Wednesday, July 9, 2025

बिछिया

अध्याय 1: नवम्बर की ठंडी शाम

नवम्बर की वह शाम जैसे वक़्त की मुंडेर पर ठहरी हुई थी।सूरज की आख़िरी किरणें पश्चिम के नीले-पीले आकाश में धीरे-धीरे डूब रही थीं।गाँव के बाहर ऊँचे-ऊँचे यूकेलिप्टस के पेड़, अपनी लम्बी-लम्बी परछाइयाँ ज़मीन पर बिछा रहे थे —और वह परछाइयाँ ऐसी लगतीं, जैसे किसी झुर्रीदार बुज़ुर्ग औरत के हड्डीदार हाथ धीरे से बच्चों के सिर पर साया कर रहे हों,उन्हें ठण्ड से बचा रहे हों, या शायद किसी अनकही दुआ में लपेट रहे हों।

धूल भरी पगडंडियाँ साँझ की हल्की सी नमी में भीगकर चुप थीं।गाँव की कच्ची गलियों से आती गायों की हँकाई, पनघट की बाल्टियों की खनक,और कहीं दूर से आती किसी कुत्ते के भौंकने की आवाज़ —ये सब मिलकर उस शाम को और भी ज़्यादा जीवित, मगर उदास बना देते थे।

आँगन में माँ झाड़ू लगा रही थी।झाड़ू की सरसराहट के साथ उड़ी धूल चूल्हे के धुएँ में मिलकर गुम हो जाती थी,और उस धुएँ में भीगी हुई मिट्टी की गंध पूरे घर को एक पुराने उपन्यास की तरह बना देती थी —वह उपन्यास, जिसके हर पन्ने पर बचपन की उँगलियों के निशान थे,जहाँ हर पंक्ति में माँ की डाँट, पिता की सीख, और दादी की कहानियों की गूँज छुपी हुई थी।

इसी घर के एक कोने में, दीवार से सटा हुआ एक छोटा सा कमरा था —वहीं, लकड़ी की पुरानी मेज़ पर झुका बैठा था अनिमेश।दुबली काठी, हल्की भूरी आँखें, साँवला रंग और माथे पर पसीने की महीन बूँदें,जिन्हें उसने शायद खुद भी कभी महसूस नहीं किया था।

मेज़ पर किताबें बिखरी पड़ी थीं —गणित की किताब के ऊपर विज्ञान की कॉपी, और उसके किनारे से झाँकती हिंदी की गाइड।ये किताबें उसके लिए केवल पन्नों का ढेर नहीं थीं —ये उसकी दुनिया की सबसे मज़बूत दीवारें थीं।

“अगर कोई मुझसे पूछे,” अनिमेश अक्सर अपने आप से कहता था,“दुनिया की सबसे मज़बूत जगह कौन-सी है?तो मैं कहूँगा — किताब के पन्नों के पीछे का कोना।वहाँ कोई मेरा पीछा नहीं कर सकता… वहाँ मैं सबसे ज़्यादा सुरक्षित हूँ…”

ये किताबें उसके डर छुपाती थीं — परीक्षा का डर, गलती का डर, और कभी नाकाम होने का डर।ये किताबें उसकी आशाएँ भी संभालती थीं —बड़े होकर कुछ बनने की चाह, माँ-पापा को गर्व महसूस कराने की ख्वाहिश, और उस ख़ुशी की कल्पना,जब परीक्षा में उसका नाम सबसे ऊपर लिखा जाएगा।

नवम्बर की उस शाम ठंड तेज हो चली थी।हवाओं में यूकेलिप्टस के पत्तों की सरसराहट गूँजती थी,जैसे कोई पुरानी कहानी बार-बार दोहराई जा रही हो।

अनिमेश रजाई में घुसा, किताब पर झुका हुआ था।उँगलियाँ ठंड से हल्की-हल्की काँप रही थीं,मगर मन में उसके पिता की आवाज़ हर काँप को रोकने की कोशिश कर रही थी:

“बेटा, आदमी को सबसे ज़्यादा आगे बढ़ाने वाली चीज़ उसकी योग्यता है।पैसा, नाम, शोहरत — सब बाद में आते हैं…”

उसने धीरे से अपनी उँगलियों को रजाई के अंदर गर्म किया,फिर किताब का पन्ना पलटा, और होंठ भींचकर पढ़ाई में डूब गया।

उसके दिल में उस वक़्त एक ही संकल्प था —“माँ-पापा का नाम ऊँचा करूँगा…चाहे ठंड कितनी भी हो, चाहे नींद कितनी भी सताए,मुझे बस पढ़ना है… सीखना है…”

उसने आँखें बंद कीं, तो देखा —माँ की साड़ी का आँचल, पिता का सीधा कंधा, और उनकी उम्मीदों की गठरी, अनिमेश के कन्धों पर रखी हुई थी।

