Monday, July 7, 2025

माया का अरण्य-एक रहस्यपूर्ण यात्रा

हिमालय की तलहटी में, बादलों से ढके एक पुराने गाँव की तंग गलियों में अक्सर एक रहस्यमय अरण्य की कहानियाँ गूँजती थीं। कहते थे, वह अरण्य बाहर से उतना ही गहरा था जितना भीतर से—हर टेढ़ी शाख़, हर झुकती परछाईं, हर पत्ता किसी न किसी दबी हुई इच्छा का अक्स बनकर सामने आता था।

इसी गाँव में रहते थे तीन मित्र—अर्जुन, मालविका और नितिन।
अर्जुन, ऊँची कद-काठी, गंभीर आँखों वाला; उसके दिल में एक अनकहा प्रश्न पलता था—क्या ऐसा प्रेम संभव है जो कभी ख़त्म न हो?
मालविका, चश्मा ठीक करते हुए दुनिया को तौलती नज़र से देखती; वह सच जानने को बेचैन रहती थी, वह ज्ञान चाहती थी जो हर भ्रम को चीर दे।
और नितिन—तीनों में सबसे हँसमुख, मज़ाक उड़ाने में माहिर, पर भीतर से एक ऐसे सुख की तलाश में, जो सोमवार की सुबह भी साथ रहे।

कई बार चौपाल पर, धूप के उतरते-उतरते, तीनों की बातें इसी रहस्यमय अरण्य पर आ टिकतीं।
नितिन हँसी में उड़ा देता, “अरे यार, कोई जंगल तुम्हें प्रेम, ज्ञान या सुख थाल में रखकर थोड़ी देगा!”
मालविका हल्की मुस्कुराहट के साथ कहती, “पर अगर वह जंगल सच में हमारे भीतर का ही प्रतिबिंब है, तो क्यों न एक बार देखा जाए?”
और अर्जुन, जो बाहर से सबसे शांत दिखता, भीतर से सबसे बेचैन था—धीमे स्वर में कहता, “शायद वही हमें उस प्रश्न का उत्तर दे सके, जो अब तक किसी से नहीं मिला…”

एक बार शाम को, जब हवा में नमी थी और चाय की भाप में पहाड़ों की ठंडक घुल रही थी, नितिन ने हल्के अंदाज़ में कहा,
“सुना है, जो सच्चे दिल से जाए, उसे वहाँ कुछ न कुछ ज़रूर मिलता है… या कम से कम कुछ ऐसा दिखता है, जो सारी ज़िंदगी याद रहे!”

मालविका की आँखें चमक उठीं, “अगर सच में कुछ मिला तो?”
अर्जुन ने थोड़ी देर चुप रहकर कहा, “तो कल सुबह चलते हैं।”
नितिन ने हँसकर कहा, “सच कहूँ तो कल रविवार है… बाकी कुछ न भी मिला, तो पिकनिक तो हो ही जाएगी!”

अगली सुबह, जब सूरज की पहली किरण पहाड़ की चोटी को छू रही थी, तीनों चल पड़े। रास्ता पथरीला था, जंगली फूलों की महक हवा में घुली थी, और मन में एक हल्का सा डर भी।

जैसे-जैसे वे भीतर बढ़े, पेड़ों की छाँव घनी होती गई। धूप के टुकड़े ज़मीन पर गिरते तो ऐसा लगता जैसे कोई पुरानी भाषा में कुछ लिख रहा हो। दूर कहीं चिड़ियों की आवाज़ आती, तो लगता वे भी कुछ कहना चाहती हैं।

तभी अचानक धुंध के बीच से एक वृद्ध साधु प्रकट हुए। उनका चेहरा जैसे समय की सिलवटों से बना हो, और आँखें गहरी झील की तरह शांत।

साधु ने धीमे से पूछा, “तुम लोग क्या ढूँढने आए हो?”

अर्जुन थोड़ा हिचकिचाया, पर बोला, “ऐसा प्रेम जो डर से परे हो… जो ख़त्म न हो।”
मालविका ने आत्मविश्वास से कहा, “मुझे ऐसा ज्ञान चाहिए जो हर भ्रम को पार कर जाए।”
नितिन मुस्कुराया, “और मुझे ऐसा सुख, जो सोमवार की अलार्म घड़ी से भी न डरे!”

साधु की मुस्कान थोड़ी गहरी हो गई, “याद रखो, यह अरण्य तुम्हारे मन का दर्पण है। जो भीतर है, वही बाहर दिखेगा… मगर जो यहाँ दिखेगा, वह स्थायी नहीं होगा।”

इतना कहकर वे धुंध में खो गए।

नितिन ने धीरे से कहा, “उम्मीद है टिकट नहीं कटेगा!”
मालविका हँसी, पर उसकी आँखों में हल्का संशय भी था।

थोड़ा और आगे बढ़ते ही हवा जैसे भारी हो गई। पेड़ों की शाखाएँ आपस में गुँथकर एक रास्ता बना रही थीं, जैसे उन्हें बुला रही हों।

