर मुस्कराता था।
अब वह दफ्तर में कम बोलता, पर जब बोलता तो असर छोड़ता।
कविता अब एक अफसर की पत्नी बन चुकी थी। रमेश अब एक जिम्मेदार कर्मचारी — और शायद, एक बेहतर इंसान। प्रेम अगर आँखों से हो, तो भ्रम होता है।
पर अगर आत्मा से हो — पहले खुद से, तब किसी और से — तो वो जीवन की सीख बन जाता है।
रमेश हार कर नहीं जीता, उसने खुद को समझ कर जीता।
और यही असली छुट्टी थी — जब आदमी काम से नहीं, पुराने भ्रम से छुट्टी ले। मेश अब वही नहीं रहा था।
पहले वह जिसके पीछे चलता था, अब उससे कोई उम्मीद नहीं रखता था। अब वह किसी की आँखों में अपना भविष्य नहीं ढूंढता था।
अब वो काम करता था — सच्चे मन से, बिना दिखावे के।
हर दस्तखत में साफ़ लिखा होता था — “मैं ठीक हूँ। अब मुझे किसी से शिकायत नहीं।”
दफ्तर की गाड़ी फिर से पटरी पर थी। एक दिन हमारी शाखा में एक नया नाम जुड़ा — फरजाना बी।
वह विधवा थी। उम्र कोई तीस के आस-पास। चेहरे पर थकावट थी, लेकिन लाचारी नहीं। आँखें गहरी थीं — जैसे जीवन के कई सच बिना बोले समझा चुकी हों।
वो पेंशन विभाग में अस्थायी काम पर आई थी — अपने बेटे की पढ़ाई का खर्चा निकालने के लिए।
मैंने देखा, पहले दिन जब फरजाना ने टेबल पर बैठकर कागज़ सँभाले, तो कई लोगों की आँखें उठीं — कुछ सहानुभूति से, कुछ आदत से। लेकिन रमेश ने नहीं देखा।
वह अपने काम में डूबा रहा — जैसा अब वो करता था। फरजाना को फॉर्म भरने में मदद चाहिए थी। रमेश से टकराव हुआ — ऐसे जैसे दो रेखाएं अलग-अलग चलती हुई एक बिंदु पर मिल जाएँ। रोज़ शाम को फरजाना जल्दी जाती — उसे बेटे को ट्यूशन दिलाने जाना होता था।
रमेश एक दिन खड़ा देख रहा था, तो मैं पास आया और पूछा,“कुछ सोच रहे हो?”
उसने कहा,“हाँ। पहले मैं जो चाहता था, वो मेरा भ्रम था।अब जो दिखता है, वो सच्चा है — बिना सजावट के, बिना अपेक्षा के।”
उसने फरजाना से कभी कुछ नहीं माँगा। न ध्यान, न पास बैठने का हक़।
वो बस धीरे-धीरे उसकी मदद करता — फॉर्म में, फाइल में, कम्प्यूटर में। और कभी-कभी, मुस्कान में।
रमेश ने फॉर्म समझाया। फरजाना ने धन्यवाद कहा — बहुत सीधा, बिना बनावट के।
मैं दूर से देख रहा था — अब कोई गुलाब नहीं था, कोई कॉफ़ी नहीं, कोई शेर नहीं। सिर्फ इंसानियत थी। एक दिन फरजाना ने कहा,
“रमेश जी, मुझे यहाँ ज़्यादा दिन नहीं रहना। बेटे की पढ़ाई के लिए शहर छोड़कर जाना होगा। शायद काम भी छोड़ना पड़े। लेकिन अगर कभी आपके जैसे किसी इंसान से फिर मिली, तो शायद सोचूँगी कि...”
