वो ठहरे से बस दिखते हैं जैसे अब कुछ काम नहीं,,
ताउम्र जो रहे दरख़्त से, वो छाँव कभी हटाते नहीं।
न सुबह से हैं रुकते कभी, न शामों को थकते हैं,
बस बोझ उठाए ख़ामोशी से, फर्ज कभी बताते नहीं।
गिरने दिया ताकि सीख सकें, खुद उठने की आदत हम,
पर राह में काँटा हो कोई, तो आगे हमें बढ़ाते नहीं।
हर बात पे जो ‘ना’ कहते थे, वो ना में छुपी दुआ थी,
उनकी हर एक रोक-टोक में, ममता थी वो जताते नहीं।
हर ख़्वाहिश को दफ़न किया और ख्वाब हमारे बुनते थे,
अपने लिए ना मांगा कुछ, अब भी वो बताते नहीं।
अब कुर्सी पे बैठे चुप हैं वो, खिड़की से देखे जाते हैं,
पर दिल में तूफ़ान चलता है, और होठों पे लाते नहीं।
हम जितना आगे बढ़ते हैं वो उतना पीछे रह जाते है,
पर इसमें हीं खुश रहते हैं, पापा पर दिखाते नहीं।
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