Thursday, July 3, 2025

शब्दों के दाँव

हस्तिनापुर के राजसभा भवन की विशाल और भव्य छत पर लगे सुवर्णकलश प्रातःकालीन सूर्य की स्वर्णिम किरणों से दमक रहे थे। जैसे-जैसे सूर्य की आभा तीव्र होती गई, सभा के गुंबद पर जड़ा हर रत्न, हर नक्काशीदार पत्थर अपने भीतर सजीवता का एहसास कराने लगा। सभा भवन के भीतर भी रोशनी की लहरें फैल गईं, जिनसे वहाँ उपस्थित हर व्यक्ति का चेहरा मानो प्रकाश में नहाया हुआ प्रतीत हो रहा था। सभा का मंडप भरा हुआ था — राजकुल के पराक्रमी योद्धा, दूर-दूर से पधारे नरेश, ऋषि-मुनि, विद्वानजन और पुरोहितगण सभी वहाँ एकत्र थे।

परंतु उस दिन की भव्यता के बीच भी हवा में एक अदृश्य उदासी तैर रही थी। उपस्थित सभी को आभास था कि कुछ असाधारण होने वाला है — कुछ ऐसा, जो केवल वर्तमान को नहीं, बल्कि सम्पूर्ण भविष्य को बदल देगा। जैसे कोई अलक्षित तूफ़ान सभा भवन की अदृश्य परिधि पर दस्तक दे रहा हो।

सिंहासन पर महाराज धृतराष्ट्र विराजमान थे। उनकी नेत्रहीन आँखें बाहर से स्थिर दिखती थीं, पर भीतर कहीं मन में लहरें उठ रही थीं — भय, शंका और एक अव्यक्त दुःख की लहरें। वे जानते थे कि उनका पुत्र दुर्योधन जो कुछ करने जा रहा है, वह अनर्थ का मार्ग खोल सकता है, फिर भी वे उसे रोक पाने में असमर्थ थे।

सभा के एक ओर पांडव खड़े थे — युधिष्ठिर, जिनका चेहरा गम्भीर था और मस्तक पर चिंता की रेखाएँ साफ़ झलक रही थीं; उनके ठीक पीछे भीम, जिनके वक्षस्थल की मांसपेशियाँ क्रोध से तन गई थीं और आँखों में आक्रोश की ज्वाला दहक रही थी; अर्जुन, जिनकी दृष्टि बार-बार सभा में बैठे राजाओं की ओर जाती और फिर तुरंत लौटकर शकुनि पर टिक जाती; नकुल और सहदेव भी मौन थे, परन्तु उनके चेहरे पर गहन असमंजस और व्याकुलता की छाया थी।

दूसरी ओर कौरवों की पंक्ति में दुर्योधन की आँखों में एक विचित्र उत्साह की चमक थी, मानो विजय उसे पहले से ही दृष्टिगोचर हो रही हो। उसके पीछे खड़ा था गांधार का राजा शकुनि — मुख पर स्थिर मुस्कुराहट, दृष्टि में अडिग आत्मविश्वास, और मन में अचूक योजना। उसके मुखमंडल पर वह रहस्यमय संतोष था, जो केवल वही व्यक्ति धारण कर सकता है जिसने चाल रच दी हो और विरोधी को जाल में फँसते देख रहा हो।

सभा की गहन चुप्पी को धृतराष्ट्र की गूँजती हुई आवाज़ ने भंग किया। उन्होंने सभा के समक्ष द्यूत क्रीड़ा का प्रस्ताव रखा। क्षणभर के लिए सभा में एक सिहरन-सी दौड़ गई। युधिष्ठिर का मन भीतर से कांप उठा। उन्हें स्मरण था कि द्यूत क्रीड़ा कितने अनर्थ ला सकती है। वे जानते थे कि इस खेल के पीछे दुर्योधन और शकुनि का कोई न कोई षड्यंत्र छुपा है। उनका अंतर्मन कह रहा था कि यह केवल विनोद का खेल नहीं होगा, अपितु परिणाम भयावह होंगे।

