हरदम करती रहती गड़बड़,
री मक्खी, क्या तेरा ईश्वर?चाय में डुबकी मार के बोले,
"किस मिट्टी का तेरा जिगर!"
सब्जी पर उतराए, मानो
उसकी हो ये खानदानी विरासत।
तड़के संग नाचती चपलता से,
"रोक सके तो दिखा हिम्मत!"
बैठ के रोटी पर इतरा जाए,
"किसने बुलाया, किसे बताएं?"
जूठे में भी न छोड़ती है,
"स्वाद का लुत्फ सबको सिखाएं!"
ईश्वर बोले, "ऐ मक्खी रानी,
दुनिया तेरी, फिर भी कहानी?
क्यों बनी रहती यूं मुसीबत,
क्या है तेरी असली मंशा?"
मक्खी बोली, "हे भगवान जी,
मुझे न समझ पाए इंसान जी!
साफ-सफाई का पाठ सिखाने,
मुझे ही भेजा आपने वीराने!"
ईश्वर भी अब सोच में पड़े,
मक्खी का तर्क सुनकर अड़े।
हरदम करती है गड़बड़ भारी,
पर मक्खी है सृष्टि की प्यारी।
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