हस्तिनापुर की सभा उस दिन सामान्य नहीं थी। शंख नहीं बजे थे, न ही कोई उत्सव था, फिर भी राजसभा को स्वर्णाभूषणों से सजाया गया था। हाथीदांत की वेदिकाएँ, मणियों से जड़े आसन, और सुगंधित धूपों से महकता वातावरण — ये सब किसी गूढ़ आयोजन की ओर संकेत कर रहे थे।
इस आयोजन का नाम था – "जुआ क्रीड़ा"। पर यह केवल एक खेल नहीं था। यह एक षड्यंत्र था, जिसे रचा था दुर्योधन ने, अपने मामा शकुनि के साथ मिलकर।
उन्हें पता था कि यदि वे धर्मराज युधिष्ठिर को सीधे युद्ध के लिए उकसाएँगे तो वे इंकार कर देंगे। लेकिन यदि उन्हें धर्म और क्षत्रिय प्रतिष्ठा के नाम पर ललकारा जाए — तो वे स्वयं को रोके नहीं पाएँगे।
सभा में युधिष्ठिर का प्रवेश हुआ। वे शांत थे, जैसे जल की गहराई, पर भीतर एक तर्क और धर्म का तूफान हमेशा की तरह चलता रहता था। उन्होंने जैसे ही सिंहासन पर स्थान लिया, शकुनि ने सभा के मध्य से उठकर उन्हें ध्यानपूर्वक देखा।
शकुनि का चेहरा शांति से भरा था, पर उसकी आँखों में एक चालबाज की गहराई थी। उसने धीरे-धीरे सभा को संबोधित किया, फिर युधिष्ठिर की ओर अपनी राजनीति की बिसात बिछा दी।
शब्दों का खेल शुरू हो चुका था।
वह खेल जिसमें कोई पासा नहीं था, कोई अंक नहीं, कोई दाँव नहीं — केवल शब्द थे। पर वे शब्द इतने तीव्र, इतने पैने थे कि किसी तलवार से अधिक घाव कर सकते थे।
शकुनि ने युधिष्ठिर के आदर्शों को, उनके धर्मबोध को, और सबसे बढ़कर उनके राजसी गौरव को निशाना बनाया।
उसने सभा के समक्ष युधिष्ठिर को बताया कि जो क्षत्रिय बुद्धिमानों को हरा नहीं सकता, वह श्रेष्ठ नहीं कहलाता। उसने बार-बार यह संकेत किया कि युधिष्ठिर इस खेल से पीछे हटकर समाज के सामने कायर सिद्ध हो सकते हैं। सभा में बैठे राजाओं और मंत्रियों की चुप्पी ने इन बातों को और वज़न दे दिया।
युधिष्ठिर के हृदय में हलचल मच चुकी थी। वे जानते थे कि जुआ अधर्म है। वे जानते थे कि यह रास्ता विनाश की ओर जाता है। पर वे यह भी जानते थे कि यदि उन्होंने इसे अस्वीकार किया — तो क्षत्रिय धर्म की मर्यादा पर प्रश्न उठेगा। वे सोच में पड़ गए — क्या धर्म का पालन करना ही सच्चा धर्म है, या प्रतिष्ठा की रक्षा करना भी धर्म का ही रूप है?
सभा अब युधिष्ठिर के उत्तर की प्रतीक्षा कर रही थी। चारों ओर मौन था, पर वह मौन नहीं — एक दबाव था, एक बोझ था जो धर्मराज के कंधों पर रख दिया गया था।
और फिर... युधिष्ठिर बोले नहीं — वे केवल मौन स्वीकृति की मुद्रा में सिर झुकाकर बैठ गए।
वही क्षण था — जब शकुनि जीत गया था।
शब्दों के उस खेल में, जिसमें कोई पासा नहीं फेंका गया था, शकुनि ने युधिष्ठिर को उन्हीं के सिद्धांतों की जंजीरों में बाँधकर खेल के लिए विवश कर दिया था। अब जबकि खेल शुरू नहीं हुआ था, शकुनि ने पहले ही युद्ध जीत लिया था।
उसने धर्मराज को उस मार्ग पर ला खड़ा किया था जहाँ हर दाँव उनके सिद्धांतों की नींव हिला सकता था। अब शकुनि को केवल पासे फेंकने थे — और परिणाम पहले से ही तय था।
और यही इस कहानी की सबसे गहरी विडंबना थी —
कि युधिष्ठिर ने जुआ खेलने का निर्णय धर्म की रक्षा के लिए लिया था, पर वे यह नहीं समझ पाए कि धर्म की सबसे बड़ी परीक्षा तब होती है जब अधर्म स्वयं धर्म का मुखौटा पहनकर सामने आता है।
शकुनि की चाल सफल हुई — क्योंकि उसने शस्त्र नहीं, शब्द चलाए।
और उस दिन की सभा में, जहाँ कोई खून नहीं बहा, कोई घाव नहीं हुआ —एक धर्मात्मा राजा की अंतरात्मा पर पहला घाव लग चुका था। वह घाव अदृश्य था, पर उसके फलस्वरूप जो युद्ध आगे चलकर होना था, वह इतिहास का सबसे रक्तरंजित अध्याय बना।
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