दफ़्तर का वह कमरा जहाँ चाय की केतली रोज़ाना समय से पहले सीटी मारती थी, कम्प्यूटर की मशीनें खुद से पहले जाग जाती थीं और कर्मचारी नींद से लड़ते हुए टेबल पर टकरा-टकरा कर जागते थे—वहीं एक कोने में भगवती सफ़ाई में लगी रहती थी। कोई उसे धन्यवाद नहीं देता, पर वो हर कोने को वैसे ही चमकाती जैसे किसी मंत्री का दफ़्तर हो।
उसी चमकाने की प्रक्रिया में, एक दिन भगवती की नज़र कुछ टेढ़ा-मेढ़ा, धातु जैसा चमकते हुए एक चीज़ पर पड़ी। धूल में सना हुआ, हल्का जंग लगा और बेइज़्ज़ती से झुका हुआ—वह था एक पुराना, भूला-बिसरा क्लिप।
अब भला आज के समय में क्लिप की भी कोई ज़रूरत है? भगवती ने उसे देखा, फिर मन में सोचा, "ये तो वो चीज़ है जो कभी बाबू लोगों की जान हुआ करती थी, आजकल तो हर कोई कहता है– ‘भेज दो’, ‘स्कैन कर लो’, ‘मेल डाल दो’! और हम जैसे लोग जो झाड़न चलाते हैं, उन्हें भेजने के लिए झाड़न का कोई बटन नहीं होता क्या?”
क्लिप वहीं पड़ा रहा, जैसे कोई बूढ़ा सैनिक रिटायरमेंट के बाद अख़बार के कोने में बैठा हो, जिसे ना कोई पूछता है, ना कोई सलाम करता है। कभी वह भी कुर्ते की जेब में गर्व से बैठता था, किसी फाइल के ऊपर शान से कसता था, और बाबू लोग उसे टेढ़ा करते हुए कहते थे— "कस दीजिए इसे, वरना पन्ने भाग जाएँगे।" अब तो फाइलें बादलों में रहती हैं और दस्तावेज़ हवा में आते-जाते हैं।
क्लिप मन ही मन बड़बड़ा रहा था, "एक ज़माना था जब हम कागज़ों को जोड़ा करते थे, और आज देखो, लोग रिश्ते तक अनजाने ‘लॉग-इन’ से जोड़ लेते हैं! और जब टूटते हैं तो कहते हैं, ‘नेटवर्क इशू था’!”
इसी दफ़्तर में एक चरित्र और था—रघुनाथ बाबू। वो उन विरले जीवों में से थे जो आज भी कागज़ में विश्वास रखते थे। उनके पास फाइलों का ढेर रहता था, इतना कि अगर उसे जलाया जाए तो कैंटीन में महीने भर की रोटियाँ सेंकी जा सकें। उन्हें डिजिटल माध्यम से भय था, और उनके कंप्यूटर का ‘माउस’ अक्सर आलू के चिप्स की तरह व्यवहार करता था—ना क्लिक करता, ना सरकता।
और एक दिन, वही हुआ जो अक्सर तब होता है जब कोई चीज़ भूली जाती है। एक बड़ी मीटिंग थी। बाहर आंधी चल रही थी और भीतर रघुनाथ बाबू अपने पन्नों की सेना लेकर बैठे थे। खिड़की खुली और एक झोंका आया। यह झोंका सिर्फ़ हवा नहीं था, यह उन सारे दस्तावेज़ों की आज़ादी का पैग़ाम था जिन्हें सालों से क्लिप का इंतज़ार था। पन्ने उड़ने लगे। किसी का वेतन-पत्र, किसी की छुट्टी-अनुमोदन पर्ची, और किसी का बकाया बिल—सब उड़ते हुए मानो नाच कर कह रहे थे, "हमें क़ैद नहीं चाहिए!"
प्रबन्धक जी की टाई भी हल्की सी हिल गई। उन्होंने अपनी गम्भीर आवाज़ में कहा, “रघुनाथ बाबू, क्या आप सच में अपने कागज़ों को पंख लगाने का प्रशिक्षण दे रहे हैं?”
रघुनाथ बाबू को जैसे बिजली का झटका लगा। अब तो उनका आत्म-सम्मान भी पन्नों के साथ उड़ने को तत्पर था।
उसी क्षण भगवती को कुछ याद आया। वो दौड़ी और उस कोने से, जहाँ क्लिप अब तक अनदेखा पड़ा था, उसे उठाया। उसके पल्लू से क्लिप को रगड़ा। एक समय के योद्धा की तरह क्लिप फिर से चमकने लगी। तन से भले ही हल्का जंग रहा हो, पर मन अब भी लोहे का था।
भगवती ने बिना कुछ कहे, कागज़ों को एकत्र किया और क्लिप को ऐसे कसा जैसे वो किसी अंतिम परीक्षा में बैठा हो। और फिर सब कुछ थम गया। पन्ने शांत। मीटिंग शांत। प्रबन्धक की भौंहें भी, पहली बार, नीचे की ओर झुकीं।
रघुनाथ बाबू की आँखों में आँसू थे—या तो गर्व के, या डर के कि कहीं अब क्लिप भी रिटायर न कर दी जाए।
प्रबन्धक बोले, "आज की इस संकट घड़ी में, जब ईमेल फेल हो जाता, क्लाउड गायब हो जाता और बैकअप भी बैकफुट पर चला जाता—तब ये छोटी-सी क्लिप हमारी साख बचा गई।"
क्लिप मुस्कुरा नहीं सकी, क्योंकि उसमें मुँह नहीं था। पर अगर होता, तो शायद कहती, "आज भी जो जोड़ता है, वही टिकाता है।"
उसी दिन से क्लिप को डिब्बे में नहीं, टेबल पर रखा गया। अब वह केवल धातु की वस्तु नहीं थी, वह भरोसे की आख़िरी रेखा बन चुकी थी।
और संध्या, जो रोज़ कहती थी "मैं सब डिजिटल कर देती हूँ", उस दिन चुपचाप नोट्स लेने लगी… कागज़ पर, और... हाँ, उन्हें क्लिप से जोड़कर।
क्लिप जानती थी कि ये युग कितना भी बदल जाए, जब कुछ सच में बिखरता है, तब पी. डी. एफ. नहीं, वही पुरानी, धातु की क्लिप काम आती है।
दफ़्तर में चाहे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आ जाए, चाहे बॉस 'क्लाउड में सोचो' कहें—पर जब खिड़की खुले और पन्ने भागने लगें, तो वही क्लिप काम आती है जो छुट्टी भी नहीं मांगती और प्रमोशन की भी उम्मीद नहीं रखती।"
इसलिए ध्यान रखें — जीवन हो या दफ़्तर, रिश्ते हों या रिपोर्ट, जोड़ने वाला हमेशा चुप होता है, पर उसी से सब जुड़ा रहता है। और हाँ… कभी भूल से भी झाड़न को कम मत आँकना — वरना अगली बार आपकी प्रतिष्ठा भी रद्दी के साथ बह सकती है!
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