Wednesday, July 9, 2025

नाम का झमेला

शाम के धूसर उजाले में, जब मैं—चिंतन चतुर्वेदी—ऑफिस की अपार थकान और बॉस की डाँट को दिल में दबाए, दोने-सा चेहरा लेकर घर में घुसा, तो मुझे सामने दिखाई दिया मेरा लाडला बेटा—मनोहर मोक्ष—जिसका मुँह फूला हुआ था जैसे किसी ने उसमें चार रसगुल्ले ठूँस दिए हों और ऊपर से “मुँह मत खोलो!” कह दिया हो।

बेटा (स्वर में नाराज़गी की बादशाहत लिए, आँखों में न्यायपालिका की पैनी दृष्टि):“पापा! आज क्लास में मैडम ने मेरे नाम का मतलब पूछा। मैं हकला गया… और पूरी क्लास ठहाके लगाकर ऐसे हँसी, जैसे मैं स्टेज पर चप्पल पहनकर कथक कर रहा होऊँ! पापा, आपने पहले क्यों नहीं बताया कि ‘मनोहर मोक्ष’ का मतलब क्या होता है? मैं क्या आपके विचारों की USB ड्राइव हूँ जो सब ऑटोमेटिक डाउनलोड हो जाएगा?”

मैं (पसीना पोंछते हुए, पिता-धर्म निभाने के संघर्ष में):“बेटा… ‘मनोहर मोक्ष’ का मतलब है—वो व्यक्ति जो इतना मनोहारी हो कि देखकर पड़ोस की कमला जी भी दाँतों तले ऊँगली दबा लें, और फिर भी इतना निर्विकार हो कि पड़ोसन की तारीफ़ पर भी मन न डोले… यानी मोह-माया से मुक्त!”

बेटा (आँखें गोल, जैसे जेम्स बॉन्ड किसी गुप्त राज़ का पर्दाफाश कर रहा हो):“मतलब आप चाहते हैं कि मैं पॉपकॉर्न, बैटमैन का असली खिलौना और PS5 सब छोड़ दूँ? पापा, मुझे साधु बनाना है या सुपरहीरो?”

 मैं (मन ही मन हँसी रोकते हुए, लेकिन चेहरे पर गंभीरता की मोटी परत):“नहीं बेटा, मकसद सिर्फ़ इतना है कि बड़े होकर तुम्हारी चाहतें इतनी कम हो जाएँ कि EMI के ज़माने में भी दिल हल्का रहे और नींद गहरी।”

 बेटा (व्यंग्य का गदा उठाते हुए):“फिर पापा, आपने खुद का नाम ‘मनोहर मोक्ष’ क्यों नहीं रखा? आप तो ‘चिंतन चतुर्वेदी’ क्यों बन बैठे? क्या आप मोह-माया में PhD करना चाहते थे?”

 मैं (थोड़ी शर्मिंदगी, थोड़ी सच्चाई):“मेरा नाम मेरे परदादा जी ने रखा बेटा… उस समय बच्चों को नाम चुनने का लोकतांत्रिक अधिकार नहीं मिलता था… आज भी नहीं मिलता।”

 बेटा (तर्क की तलवार चमकाते हुए):“पर दादाजी का नाम ‘धरमदास दूबे’ है, फिर सब लोग उन्हें ‘आशावादी जी’ क्यों कहते हैं? क्या ये भी इमेज मेनेजमेंट का प्राचीन फार्मूला है?”

 मैं (दर्शनशास्त्र के रंग में रंगते हुए):“नहीं बेटा! वो इसलिए क्योंकि दादाजी कभी हार नहीं मानते—even बिजली का बिल तीन गुना हो जाए, तब भी कहते हैं, ‘कोई बात नहीं बेटा, सब ठीक होगा!’ बस, लोग उनकी आशा से ज़्यादा प्रभावित हैं, नाम से कम।”

 बेटा (चेहरे पर शरारती मुस्कान):“तो आप लोगों ने मेरे नाम से ‘दूबे’ क्यों हटाया? ताकि जाति से नहीं, मेरी मुस्कुराहट और मोक्ष से पहचान हो?”

