Saturday, April 12, 2025

गांधी और बुद्ध गलत नहीं थे— गलत हमने उन्हें ठहराया

गांधी और बुद्ध गलत नहीं थे— गलत हमने उन्हें ठहराया

इतिहास महान आत्माओं को श्रद्धा से याद करता है, लेकिन उनके द्वारा दिखाए गए मार्ग की कठिनाइयों से अक्सर कतराता है। भगवान बुद्ध और महात्मा गांधी ने केवल अहिंसा, करुणा और सत्य का उपदेश नहीं दिया, बल्कि उसे अपने जीवन में पूरी तरह से जिया। वे धरती पर इसीलिए नहीं आए थे कि हम उन्हें केवल पूजा के योग्य मानें, बल्कि इसलिए कि हम उनके पदचिन्हों पर चलें। लेकिन समय के साथ हमने उनके विचारों की सराहना तो की, परंतु उन्हें अपने जीवन में अपनाने का साहस नहीं दिखाया। उनकी शिक्षाएं असफल नहीं हुईं—बल्कि हमने उन्हें असफल कर दिया।

पूजा की गई, अपनाया नहीं गया

महात्मा गांधी द्वारा प्रतिपादित अहिंसा का मार्ग कोई निर्बलता नहीं थी, बल्कि एक सशक्त नैतिक प्रतिरोध का तरीका था। जब उन्होंने कहा, "यदि कोई तुम्हें एक थप्पड़ मारे, तो दूसरा गाल आगे कर दो," तो उनका उद्देश्य कायरता नहीं, बल्कि हिंसा के चक्र को तोड़ना था। 1930 का नमक सत्याग्रह इसका जीवंत उदाहरण है—हजारों लोगों ने ब्रिटिश कानूनों के विरुद्ध शांतिपूर्ण विरोध किया, और बर्बर दमन सहा, परंतु प्रतिशोध नहीं लिया। आज हम गांधी जी की वीरता की प्रशंसा करते हैं, लेकिन उनके अनुशासन को अपने जीवन में लागू नहीं करते। हम परिणाम चाहते हैं, लेकिन प्रक्रिया को नकारते हैं।

भगवान बुद्ध की करुणा भी केवल सिद्धांत नहीं थी—वह एक परिवर्तनकारी शक्ति थी। अंगुलिमाल की कथा प्रसिद्ध है—एक भयानक डाकू, जिसने सौ से अधिक लोगों की हत्या की, जब बुद्ध से मिला, तो केवल उनकी शांत उपस्थिति और प्रेमपूर्ण दृष्टि से उसका हृदय परिवर्तित हो गया। वह संन्यासी बन गया और करुणा के मार्ग पर चल पड़ा। लेकिन आज हम यह कथा तो सुनते हैं, पर वास्तविक जीवन में किसी अपराधी के सुधार की संभावना को तुरंत नकार देते हैं। हमने बुद्ध की करुणा को केवल कथा बना दिया, जीवन का मार्ग नहीं।

हमने उन्हें देवता बना दिया ताकि न चलना पड़े

हमने गांधी और बुद्ध को इतने ऊँचे आसन पर बैठा दिया कि अब उन्हें छू पाना असंभव लगता है। यह एक सुविधाजनक तरीका है खुद को ज़िम्मेदारी से बचाने का। जब हम कहते हैं कि "उनका रास्ता आज के युग में व्यावहारिक नहीं है," तब हम अपने आलस्य को तर्क का चोला पहनाते हैं।

गांधीजी ने अपने जीवन को अत्यंत सादा रखा—खादी पहनते थे, उपवास करते थे, आत्मनिरीक्षण करते थे। वे जो उपदेश देते थे, पहले स्वयं उसका पालन करते थे। पर आज हम उनकी जयंती पर खादी पहन लेते हैं, लेकिन भ्रष्टाचार, असहिष्णुता और हिंसा को जायज ठहरा देते हैं। हम गांधी को कोट करते हैं, पर जीते नहीं हैं।