रजाई के अंदर वो गठरी और भी भारी लगती थी —मगर उसके मन ने कहा:“डर मत… ये बोझ नहीं, यही तो तुम्हारी असली ताक़त है…”और यूँ, उस नवम्बर की ठंडी साँझ में,सूरज ढलने के बाद भी,एक मासूम बच्चा, किताबों के पन्नों के बीच,अपनी उम्मीदों की मशाल जलाए बैठा था —ताकि दिसम्बर की परीक्षा में उजाला फैला सके…

अध्याय 2: कामवाली 
 
घर में काम करने आती थी बिछिया — पचास बरस की अधेड़ मुसलमान औरत, झुकी हुई कमर, बिखरे बाल, हाथ में झाड़ू और चेहरे पर गहरी थकन की सिलवटें।

लोग उसे नाम से नहीं, रंग से पुकारते थे — “बिछिया”।काले रंग वाली बिछिया, जिसके कपड़े पुराने और चिथड़े थे, मगर हाथों की सफ़ाई में ज़रा कमी न थी।

उसके हाथ का झाड़ू आँगन में गिरी पत्तियों को भी डराता था।और वह काम करते-करते बीड़ी सुलगाती, धुएँ में जैसे अपना दर्द उड़ा देती।

बिछिया की चुप्पी किसी तिजोरी की तरह थी — बाहर से खामोश, भीतर एक ज्वालामुखी।उसके अपने बच्चे नहीं थे, मगर अनिमेश को देखती तो आँखों में कुछ पिघल जाता।कभी वह अनिमेश की किताबों को उलट-पलट कर देखती — पढ़ नहीं पाती थी, पर पन्नों की ख़ुशबू सूँघ लेती।

माँ (डाँटते हुए):“अरी बिछिया! जल्दी हाथ चलाओ, शाम हो गई!”बिछिया (बीड़ी सुलगाते हुए, हौले से):“हौले हौले भी काम होता है बीबी जी…”

अनिमेश (मुस्कुराकर):“बिछिया, तुम पढ़ नहीं सकती?”

बिछिया:“पढ़ने की क़िस्मत नहीं लिखी बेटा… तेरी क़िस्मत में पढ़ना लिखा है, पढ़ ले…”

बिछिया वहीँ झाड़ू लगाकर जा चुकी थी, आँगन में उसका छाया-सा अक्स रह गया था।
उसे क्या पता था, कुछ हफ़्तों में यही आँगन उस औरत के लिए अदालत बन जाएगा, जहाँ कोई वकील नहीं, सिर्फ़ गुस्से में डूबे लोग होंगे…

अध्याय 3: चुप्पी

गाँव की सबसे पुरानी गली के आख़िर में एक टूटी-फूटी झोंपड़ी थी — जहाँ बिछिया का बचपन बीता था।

उसका असली नाम सुलताना बी था, पर यह नाम गाँववालों की ज़बान से धीरे-धीरे मिट गया।रंग, जात, और ग़रीबी की गर्द ने उसका असली नाम दबा दिया, और रह गई बस एक आवाज़ — “बिछिया”।

बिछिया के पिता, रज्जाक मियाँ, फूस की टट्टी में रहते थे।छोटी सी दुकान चलाते थे, कभी-कभी दूसरों के खेतों में मज़दूरी भी करते।माँ — हलीमा बी — घर पर बकरी पालती, गोबर से उपले थापती।

बिछिया की सबसे पहली यादों में है —माँ का पसीने से भीगा चेहरा और आँखों में थकान की चुप्पी।बकरी का बच्चा जो उसने छुपकर गोद में खिलाया था।और आँगन में पड़े टूटे खिलौने, जिन्हें वह गले से लगाकर सो जाती।

बारह बरस की होते-होते, बिछिया की माँ ने उसे धीरे-धीरे समझाना शुरू किया —“बेटी, हम जैसी औरतों की ज़िंदगी में ख़ुशियाँ नहीं ठहरतीं, मुस्कुराना भी सोच-समझकर…”

माँ की यह बात बिछिया को शुरू में समझ नहीं आई।पर जल्दी ही, उसे ज़िंदगी ने ख़ुद समझा दिया।

पन्द्रह साल की उम्र में उसकी शादी कर दी गई, गाँव से पाँच कोस दूर, चिलचिलाती धूप में।शौहर नाम था इस्माइल मियाँ — उम्र पैंतीस साल।चेहरे पर उगी दाढ़ी, आँखों में हमेशा एक सख़्त परछाई।

शादी के पहले साल बिछिया ने सपने देखे थे —“शायद अब मेरा भी घर होगा, एक प्यारा सा बच्चा…”

मगर किस्मत का नक़्शा कुछ और था।बिछिया की गोद कभी नहीं भरी।

सिर्फ़ दो साल बीते थे, कि इस्माइल मियाँ ने दूसरी शादी कर ली।नई बीवी, उम्र में कम, रंग में गोरी, नाक में सोने की लौंग, कलाई में चूड़ियाँ।