वह बात अधूरी छोड़ गई।
रमेश मुस्कराया — पहले की तरह नहीं, इस बार बिना चाहत के, सिर्फ समझ के साथ। मैंने उस दिन कुछ महसूस किया — प्रेम का सबसे सच्चा रूप कभी फूल लेकर नहीं आता,
वो चुपचाप मदद करता है,दूर से देखता है,और जब ज़रूरत हो,तो जाने देता है।
रमेश अब न कविता के लिए उदास था,न फरजाना के लिए लालायित।
वह अब खुद के लिए सच्चा था। ज़िंदगी कभी-कभी हमें दो ऐसे रास्तों पर खड़ा कर देती है, जहाँ एक ओर सच्चाई होती है, और दूसरी ओर वो चिट्ठी... जो सीधी किसी दफ्तर से नहीं, दिल से निकली होती है।
रमेश की कहानी में अब सब शांत था। वह रोज़ आता, काम करता, चुपचाप चला जाता। फरजाना अब उस दफ्तर में नहीं थी। कुछ महीनों पहले उसका ट्रांसफर हो गया था — नवीन नगर शाखा में। और रमेश... बस उसकी ख़बरें कभी पेंशन रजिस्टर में मिल जातीं, कभी किसी बाबू की ज़बान से।
लेकिन ज़िंदगी ने एक और पन्ना मोड़ना बाकी रखा था। दोपहर के तीन बजे होंगे। दफ्तर में पंखा घूम रहा था, और कुछ लोग अपने चाय वाले इंतज़ार में झपकी मार रहे थे। तभी एक चपरासी आया — हाथ में एक मोटा लिफ़ाफा।
"रमेश बाबू, आपके नाम आदेश आया है ऊपर से।"
रमेश ने ले लिया। खोला। पढ़ा।
मैं दूर से देख रहा था। उसके माथे पर न हैरानी थी, न मुस्कान। बस एक गहरी साँस निकली — जैसे किसी पुराने वादे को अचानक पूरा होता देख लिया हो।
आदेश था:"कर्मचारी रमेश कुमार को तत्काल प्रभाव से नवीन नगर शाखा में पदोन्नत कर 'सहायक अधिकारी' नियुक्त किया जाता है। स्थानांतरण स्थायी है।" दोपहर की चाय के साथ अफवाहें भी घुल गईं। कुछ दिन बाद मुझे एक चिट्ठी दिखी। एक पुराने बाबू ने लाकर मुझे दी — गलती से उसकी फाइल में चली गई थी। उस पर लिखा था:
"श्री रमेश कुमार को नवीन नगर बुलाया जाए। उनके व्यवहार, कार्यकुशलता और ईमानदारी की मैं स्वयं साक्षी हूँ। — फरजाना बी, सह-अधिकारी (और भावी पत्नी श्री शकील अहमद, शाखा प्रमुख)"
मैं पढ़कर हँसा। प्रेम ने यहाँ दस्तक नहीं दी थी, लेकिन इज़्ज़त ने दरवाज़ा ज़रूर खोला था।"अरे, रमेश तो सीधा अधिकारी बन गया!"
"सुना है फरजाना वहीं काम करती है। कहीं वही तो नहीं...""कहते हैं, उसकी शादी एक उच्च अधिकारी से तय हो गई थी..."मैं सुनता रहा। मुस्कराता रहा। रमेश अब नवीन नगर में है।पहले दिन जब वो वहाँ पहुँचा, तो स्वागत में कोई फूल नहीं थे, कोई मिठाई नहीं।बस एक पुराना परिचित चेहरा खड़ा था — फरजाना।
उसने सिर्फ इतना कहा —"आप आए, अच्छा लगा। हम सब मिलकर अच्छा काम करेंगे।"
रमेश ने मुस्कराकर सिर हिलाया।
उसने उस दिन भी कुछ नहीं माँगा, सिर्फ फाइलें सँभालीं और टेबल पर बैठ गया। मैं अब भी उसी खिड़की के पास बैठा हूँ। देख रहा हूँ — ज़िंदगी कैसे बिना शोर के बदलती है।
अक्सर लोग वासना को प्रेम समझने की भूल कर बैठते हैं।
रमेश ने जब कविता को देखा, तो उसका मन उस आकर्षण में बंध गया, जो सिर्फ आँखों से दिखता है, दिल से नहीं। बिना उसे जाने, बिना उसकी सोच को समझे, वो उसके पीछे भागा — चाय से लेकर गुलाब तक। यह प्रेम नहीं था, यह एकतरफा आकर्षण था, जिसमें पाने की चाह अधिक थी, समझने की इच्छा कम। यही वो भूल है जो कई लोग करते हैं — वे जिसे प्रेम कहते हैं, वह दरअसल एक वासना-जनित मोह होता है, जो केवल लेना चाहता है — रूप, शरीर, साथ।
वासना हमेशा माँग करती है — "मुझे चाहिए", और प्रेम हमेशा देता है — "मैं तुम्हारे साथ हूँ"।
जब रमेश की अपेक्षाएँ टूटीं, जब उसका गुलाब ज़मीन पर गिरा और कविता की चुप्पी दीवार बन गई, तब उसे पहली बार एहसास हुआ कि वो जिसे प्रेम समझ रहा था, वह दरअसल उसकी अपनी कल्पना थी — आकर्षण से उपजा भ्रम।
लेकिन जब उसने फरजाना की मदद की, बिना किसी अपेक्षा, बिना किसी चाहत के — तब उसने निस्वार्थता सीखी। वही रमेश जिसने कभी चाय में अतिरिक्त शक्कर डालकर प्रेम को मिठास समझा था, अब केवल मदद करता था — खामोशी से, सम्मान के साथ।
वासना केवल शरीर माँगती है, प्रेम आत्मा को छूता है।वासना की भूख हमेशा पतन का कारण बनती है, प्रेम तो उन्नति देता है।
वासना बाँधती है, प्रेम मुक्त करता है।और जो प्रेम मुक्त न करे, सम्मान न दे — वह केवल भ्रम है, और उस भ्रम से जितनी जल्दी जाग जाओ, उतना अच्छा।
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