सीनियर एडवोकेट चढ्ढा जी, जो अदालत में तर्कों के तूफ़ान मचाने के लिए जाने जाते थे, उस दिन अपने जूनियर राघव के साथ दोपहर का भोजन कर रहे थे। राघव नया-नया आया था और कानून की दुनिया में अब तक उसे सिर्फ दो बातें समझ आई थीं — पहली, सीनियर को 'जी' लगाकर बुलाना अनिवार्य है, और दूसरी, कभी भी चाय के साथ समोसा शेयर मत करना।
राघव बड़े ही श्रद्धा भाव से चढ्ढा जी की हर बात को वैसे हीं सुन रहा था जैसे कक्षा में विद्यार्थी गणित की 'कैसे भी समझ में नहीं आने वाली प्रमेय' को सुनते हैं। तभी चढ्ढा जी की आँखें कोने में बैठे एक शख्स पर पड़ीं। उन्होंने राघव की ओर झुकते हुए रहस्यमयी स्वर में कहा:
"राघव, देखो उधर... वो हैं वर्मा जी। ज्ञान के साक्षात भंडार।"
राघव ने झट गर्दन घुमाई और देखा — एक व्यक्ति, जिसकी मूँछें पवनचक्की की तरह गोल थीं, चाय में बिस्कुट डुबोते हुए ध्यानमग्न मुद्रा में बैठे थे, मानो मानवाधिकार और मैरी बिस्किट के बीच कोई कानूनी सहमति कराने जा रहे हों।
वर्मा जी ने चढ्ढा जी की ओर देखा और सकुचाते हुए बोले,
"चढ्ढा जी, ये तो बड़े लोगों का बड़प्पन है जो उन्हें छोटे लोगों में अच्छाई दिख जाती है। हम जैसों की क्या औकात है आपके सामने?"
चढ्ढा जी मुस्कुरा दिए, जैसे किसी पुराने गवाह की गवाही उनके पक्ष में चली हो। बोले,
"वर्मा जी, सीनियर एडवोकेट तो क्रिकेट के कप्तान जैसी महज एक उपाधि है। धोनी कप्तान है, पर सचिन वाली बात उसमें कहाँ?"
वर्मा जी गदगद हो उठे। बोले,
"आपके तर्कों ने तो मुझे निरुत्तर कर दिया। साबित हो गया कि आप सीनियर एडवोकेट ऐसे ही नहीं बने हैं।"
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