बिछिया की दुनिया वहीं ढह गई —वह चुप रही, मगर उसके भीतर कुछ हमेशा के लिए टूट गया।

नई बीवी ने उसे नौकरानी बना दिया।रसोई से लेकर आँगन तक, घर की हर ईंट पर बिछिया के पसीने के दाग़ थे।

रात को अकेले अपने बिस्तर पर पड़ी रहती — दीवार पर छिपकली रेंगती, छत पर धुंधला सा चाँद, और उसके गाल पर ठंडी आँसू की लकीर।

धीरे-धीरे, बिछिया को एक साथी मिला — बीड़ी।जब भी दिल भारी होता, वह माचिस जलाती, कश खींचती — धुएँ के साथ दर्द भी जैसे बाहर निकलता।

उसकी उँगलियों में बीड़ी की गंध बस गई, बालों में राख की महक।लोग मज़ाक उड़ाते — “बीड़ी पीने वाली औरत!”मगर बिछिया को परवाह नहीं थी — बीड़ी से उसे पल भर की राहत मिलती।

कभी-कभी बीड़ी के लिए पैसे कम पड़ते तो इस्माइल मियाँ की जेब से चुपचाप सिक्का निकाल लेती।दो-तीन बार पकड़ी भी गई।उस दिन बहुत मारा गया, मगर बिछिया फिर भी घर नहीं छोड़ पाई।

“कहाँ जाएगी? दुनिया में किसी औरत की अपनी ज़मीन नहीं होती…”

इस्माइल मियाँ ने कहा — “अब तेरी रोटी तू खुद कमाना!”बिछिया ने आस-पड़ोस में झाड़ू-पोंछा का काम पकड़ लिया।गाँव की गलियों में उसका झुकता बदन, झाड़ू की आवाज़ और बीड़ी का धुआँ रोज़ देखा जा सकता था।

वह पसीने से भीगती, मगर बोलती नहीं थी।उसे चुप रहने की आदत हो गई थी।

बिछिया के मन में एक कोना था, जहाँ उसने अपने सारे सपनों को बंद कर रखा था।कभी-कभी उस कोने से आवाज़ आती:

“माँ बन पाती तो सब बदल जाता…”“गोरी होती तो इस्माइल मुझे छोड़ता नहीं…”

मगर ये आवाज़ें दबा दी जातीं — बीड़ी के कश में, धुएँ में, और झाड़ू की आवाज़ में।

बिछिया (मन ही मन):“मैं भी तो किसी की बेटी थी…”

दूसरी बीवी (तिरस्कार से):“अब तू नौकरानी ही ठीक है, बूढ़ी और काली…”

बिछिया (आँखें झुकाकर):“हाँ बीबी जी…”

उस रात, जब बिछिया अनिमेश के घर से लौटकर टूटी चारपाई पर लेटी,उसने चुपचाप आसमान की ओर देखा। धुंधले चाँद को देखा, जो बादलों के पीछे छुपा था — ठीक उसकी तरह, जो सबके घर में काम करती थी, मगर किसी की ज़िन्दगी में जगह न थी।

और न जाने क्यों, उस दिन उसने ख़ुद से कहा —“ये लड़का, अनिमेश, अलग है… पढ़ता है, मगर किसी से घृणा नहीं करता…”

अध्याय 4: नोटों के भार

ठंड अपने चरम पर पहुँचने लगी थी। हवा में एक अजीब सी नमी थी, जैसे सुबह की ओस अब तक ज़मीन को थामे बैठी हो। पेड़ सूनी शाख़ों के साथ खड़े थे — मानो जीवन की आस छोड़ चुके हों, और पुरानी पत्तियों की याद में गुमसुम खड़े हों।

रसोई की चूल्हे की आँच भी उस सर्द हवा के आगे कमज़ोर पड़ रही थी, मगर माँ के हाथों की ऊष्मा अब भी उतनी ही गाढ़ी और सच्ची थी। माँ की उँगलियाँ पसीने की हल्की महक के साथ बँधी हुई रस्सी जैसी थीं, जो परिवार की ज़िम्मेदारियों को थामे रखती हैं।

माँ को जाते-जाते रुकना पड़ा — जैसे दिल ने कहा हो, “अभी कुछ बहुत ज़रूरी रह गया है।” उन्होंने अपनी पुरानी किनारीवाली साड़ी के पल्लू की तह से दो हज़ार रुपये निकाले। वो नोट थोड़े से मुड़े हुए थे, जैसे वक्त के थपेड़ों ने उन्हें भी झुकना सिखा दिया हो।

