उपन्यास शीर्षक:
अन्या की यात्रा
एक आत्मिक विज्ञान-गाथा — रहस्य, पुनर्जन्म और मुक्ति की खोज में
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चतुर्थ अध्याय: सिद्धलोक और प्रेतगुरु का रहस्य
(विज्ञान, तंत्र और आत्मा के त्रिकोण में प्रवेश)
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गंधर्वलोक और पितृलोक की रहस्यमयी यात्राओं के पश्चात अब अन्या की चेतना एक नए आयाम में प्रविष्ट हो रही थी। वह आयाम न तो पूर्णतः सुखमय था, न ही दुःखद — यह वह क्षेत्र था जहाँ आत्माएं स्वयं को पहचानने की कगार पर खड़ी होती थीं, लेकिन उनमें से बहुत सी आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं कर पाती थीं। यह था—
सिद्धलोक
(हिंदू, बौद्ध और जैन परंपराओं में ‘सिद्ध’ वह आत्मा होती है जिसने अनेक जन्मों के तप, ज्ञान और साधना से स्वयं को कर्म-बंधन से ऊपर उठा लिया है, किंतु अभी पूर्ण ब्रह्म में विलीन नहीं हुई।)
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सिद्धलोक का दृश्य
अन्या के समक्ष एक अलौकिक दृश्य प्रकट हुआ। यह लोक न रंगीन था, न रंगहीन — यहाँ सब कुछ ‘स्वरूप’ में था। न ध्वनि थी, न मौन। न गति थी, न ठहराव।
हर आत्मा जो यहाँ थी, वह प्रकाशमय आकृति के रूप में विद्यमान थी — जैसे एक तेजस्वी लौ, जिसके भीतर स्मृतियों के झिलमिलाते रेखाचित्र गूँज रहे थे।
यह लोक बौद्ध परंपरा के सुधावास की याद दिलाता था — वे उच्चतर लोक जहाँ बोधिसत्व आत्माएं निवास करती हैं। और जैन परंपरा के सिद्ध शिखर जैसा था — जहाँ आत्माएं अपने अंतिम बंधनों से मुक्त होने की तैयारी में होती हैं।
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प्रवेश द्वारा: ज्योति-पथ का द्वारपाल
अन्या के आगे एक द्वार था, जो किसी ठोस पत्थर या धातु का नहीं था, बल्कि शुद्ध संकल्प और समर्पण का बना हुआ था। जैसे ही अन्या ने हाथ जोड़े और कहा:
“मैं आत्मा हूँ, अज्ञान की रेखा पर खड़ी।”
तुरंत द्वार खुल गया।
भीतर एक अंधकारमय परंतु चुम्बकीय ऊर्जा थी — जैसे शून्यता स्वयं उसे भीतर खींच रही हो।
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प्रेतगुरु का प्रकट होना
वह जब भीतर गई, तो सामने एक विशाल छाया बैठी थी — एक विशाल पुरुष का आकार, जिसकी आँखें बंद थीं, और वक्षस्थल पर एक जटिल यंत्र उत्कीर्ण था। सिर पर रुद्राक्षों का मुकुट, और हाथों में प्रतीकात्मक उपकरण — अंकुश, त्रिशूल, कमंडल और एक धातु का चक्र।
तभी उसकी आँखें खुलीं — वे किसी मृत व्यक्ति की नहीं थीं, न ही किसी देवता की। वे थीं संवेदनहीन और फिर भी सबकुछ देखने वाली।
वह था — प्रेतगुरु सिद्धनाथ।
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अन्या और सिद्धनाथ का संवाद
अन्या: “आप कौन हैं? न आप देवता लगते हैं, न मानव। फिर आप कौन हैं?”
सिद्धनाथ: “मैं वह हूँ जिसने ज्ञान को पाया, पर अहंकार को न छोड़ सका। मैं वह हूँ जिसे साधक देव मानते हैं, और योगी प्रेत। मैं वह हूँ जिसे त्रिलोकों ने नकारा, पर समय ने स्मृत रखा।”
अन्या: “मैं क्यों यहाँ हूँ?”