बुद्ध ने लोभ, मोह और क्रोध से मुक्त जीवन जीने की शिक्षा दी। वे आत्म-संयम और ध्यान के प्रतीक थे। यह कहा जाता है कि उनकी उपस्थिति मात्र से जंगली जानवर भी शांत हो जाते थे। लेकिन यह कोई चमत्कार नहीं था—यह वर्षों की साधना और मानसिक शुद्धि का परिणाम था। आज हम उनके चित्र और मूर्तियाँ तो घर में रखते हैं, पर उनके मार्ग पर चलने की कोशिश नहीं करते। हमने बुद्ध को सजावट बना दिया, शिक्षा नहीं।

हमने उनकी शक्ति को समझा ही नहीं

आज का युग अक्सर अहिंसा को दुर्बलता समझता है, लेकिन गांधी और बुद्ध ने दिखा दिया कि अहिंसा में कितनी अपार शक्ति है। गांधीजी ने अपने उपवासों के माध्यम से अत्याचारियों की आत्मा को झकझोरा। बुद्ध ने अपमान सहकर भी मौन को चुना। यह कायरता नहीं, आत्म-नियंत्रण का चरम था।

जब हमें कोई अपशब्द कहता है, तो हम तुरंत जवाब देते हैं। जब कोई विरोध करता है, तो हम आक्रामक हो जाते हैं। हम कहते हैं, "ये सब उनके समय की बातें थीं, आज के युग में नहीं चलती।" लेकिन क्या वह युग आसान था? गांधी को ब्रिटिश सत्ता का सामना करना पड़ा, बुद्ध को जातिवाद, अज्ञान और हिंसा से जूझना पड़ा। फर्क बस इतना था कि उन्होंने संघर्ष के लिए कठिन मार्ग चुना—हम आसान रास्ता चुनते हैं।

अंधानुकरण नहीं, विवेकपूर्ण अनुपालन

यह कहना उचित है कि उनके विचारों का अक्षरशः पालन करना हर परिस्थिति में उचित नहीं। एक कथा में स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने प्रेमानंद को काली मंदिर में पाए गए बिच्छू को मारने को कहा। प्रेमानंद ने बिच्छू को मारने के बजाय बाहर फेंक दिया। रामकृष्ण ने समझाया, "यदि ईश्वर बिच्छू के रूप में प्रकट होते हैं, तो उनके साथ उसी रूप में व्यवहार करना चाहिए।" करुणा का अर्थ मूर्खता नहीं है।

यह स्पष्ट करता है कि बुद्ध या गांधी के विचारों को आंख मूंद कर नहीं, बल्कि समझदारी और विवेक के साथ अपनाना चाहिए। लेकिन समझदारी का नाम लेकर उन्हें त्यागना भी एक प्रकार की धोखेबाज़ी है।

समाधान: शुरुआत छोटे कदमों से

यह कहना कि हम उनके जैसे नहीं बन सकते, हमारे आत्मिक आलस्य का प्रमाण है। वे किसी अन्य लोक से नहीं आए थे—वे भी मनुष्य थे, जिन्होंने आत्म-साधना, अनुशासन और प्रयास से अपनी चेतना को ऊँचा किया।

हम भी छोटे-छोटे कदम उठा सकते हैं—सत्य बोलना, क्षमा करना, और दूसरों के प्रति करुणा रखना। यह क्रांति वहीँ से शुरू होती है। अगर हम ऐसा करते हैं, तो हम उनकी पूजा नहीं, सच्ची श्रद्धा कर रहे होंगे।

निष्कर्ष: दोष उनका नहीं, हमारा है

गांधी और बुद्ध ने दिखाया कि प्रेम, सत्य और आत्मानुशासन से न केवल स्वयं को, बल्कि पूरे समाज को बदला जा सकता है। यदि आज उनकी शिक्षाएं अप्रासंगिक लगती हैं, तो उसका कारण उनका आदर्शवाद नहीं, हमारा आत्मसमर्पण है।
हम परिणाम तो चाहते हैं, लेकिन आत्मिक परिवर्तन का मूल्य चुकाने को तैयार नहीं।

यह प्रश्न नहीं होना चाहिए कि गांधी और बुद्ध का मार्ग कितना व्यावहारिक था। असली प्रश्न यह है: क्या हम इतने निष्ठुर हो गए हैं कि अब उस मार्ग को समझने और अपनाने की भी क्षमता खो चुके हैं?

लेखक: अजय अमिताभ सुमन
अधिवक्ता, दिल्ली उच्च न्यायालय व समसामयिक विषयों पर नियमित लेखन

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