माँ ने उन नोटों को थामे-थामे कुछ पल तक देखा। उनकी आँखों में खेत की सूखती फसलें, घर का खर्च, और गाँव के छोटे चाचाजी की चिंताएँ तैर गईं। फिर बहुत धीमी, लेकिन दृढ़ आवाज़ में कहा:

“बेटा, ये रुपये संभालकर रखना — गाँव के छोटे चाचाजी को दे देना। खेत में दवा डालनी है, फसल सूख रही है। ये रुपये बहुत ज़रूरी हैं।”

उस वक़्त उनकी आवाज़ में माँ कम, और जीवन की थकी हुई परिपक्वता ज़्यादा थी। जैसे उनके शब्दों में हर वह चिंता गुँथी हो, जो किसी भी किसान परिवार की पीढ़ियों से होती आई है — सूखा, महंगाई, मौसम की बेरुख़ी और समय की मार।

अनिमेश ने काँपते हाथों से वो नोट पकड़े। उस छोटे से हाथ में अचानक ज़िम्मेदारी का भार आ गिरा था — इतना भारी कि उसकी हथेलियों में पसीना छलक आया।

नोटों की खुशबू में उसे मिट्टी की महक महसूस हुई — उस मिट्टी की, जिसमें उसके पूर्वजों के पसीने की सोंधी गंध थी। उसमें धूप से झुलसी मेहनत की महक थी, और कहीं गहराई में एक अनजाना डर भी था।

“कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाए…”

उसका दिल जोर-जोर से धड़क उठा।

माँ का हाथ अपने बालों पर महसूस कर, उसने धीरे से कहा:“चिंता मत करो माँ…”

मगर उसकी आवाज़ में आत्मविश्वास से ज़्यादा डर था, और माँ की आँखें वो डर पढ़ भी सकीं, पर कुछ बोली नहींं — जैसे जानती हों कि कुछ डर ऐसे होते हैं, जिनसे बेटा खुद ही लड़कर बड़ा होता है।

वो धीरे से पलटा, और रुपये को अपनी किताब के पन्नों के बीच रख दिया — वही किताब जो अब तक उसके लिए बस अक्षरों का संसार थी, अब अचानक एक तिज़ोरी बन गई थी।

पन्नों में छुपे वो नोट अब उसे अपनी सांसों से भी कीमती लगने लगे।उसने किताब को छाती से लगाया — जैसे किसी गुप्त ख़जाने को सीने में छुपा लिया हो।

रात का आकाश धीरे-धीरे गहराने लगा। आँगन में चाँदनी ऐसे बिछ गई थी, जैसे किसी ने दूध का कटोरा उलट कर ज़मीन को सर्द सफ़ेद चादर ओढ़ा दी हो।

गाँव की गलियों से कुत्तों के भौंकने की आवाज़ आती, और फिर उसी तेज़ी से ख़ामोशी लौट आती — जैसे पूरी रात कोई अदृश्य पहरेदार बनकर सब पर नज़र रख रहा हो।

अनिमेश रजाई में दुबककर पढ़ने लगा।उसके इर्द-गिर्द किताबों का ढेर था — गणित की मुश्किल संख्याएँ, विज्ञान के सूत्र, हिंदी की कहानियाँ।

मगर उन पन्नों में सबसे कीमती वो दो हज़ार रुपये थे — जिनके बोझ ने उसके बचपन को एक पल में किशोर कर दिया था।

रात के सन्नाटे में उसे माँ की थकी हुई खाँसी सुनाई दी, जो बार-बार रुक-रुककर आती — जैसे माँ का शरीर कह रहा हो, “अब और नहीं…”

पिता की धीमी आवाज़ भी आती — किसी काम की चर्चा, खेत के हालात की चिंता।

ये सब आवाज़ें उसके लिए जानी-पहचानी थीं — मगर आज वो अनजानी-सी भी लग रही थीं। आज वो सिर्फ़ आवाज़ें नहीं थीं, आज वो ज़िम्मेदारियों की याद दिलाती घंटियाँ थीं।

अनिमेश की आँखें थकीं, और एक बार फिर उस किताब की ओर उठीं, जिसमें नोट छुपाए हुए थे।
एक क्षण को उसे लगा, वो नोट उस पर भी नज़र रखे हुए हैं — जैसे वो कह रहे हों, “हम पर भरोसा रखना… कहीं भूल मत करना…”

आँखें धीरे-धीरे भारी होने लगीं।थकान और डर का मिला-जुला बोझ उसकी पलकों को बंद कर रहा था।“कल सुबह देखूँगा… सब ठीक होगा…”

यह सोचते-सोचते, नोटों के भार और किताबों की खुशबू के बीच, अनिमेश नींद की आगोश में चला गया।

चाँद आँगन में चुपचाप चमकता रहा — जैसे गवाही देने के लिए कि उस रात उसने देखा, एक मासूम बच्चे के डर और भरोसे की सबसे सच्ची तस्वीर।