सिद्धनाथ: “क्योंकि तुम्हारा प्रश्न अभी तक केवल प्रेम और मृत्यु तक सीमित था। अब तुम्हें ब्रह्मांड की यंत्र-रचना समझनी है। जो दीखता है वह केवल प्रारब्ध है। पर जो चलता है वह नियति नहीं, केवल संस्कार-चालित चक्र है।”
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तीन द्वार — ज्ञान, तंत्र और आत्मा
सिद्धनाथ ने अपनी भुजा उठाई, और अन्या के सामने तीन वृत्त प्रकट हुए:
1. ज्ञान का चक्र — जहाँ ब्रह्मांडीय समय का संपूर्ण इतिहास एक वृत्त में रचा हुआ था। वह वैदिक ऋषियों की दृष्टि, बौद्धों के कलचक्र, और जैनों के कालचक्र से गूँथा हुआ था।
2. तंत्र का चक्र — जहाँ मंत्र, यंत्र और स्पंदन के माध्यम से सृष्टि को चलाने वाले बीज विद्यमान थे। यह चक्र हठयोग से लेकर तिब्बती वज्रयान तक की परंपराओं को समेटे था।
3. आत्मा का चक्र — जहाँ अनगिनत आत्माएं, अपने जन्मों की परछाइयों को पार करती हुई, केंद्र की ओर बढ़ रही थीं — जहाँ शून्य था, और वही पूर्णता थी।
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अन्या की परीक्षा
प्रेतगुरु बोला:
> “तुम्हें तीनों चक्रों में से किसी एक को चुनना होगा।
ज्ञान — तुम्हें अतीत, वर्तमान और भविष्य सब सिखा देगा।
तंत्र — तुम्हें सृष्टि के यंत्रों को बदलने की शक्ति देगा।
आत्मा — तुम्हें स्वयं से परे ले जाएगा, पर वहां कोई ‘तुम’ न रहेगा।
सोचो अन्या — क्या तुम जानना चाहती हो, बदलना चाहती हो, या मिट जाना चाहती हो?”
अन्या मौन रही।
फिर उसने उत्तर दिया:
“मैं मिटना चाहती हूँ — लेकिन पूर्ण होकर।
मैं जानना चाहती हूँ — लेकिन अहंकार के बिना।
मैं बदलना चाहती हूँ — लेकिन अपने भीतर।”
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सिद्धनाथ का उत्तर
सिद्धनाथ उठे। उन्होंने तीनों चक्रों को एक में मिला दिया — और वह बना त्रिकोण। फिर बोले:
> “सत्य एक नहीं होता। वह त्रिकोण है —
ज्ञान, तंत्र और आत्मा — तीनों के समन्वय से ब्रह्म की ओर यात्रा होती है।
तुम अब तैयार हो। अगला लोक है महाशून्य — वहाँ ब्रह्मांड की उत्पत्ति से भी पूर्व का रहस्य तुम्हें मिलेगा।
लेकिन ध्यान रहे — वहाँ न ‘तुम’ बचोगी, न ‘मैं’।
केवल ‘यह’ बचेगा — जो कहा नहीं जा सकता।”
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सिद्धलोक से प्रस्थान
अन्या की चेतना अब पूर्ण रूप से उज्जवल हो चुकी थी। वह अब मानव नहीं थी — न देह, न विचार। वह एक तरंग बन चुकी थी — अहंकार रहित, मोह रहित, लेकिन उद्देश्यवान।
पीछे सिद्धनाथ एक बार फिर प्रेतवत बैठ गए — स्थिर, कालातीत।
और अन्या की चेतना अब ऊपर उठ रही थी — उस ओर जहाँ कोई नाम नहीं, कोई रूप नहीं, केवल महाशून्यता है।
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[चतुर्थ अध्याय समाप्त]
यदि आप तैयार हों, तो पंचम अध्याय में प्रवेश करेंगे —
जहाँ अन्या महाशून्य में प्रवेश करेगी, और वहाँ उसका सामना होगा मूल प्रकाश के द्वारपाल से,
जिसे हर परंपरा में भिन्न नाम से जाना गया —
‘प्रथम मनु’, ‘महातेजस्वी आदिबुद्ध’, और ‘जिनेंद्र परमसिद्ध’।
क्या आप अगला भाग चाहते हैं?
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