तभी अर्जुन के सामने एक स्वर्ण महल उभर आया। उसकी मीनारों पर सूरज की किरणें नाच रही थीं, दीवारें रहस्य से सजी थीं, और दरवाज़े पर लिखा था—“अमर प्रेम”।

अर्जुन का दिल तेज़ी से धड़कने लगा। यह वही था, जिसकी उसे तलाश थी। उसने हाथ बढ़ाया, पर जैसे ही दीवार को छुआ, महल रेत की तरह ढह गया, और सुनहरी धूल उड़कर आसमान में गुम हो गई। अर्जुन की मुट्ठी में कुछ पल के लिए धूल थी, पर वह भी हवा में विलीन हो गई।

नितिन ने मज़ाक में कहा, “तेरे लिए स्पेशल ऑर्डर था, पर वारंटी छोटी थी!”
अर्जुन ने मुस्कुरा कर देखा, पर उसकी आँखों में थोड़ी नमी थी।

थोड़ी दूर, मालविका के सामने एक विशाल पुस्तक प्रकट हुई, “सर्वज्ञान” शीर्षक के साथ। पन्नों से रोशनी फूट रही थी, जैसे हर उत्तर उसमें छुपा हो।

मालविका ने काँपते हाथों से पहला पन्ना खोला… शब्द धुंधले होने लगे, पन्ने स्याह हो गए, और कुछ ही पलों में पूरी किताब हवा में गायब हो गई।

नितिन बोला, “लो, तेरी किताब भी ऑफलाइन हो गई!”
मालविका हल्का सा मुस्कुराई, पर उसकी मुस्कुराहट के पीछे निराशा छुपी थी।

अब नितिन के सामने एक नीला सरोवर उभरा। उसकी लहरों पर चाँदी की चमक थी, और लहरों पर शब्द उभरे—“अविनाशी सुख”।

नितिन ने मज़ाक में कहा, “चलो, देखते हैं ये कितनी देर ठहरता है!”
जैसे ही उसने पानी छूना चाहा, पूरा सरोवर काले धुएँ में बदलकर गायब हो गया।

नितिन ने कंधे उचका कर कहा, “कम से कम सेल्फ़ी तो खींच लेता!”

थोड़ी देर तीनों चुप रहे। हवा में कुछ बदल गया था। अरण्य अब और भी गहरा लगने लगा, पर डर कम था, और जिज्ञासा ज़्यादा।

वे अरण्य के बीचों-बीच एक पुराने पीपल के पेड़ के नीचे बैठ गए। अब हवा भी शांत थी, मानो सब देख रही हो।

वही वृद्ध साधु फिर प्रकट हुए।

साधु ने पूछा, “कहो, क्या पाया?”

अर्जुन ने धीमे स्वर में कहा, “प्रेम को पकड़ना चाहा, वह रेत बनकर उड़ गया।”
मालविका बोली, “ज्ञान को पाना चाहा, वह धुंध बन गया।”
नितिन ने हँसते हुए कहा, “और सुख को छूना चाहा, वह धुएँ में बदल गया!”

साधु थोड़ी देर चुप रहे, फिर बोले, “यही इच्छा का स्वभाव है—वह प्रतीक से जन्म लेती है। महल, पुस्तक, सरोवर… ये प्रतीक हैं। प्रतीक मन को स्पर्श करते हैं, संवेदना जगाते हैं, फिर इच्छा उन्हें थामना चाहती है। पर प्रतीक क्षणिक हैं, इसलिए अंत में खालीपन ही बचता है।”

मालविका ने पूछा, “तो क्या चाहना ही छोड़ दें?”
साधु बोले, “छोड़ने की कोशिश भी इच्छा है। बस देखो—पूरी ईमानदारी से, बिना भागे, बिना पकड़े। प्रतीक आएँगे, जाएँगे, पर जब तुम देख लोगे कि वे टिकने वाले नहीं, तब मन मौन हो जाएगा। और उस मौन में वही प्रेम, वही ज्ञान, वही सुख प्रकट होगा, जो किसी रूप में बँधता नहीं।”

उस क्षण तीनों की आँखों में हल्की मुस्कुराहट थी—न कोई भारीपन, न कोई शिकायत।

अर्जुन ने आँखें बंद कीं, और उसने एक ऐसा प्रेम महसूस किया, जो किसी के होने या न होने पर निर्भर नहीं था।
मालविका को एहसास हुआ कि असली ज्ञान सवालों के पार मौन में है।
और नितिन ने पहली बार ऐसा सुख चखा, जिसके लिए कोई वजह नहीं चाहिए थी।

जब वे गाँव लौटे, सब वही था—वही रास्ते, वही चौपाल, वही चाय की दुकान। पर अब उनके भीतर कुछ बदल चुका था। न दौड़ थी, न डर। बस एक सहज मौन और हल्की सी मुस्कुराहट… और वही उस रहस्यमय अरण्य का असली उपहार था।

और शायद यही सबसे बड़ा रहस्य था—इच्छा प्रतीक से बंधती है; पर जब तुम प्रतीक को बस देखना सीख जाते हो, तब इच्छा का बंधन टूट जाता है… और जो शेष रहता है, वही सच्चा है।

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