अध्याय 5: हलचल

सुबह जैसे ही गाँव की गलियों में सूरज की पहली रोशनी उतरी,उसके साथ ही हवा में रसोई के धुएँ और गोबर के चूल्हों की मिली-जुली गंध तैरने लगी।

मुर्गे की बांग ने रात के सन्नाटे की चादर को फाड़कर रख दिया,और गली के कुत्ते उस आवाज़ पर कुछ पल भौंक कर चुप हो गए —जैसे सबने मिलकर मान लिया हो कि अब दिन शुरू हो गया है।

माँ की चाय उबालने की आवाज़,पानी से बर्तन धोने की खटपट,पिता के गले की हल्की खाँसी,और दूर कहीं से आती बैल के गले में बँधी घंटी की टन-टन —इन सबने मिलकर एक परिचित सा संगीत रचा,जो हर सुबह घर को ज़िंदा कर देता था।

अनिमेश की नींद टूटी।उसने रजाई में से आधा चेहरा बाहर निकाला।ठंड अब भी चुभ रही थी, मगर आज उसे ठंड से ज़्यादा किसी और चीज़ ने जगाया था —वो याद, कि दो हज़ार रुपये किताब में रखे हैं।“जरा देख लूँ…”

उसने किताब पलटी,फिर दूसरी, फिर तीसरी…चेहरे की रंगत बदलने लगी — जैसे किसी ने दिल पर बर्फ़ रख दी हो।

किताब के पन्ने खरखराए,मगर नोट की मुलायम सी सनसनाहट कहीं नहीं आई।

आँखें फैल गईं। दिल ज़ोर से धड़कने लगा — जैसे सीने में बँधी ढोलक बज रही हो।“नहीं… कहीं तो होंगे… शायद कल दूसरी किताब में रख दिए हों…”

उसने फिर पलटा।उसका हाथ काँपने लगा।सर्द हवा अब बदन के पार होने लगी थी।हर बार पन्ना पलटते हुए उसे वो पल याद आ रहा था,जब माँ ने रुपये थमाए थे —

वो शब्द:“ये रुपये बहुत ज़रूरी हैं बेटा…”

और उसने कैसे कहा था —“चिंता मत करो माँ…”

अब चिंता उसकी रग-रग में उतर चुकी थी।माथे पर पसीना था, हाथ ठंडे थे, और दिल जैसे सूखता जा रहा था।

कुछ ही पलों में घर के बाकी लोग भी जाग गए।माँ ने आवाज़ दी:“अनिमेश! बेटा, वो रुपये दे देना, चाचाजी आते ही होंगे।”

ये सुनते ही उसकी टाँगें जैसे जड़ हो गईं।कंठ सूख गया।उसने होंठ खोले, पर आवाज़ न निकली।

माँ आकर खड़ी हो गईं।उनकी आँखों में भरोसे की चमक थी — वो भरोसा जिसे तोड़ने की कल्पना भी अनिमेश ने कभी नहीं की थी।

उसने धीमी आवाज़ में कहा:“माँ… वो… रुपये… नहीं मिल रहे…”

माँ की आँखों में एक पल को हैरानी तैर गई,फिर चिंता की रेखाएँ खिंच गईं।“क्या? कैसे? कहाँ रखे थे?”

बिस्तर के नीचे, तकिये के अंदर, किताब के हर पन्ने, हर पुरानी कॉपी…माँ, पिता और अनिमेश — तीनों खोज में जुट गए।

हर पन्ना पलटते हुए अनिमेश का दिल डूबता गया।हर बार लगता, “शायद अब मिल जाए…” —पर अगली ही बार दिल पर चोट होती: “नहीं…”

उसने माँ की आँखों में मायूसी देखी।पिता की आँखों में चुपचाप चिंता थी।उन्होंने कुछ नहीं कहा, मगर चुप्पी बोल रही थी।ये चुप्पी तीर बनकर उसके बालमन में धँस गई।“माँ-पापा मुझसे नाराज़ तो नहीं?… सब मेरी ग़लती है… सब…”

उसकी उम्र छोटी थी, मगर मन पर आया बोझ उम्र से बड़ा था।उसे लग रहा था जैसे उसने सिर्फ दो हज़ार रुपये नहीं, माँ का भरोसा और पिता की उम्मीद खो दी हो।

ख़ुद को कोसता जा रहा था:“मुझे और ध्यान रखना चाहिए था… मैंने लापरवाही की…”

उसी बीच आँगन से आवाज़ आई —गाँव के छोटे चाचाजी आ गए थे, जो वो रुपये लेने आए थे।माँ बाहर निकलीं।माँ की आवाज़ काँपी, फिर भी धीमी रही:“भैया… रुपये… नहीं मिल रहे…”

चाचाजी चुप रहे।उनकी आँखों में कुछ पल के लिए आश्चर्य था, फिर चिंता उतर आई।कुछ देर बाद पिता ने अपने पर्स से दो हज़ार रुपये निकालकर चाचाजी को दे दिए।

