शामत पर शामत आई,जनता दे रही दुहाई,
एक पुल जो बनी थी,दिनों में हीं चरमराई,और पूछते है साहब,कौन सी है आफत आई,
और क्या है तेरे किसी बाप की कमाई,
आंखों में कुछ शरम कर, जन गण का धन हरण कर
टिको ना तुम करम पर,भ्रष्टाचार है चरम पर,
भूखों का ले निवाला तुम भरते जठर ज्वाला,
कईयों के उदर खाली तुम भरते उदर ज्वाला,
सरकार के ये पैसे ,कैसे उड़ाते भाई,
जन गण निज हीं श्रम कर, ये घन उगाते भाई,
जन गण के संचित धन पर, कुछ तो तू रहम कर
टिको ना तुम करम पर,भ्रष्टाचार है चरम पर,
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