युधिष्ठिर का मन धर्म और भय के बीच झूलने लगा। वे सोचने लगे कि क्या धर्म केवल बाहरी मर्यादा निभाना है, या भीतर की चेतना की पुकार को सुनना भी धर्म का ही रूप है? उनके लिए यह प्रश्न इतना सरल नहीं था — यह उनके अस्तित्व का प्रश्न था।

सभा का वातावरण अब और भी गम्भीर हो चुका था। तभी शब्दों का खेल आरम्भ हुआ। वह खेल जिसमें न तो तलवारें खिंचीं, न ही किसी ने शस्त्र उठाए — केवल शब्द थे, पर वे शब्द किसी भी अस्त्र से अधिक घातक सिद्ध हो सकते थे।

शकुनि की आँखों में छल की चमक उभरी। वह मुस्कुराते हुए बोला: “धर्मराज! आप तो स्वयं को सत्यवादी कहते हैं। क्या आप द्यूत को अधर्म मानते हैं?”

युधिष्ठिर का मन जैसे चौंक गया। वे जानते थे कि जुआ अधर्म की ओर ले जाता है, पर वे क्षत्रिय भी थे — जिन्हें किसी भी चुनौती से पीछे हटना समाज में कायरता का प्रतीक माना जाता। क्षणभर के लिए सभा में बैठे सभी राजाओं, मंत्रियों और ऋषियों की दृष्टि उन पर टिक गई।

युधिष्ठिर ने संकोच से उत्तर दिया: “हाँ, जब इसका दुरुपयोग हो, तो यह अधर्म है। परन्तु यदि दोनों पक्ष समान रूप से खेलें, तो यह केवल एक खेल है। किन्तु मामा, यह खेल प्रायः दुर्भावना का कारण बनता है, और संबंधों में विष घोल देता है।”

शकुनि की मुस्कुराहट और गहरी हो गई। वह जानता था कि धर्मराज को सीधे युद्ध के लिए उकसाना व्यर्थ होगा। उसने युधिष्ठिर की आस्था, उनके धर्मबोध और सबसे बढ़कर क्षत्रिय प्रतिष्ठा को लक्ष्य किया। सभा के समक्ष उसने चुनौती दी: “तो क्या आप जैसे क्षत्रिय इस खेल से डरते हैं? क्या श्रेष्ठ योद्धा बुद्धि के युद्ध से भाग सकते हैं?”

सभा में कानाफूसी शुरू हो गई। सभा में बैठे कई नरेशों ने नजरें उठाकर युधिष्ठिर की ओर देखा — उनके नेत्रों में जिज्ञासा भी थी और अनकहा दबाव भी। युधिष्ठिर ने सभा पर दृष्टि डाली — यह दृष्टि उन पर बोझ की तरह थी, मानो वह क्षण-क्षण उनका साहस परख रही हो।

युधिष्ठिर ने धीमे स्वर में कहा: “मेरा संदेह अपने मन पर नहीं, इस खेल की निष्पक्षता पर है। आप पासों के अद्वितीय ज्ञाता हैं, और मैं इस विद्या में निष्णात नहीं। क्या ऐसा असमान खेल धर्म के अनुकूल होगा?”

शकुनि का मुख तिरछी मुस्कुराहट से खिल उठा। उसने सभा की ओर देखते हुए कहा: “धर्मराज! क्या चतुरता पाप है? क्या आप अपने भाइयों की नीति, बुद्धि और संयम पर भरोसा नहीं रखते? क्या आप सभा में स्वीकार करेंगे कि आप जैसे धर्मज्ञ, मुझ जैसे वृद्ध से हार जाएँगे?”