बात वहीं ख़त्म नहीं हुई —घर की हवा अब बदल चुकी थी।

अनिमेश का मन और भी संकुचित हो गया।उसके लिए किताबें भी भारी लगने लगीं, और पन्ने काँटों जैसे चुभने लगे।

माँ चुप थीं।माँ की चुप्पी किसी डाँट से ज़्यादा डरावनी थी।वो वो शब्द थे, जो बोले नहीं गए — मगर महसूस हुए।

अध्याय 6: शक की सुई

अनिमेश पर शक करना जैसे किसी ने सोचा भी नहीं—वह लड़का जो पूरी सर्दी में किताबों से चिपका रहता था, जो स्कूल में सबसे आगे था, जिस पर उसके पिता को गर्व था। शक की सुई घूमती-घूमती उस पर जा ठहरी, जो हमेशा से निशब्द थी, निरीह थी—बिछिया

धीरे-धीरे घर में और बाहर बात फैलने लगी।लोगों की आवाज़ें फुसफुसाहट में बदल गईं —“कहीं बिछिया ने तो…?”“अरे वो तो… पहले भी…”

और बिछिया — वो जो रोज़ झाड़ू-पोछा करती थी —वो शक की दीवार के उस पार खड़ी कर दी गई।

इस एक सुबह ने, उस दो हज़ार रुपये की क़ीमत से कहीं ज़्यादा,अनिमेश के दिल में एक ऐसा डर बो दिया,जिसकी जड़ें बहुत गहरी थीं —भरोसे का डर, खोने का डर, और अपने कारण किसी निर्दोष पर आघात का डर।

बिछिया रोज़ की तरह आई।उसके हाथ में वही पुरानी झाड़ू, पीठ पर पुरानी शॉल — जो ठंड रोकने की नाकाम कोशिश करती थी।मुँह पर बासी मुस्कुराहट,और आँखों में थकी हुई लकीरें —जैसे उसकी ज़िंदगी की झाड़ू ने उसके दिल को भी बिखेर कर रख दिया हो।

मगर आज माहौल कुछ बदला हुआ था।माँ की नज़रें पल–भर के लिए बिछिया पर अटक गईं —और वही एक पल बिछिया को भीतर तक चुभ गया।

माँ ने कुछ कहा नहीं।बिछिया के कानों में बस उस एक पल की खामोशी गूँजती रही।“क्या मैं… सच में चोर लगती हूँ?”

काम करते हुए उसका मन भाग कर अतीत में चला गया।वो दिन याद आया जब उसने अपने पति के जेब से दो रुपये चुराए थे —सिर्फ़ बीड़ी के लिए।उस दिन के बाद उसके पति की घृणा ने उसे हर दिन खा लिया था।

अब लगता था कि उसी एक पाप की सजा अब तक मिल रही है।“मेरी काली किस्मत… जहाँ जाती हूँ, चोर ही कहलाती हूँ…”

उसी बीच पड़ोस की औरतें आँगन में हँस–हँस कर बातें कर रही थीं —मगर हर हँसी में एक कील छुपी हुई थी।

“अरे, बिछिया पर तो पहले भी चोरी का इल्ज़ाम लगा था…”“काली है, बीड़ी पीती है… भरोसा कौन करे…”“मुँह पे तो कुछ कहेंगे नहीं, पर सच तो सबको पता है…”

ये शब्द उसके कान में नाग की तरह फुफकारते रहे।उसने घर के कोने में जाकर मुँह छुपा लिया।बीड़ी के लिए माचिस जलाते हाथ काँप गए।आँखें भर आईं।

“हे अल्लाह… मैं तो अब बीमार भी रहती हूँ… हिम्मत भी नहीं रही… फिर भी लोग…”बीड़ी का कड़वा धुआँ उसकी आँखों को जलाता रहा,मगर दिल की जलन उससे कहीं तेज़ थी।

धीरे–धीरे लोग भी घर में आकर सलाह देने लगे।गाँव का चौकीदार आया, बोला:“देखिए, ग़रीब घर में रखी चीज़ पर निगाह जल्दी पड़ती है… काम वाली पर ही नज़र रखिए…”

दूसरी औरत ने कहा:“बिछिया की आदतें तो सब जानते हैं… भगवान ही बचाए…”

कोई बोला:“उसके पास से बीड़ी का ढेर मिला… रुपया आया कहाँ से?”

अनिमेश को ये सब सुनकर और डर लगने लगा।वो अपने कमरे में बैठकर किताबों को घूरता रहा —जैसे उनसे जवाब माँग रहा हो। दिल में खटका हुआ —“कहीं… कहीं मेरी वजह से…?”मगर मासूम दिल को समझ नहीं आता था कि शक की आग कितनी तेज़ होती है —और उसमें कोई भी जल सकता है।

रात ढलने लगी।चाँदनी फिर से आँगन में उतरी,मगर आज वो दूध जैसी नहीं, राख जैसी लग रही थी।बिछिया की परछाईं दीवार पर लंबी होती चली गई —जैसे उस पर लगा इल्ज़ाम उसके पीछे–पीछे चलता हो,और उसे कभी चैन से जीने न दे।

अध्याय 7: मंदिर का घंटा

गरीबी, शक और समाज के द्वेष का त्रिकोण बहुत पुराना है। घर की सन्नाटे भरी दीवारों के बीच फुसफुसाहट  शुरू हो गई —"हो न हो, बिछिया ने ही चुराए होंगे!"

जैसे किसी मंदिर का घंटा सबके लिए बजाने को होता है, बिछिया भी मोहल्ले का घंटा बन गई। पड़ोसी, रिश्तेदार, यहाँ तक कि कामवाली भी—सबने उस पर अपनी-अपनी कुंठाओं का वार किया।

किसी को अपने पति से गुस्सा था, किसी को समाज से, किसी को खुद पर। बिछिया पर इल्ज़ाम लगाकर सबने अपने दिल का बोझ हल्का कर लिया।

बिछिया पर गुस्सा निकालने वालों में कुछ वही लोग थे जो अपने दुख और असफलताओं का हल तलाश रहे थे। किसी को पड़ोसी से चिढ़ थी, किसी को ऑफिस में प्रमोशन नहीं मिला था, कोई मकान मालिक से त्रस्त था—सबको जैसे अपना ज्वालामुखी फूटने के लिए बहाना मिल गया।

बिछिया को बुलाया गया, उससे पूछा गया, समझाया गया, डाँटा गया, धमकाया गया। उसकी जेबें देखी गईं, बिस्तर खँगाला गया, उसके कपड़े तक उतरवाए गए।

क्या मिला? सिर्फ़ बीड़ी के आठ-दस पैकेट।

लोगों ने नतीजा निकाल लिया—“देखा, चोर है! बीड़ी की लत ने बिगाड़ दिया।”

यह तर्क कितना गहरा था, यह किसी ने नहीं सोचा। बीड़ी किसी की आत्मा की चुभन पर पट्टी का काम कर सकती है, पर पेट की भूख नहीं मिटा सकती। मगर जब भीड़ अपना न्याय करने पर उतर आए, तो तर्क की ज़रूरत किसे पड़ती है?

अध्याय 8: लज्जा

दिसम्बर आया। परीक्षा आयी और चली गई । जनवरी में रिजल्ट भी आ गया। अनिमेश स्कूल में फर्स्ट आया था। अनिमेश के पिताजी ने खुश होकर अनिमेश को साईकिल खरीद दी । स्कूल में 26 जनवरी मनाने की तैयारी चल रही थी । अनिमेश के मम्मी पापा गाँव गए थे। परीक्षा के कारण अनिमेश अपने कमरे की सफाई पर ध्यान नहीं दे पाया था। अब छुट्टियाँ आ रही थी। वो अपने किताबों को साफ़ करने में गया । सफाई के दौरान अनिमेश को वो 2000 रूपये किताबों के नीचे पड़े मिले। अनिमेश की ख़ुशी का कोई ठिकाना न था। तुरंत साईकिल उठा कर गाँव गया और 2000 रूपये अपनी माँ माँ को दे दिए।

बिछिया के बारे में पूछा। मालूम चला वो आजकल काम पे नहीं आ रही थी। परीक्षा के कारण अनिमेश को ये बात ख्याल में आई हीं नहीं कि जाने कबसे बिछिया ने काम करना बंद कर रखा था। अनिमेश जल्दी से जल्दी बिछिया से मिलकर माफ़ी मांगना चाह रहा था। वो साईकिल उठाकर बिछिया के घर पर जल्दी जल्दी पहुँचने की कोशिश कर रहा था । उसके घर का पता ऐसा हो गया जैसे की सुरसा का मुंह । जितनी जल्दी पहुँचने की कोशिश करता , उतना हीं अटपटे रास्तों के बीच उसकी मंजिल दूर होती जाती।खैर उसका सफ़र आख़िरकार ख़त्म हुआ। उसकी साईकिल बीछिया के घर के सामने रुक गई । उसका सीना आत्म ग्लानि से भरा हुआ था । उसकी धड़कन तेज थी । वो सोच रहा था कि वो बिछिया का सामना कैसे करेगा। बिछिया उसे माफ़ करेगी भी या नहीं । उसने मन ही मन सोचा कि बिछिया अगर माफ़ नहीं करेगी तो पैर पकड़ लेगा। उसकी माँ ने तो अनिमेश को कितनी हीं बार माफ़ किया है । फिर बिछिया माफ़ क्यों नहीं करेगी ? और उसने कोई गलती भी तो नहीं की। तभी एक कड़कती आवाज ने उसकी विचारों के श्रृंखला को तोड़ दिया । अच्छा ही हुआ, उस चोर को खुदा ने अपने पास बुला लिया। ये आवाज बिछिया के पति की थी । उसके पति ने कहा , खुदा ने उसके पापों की सजा दे दी । हुक्का पीते हुए उसने कहा, 2000 रूपये कम थोड़े न होते हैं बाबूजी । इतना रुपया चुराकर कहाँ जाती । अल्लाह को सब मालूम है । बिछिया को टी. बी. हो गया था। उस चोर को बचा कर भी मैं क्या कर लेता। और उसपर से मुझे परिवार भी तो चलाना होता है।