सभा में सन्नाटा पसर गया। यह सीधा प्रहार था युधिष्ठिर के आत्मविश्वास पर। सभा की मौन दृष्टि अब उन पर और भी गहराई से टिकी थी।

युधिष्ठिर के भीतर द्वंद्व चरम पर पहुँच गया। धर्म की रक्षा कैसे हो? क्या इनकार कर देना धर्म है, या चुनौती स्वीकार करना? उनके मुख पर चिंता की रेखाएँ और गहरी हो गईं।

शकुनि ने अंतिम प्रहार किया: “धर्मराज! क्षत्रिय का कर्तव्य है युद्ध करना — और द्यूत भी तो एक युद्ध है, मस्तिष्क का युद्ध। धर्म तो यही कहता है कि कर्तव्य करो, फल की चिंता मत करो। यदि आप भविष्य के भय से वर्तमान कर्तव्य का त्याग करेंगे, तो क्या यह भी धर्म के विपरीत नहीं होगा?”

युधिष्ठिर का हृदय मानो काँप उठा। वे यह भाँप गए कि सभा में उनका इनकार कायरता माना जाएगा। उनके अंतर्मन ने फिर भी चेतावनी दी कि यह खेल अनर्थकारी होगा, परंतु धर्म की मर्यादा का पालन और क्षत्रिय गौरव का दबाव भारी पड़ गया।

सभा के मध्य बहुमूल्य पासे लाए गए — सुन्दर, चिकने और चित्ताकर्षक। शकुनि ने पासों को हाथ में लेकर धीरे से कहा: “धर्मराज! आपके और मेरे बीच यह खेल निष्पक्ष होगा। परन्तु पासे मैं चलूँगा, क्योंकि दुर्योधन मेरे पक्ष में खेल रहा है, और आप अपने पक्ष में।”

युधिष्ठिर का मन फिर डगमगाया — यह शर्त अन्यायपूर्ण थी। उन्होंने प्रश्न किया: “क्या आप मुझसे निष्पक्षता छीनना चाहते हैं?”

शकुनि तुरंत बोला: “क्या आप मुझ पर अविश्वास करते हैं? क्या यह धर्म के विरुद्ध नहीं है?”

वह तर्क इतना सशक्त था कि सभा भी मौन हो गई। युधिष्ठिर के भीतर की नैतिकता और बाहरी सम्मान की जंग में बाहरी दबाव जीत गया। उन्होंने सिर झुकाकर मौन सहमति दे दी।

उसी क्षण दुर्योधन की दृष्टि में असीम संतोष था, और शकुनि के चेहरे पर हल्की मुस्कुराहट फैल गई — क्योंकि युद्ध उसने जीत लिया था, बिना कोई पासा फेंके, केवल शब्दों की शक्ति से।

यह वह क्षण था जब शकुनि ने धर्मराज को उनके अपने सिद्धांतों की बेड़ियों में बाँध दिया। वह खेल जो अब शुरू होना था, उसके परिणाम पूर्वनिश्चित थे। और यही सबसे बड़ी विडंबना थी — कि युधिष्ठिर ने धर्म की रक्षा के लिए जो निर्णय लिया, वही निर्णय उनके धर्म की सबसे कठोर परीक्षा बन गया।

उस दिन सभा में कोई रक्त नहीं बहा, कोई तलवार नहीं खिंची, परंतु एक धर्मात्मा राजा की अंतरात्मा पर पहला घाव लगा। वह अदृश्य घाव ऐसा था, जिसने आगे चलकर महाभारत के महायुद्ध की भूमिका रच दी — एक युद्ध, जिसने इतिहास को रक्तरंजित अध्याय में बदल दिया। वह युद्ध जिसने लाखों और करोड़ों लोगो को मृत्यु का ग्रास बना दिया.

और उस दिन उस सभा में सबने देख लिया कि सबसे घातक शस्त्र तलवार नहीं, बल्कि शब्द होते हैं — और सबसे बड़ा छल वही होता है, जो धर्म के नाम पर किया जाए।

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