अध्याय 9: कालिख

बिछिया के पति ने बिछिया की रामकहानी कुछ यूँ बयाँ की ।

उस घटना के बाद सर्दी ने जैसे बिछिया की साँसों पर बर्फ की परत चढ़ा दी थी।उसका झुर्रियों से भरा चेहरा और भी मुरझा गया।बीड़ी के धुएँ ने फेफड़ों को खोखला कर डाला —अब हर सुबह खाँसी का ऐसा दौरा पड़ता, जैसे सीने में कोई शूल चुभ रहा हो।

गाँव की गलियों में उसका झुका हुआ कद, काँपते हाथ,और बार-बार रुक-रुक कर ली जाने वाली साँसें देखने वाले को भी दया से ज़्यादा डर दे जातीं।

“अल्लाह… अब कितना बचा है मेरे पास…”उसने कई बार सोचा, मगर फिर खाँसी के साथ सब धुँधला हो जाता।

जिन गलियों से रोज़ गुजरती थी,वहीं अब कानों में फुसफुसाहटें घुल जातीं: यही है वो… चोर औरत…”“बीड़ी की लत ने बर्बाद कर दिया…”

घर की औरतें बर्तन धोते-धोते मुँह फेर लेतीं।बच्चे उँगली दिखा कर हँसते:“बिच्छू आ गई…”

उसका नाम अब “बिछिया” नहीं,महज़ एक ताना बन चुका था —जिसे कोई भी, कभी भी, मज़ाक में उछाल देता।

बिछिया बेचारी अकेली घुट घुट कर जी रही थी। अकेलेपन में उसे बिड़ी का साथ मिला। बिड़ी पीकर वो अपने सारा गम भुला देती। अधेड़ थी बिछिया । कितना अपमान बर्दास्त करती ? मन पे किए गये वार तन पर असर दिखाने लगे। उपर से बीड़ी की बुरी लत। बिछिया बार बार बीमार पड़ने लगी थी। खांसी के दौरे पड़ने लगे थे। काम करना मुश्किल हो गया। घर पे हीं रहने लगी। हालांकि उसके पति ने अपनी हैसियत के हिसाब से उसका ईलाज कराया। पर ज़माने की जिल्लत ने बिछिया में जीने की ईक्छा को मार दिया था। तिस पर से उसके पति की खीज और बच्चों का उपहास। बिछिया अपने सीने पे चोरी का ईल्जाम लिए हुए इस संसार से गुजर गई थी।

अध्याय 9: रुकी हुई माफ़ी 

अनिमेश सीने में पश्चाताप की अग्नि लिए घर लौट आया। उसके पिताजी ने पूछा , अरे ये साईकिल चला के क्यों नही आ रहे हो ? ये साईकिल को डुगरा के क्यों आ रहे हो? दरअसल अनिमेश अपने भाव में इतना खो गया था कि उसे याद हीं नहीं रहा कि वो साईकिल लेकर पैदल हीं चला आ रहा है। उसने बिछिया के बारे में तहकीकात की।

बिछिया अब इस दुनिया में नहीं थी। बिछिया की मृत्यु का कारण सिर्फ़ टी.बी. नहीं था; उसकी आत्मा पर लगे उस दाग़ ने उसे तोड़ दिया था, जो वह कभी धो नहीं पाई।

अनिमेश की माफ़ी, जो वह अपने दिल में लिए आया था, अब हवा में तैरती रह गई। वह न रो सका, न कुछ कह सका—बस भारी कदमों से वापस लौट आया।

समय बीत गया—चार दशकों से भी ज़्यादा।

अनिमेश आज भी सफल है, प्रतिष्ठित है, सम्मानित है। परन्तु, उसके भीतर एक कोना आज भी वैसा ही है—जहाँ बिछिया का चेहरा धुँधले धुँधले बादलों की तरह तैरता है, और एक शब्द गूंजता है: "माफ़ करना!"

वह माफ़ी, जो कभी बिछिया तक नहीं पहुँच पाई।वह माफ़ी, जो आज भी अधूरी है। और यही अधूरापन उसकी आत्मा को आज भी चुपचाप कचोटता है।

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