मैं (गंभीरता से):“बिल्कुल! यही वजह थी।”

बेटा (गंभीर होकर):“तो क्या ब्राह्मण होना बुरा है?”

मैं (संवेदनशीलता को थामते हुए):“नहीं बेटा! जाति बुरी नहीं, पर पहचान को केवल उसी तक सिमटाना बुरा है… बाकी विस्तार के लिए दादाजी से पूछ लेना, वो रोज़ शाम को गोबर गैस प्लांट के पास विचार मंच लगाते हैं।”

तभी रसोई से मम्मी—भावना भारती—करछी हाथ में लिए, अद्भुत आत्मविश्वास के साथ बाहर निकलीं, जैसे किचन की संसद में पारित बिल को जनता को पढ़कर सुना रही हों।

मम्मी (मुस्कुराकर):“क्या हो रहा है? फिर से दुनिया का संविधान लिख रहे हो क्या? बेटा, तुम्हारे पापा बचपन से ही ऐसे थे—आधा जवाब देते, आधा अगले जनम में देने का वादा कर देते!”

बेटा (विजयी मुस्कान के साथ):“मम्मी, चाचाजी का नाम ‘प्रशांत गौतम’ क्यों है? दूबे क्यों नहीं?”

मम्मी (मीठी मुस्कुराहट के साथ):“क्योंकि बेटा, हमारा गोत्र ‘गौतम’ है—यानी हम ऋषि गौतम की परंपरा से आते हैं… इसी को चाचाजी ने अपनाया, ताकि नाम में भी थोड़ा इतिहास और थोड़ा स्टाइल दोनों रहे!”

बेटा (और गहरा गोता लगाते हुए):“तो क्या सारे दूबे लोग गौतम गोत्र के होते हैं?”

मैं (सिर खुजाते हुए):“नहीं बेटा, दूबे, त्रिवेदी, चतुर्वेदी उपनाम वेदों के आधार पर बने; गोत्र ऋषियों के आधार पर। दोनों का तालमेल शादी-ब्याह में काम आता है… जैसे रिमोट में बैटरी डालने से टीवी चलता है, वैसे ही नाम और गोत्र से रिश्ता तय होता है!”

बेटा (जोश में):“मतलब आप और मम्मी एक ही गोत्र के नहीं हो?”

मम्मी (जल्दी से):“नहीं! हम अलग-अलग गोत्र के हैं, इसलिए ही शादी हो पाई!”

इतने में पड़ोसन—कमला जी—अपने खटर-पटर झोले के साथ आ धमकीं, कान में झुमके हिलाते हुए:

कमला जी (मुस्कुराकर):“अरे, अरे! लगता है आज घर में 'जाति-गोत्र महोत्सव' चल रहा है! बेटा, पूछ ले—मैं भी बीच-बीच में जानकारी डाल दूँगी!”

बेटा (झट से):“कमला आंटी, आपका नाम क्यों सिर्फ़ ‘कमला’ है? आगे कुछ क्यों नहीं?”

कमला जी (हँसते हुए):“बेटा, बचपन में नाम रखवाने का टाइम कम था, इसलिए ‘कमला’ पर ही काम चला लिया! अब पति का नाम जोड़ूँ तो ‘कमला वर्मा’ हो जाता है—लेकिन काम पड़ोसन कहकर भी चल जाता है!”

उतनी देर में चाचाजी—प्रशांत गौतम—भी अख़बार मोड़कर चर्चा में कूद पड़े:

चाचाजी:“बेटा, गोत्र का मतलब सिर्फ़ कुल परंपरा है, जैसे ब्रांड की फैमिली लाइन!”
 
बेटा (शरारती मुस्कान के साथ):“तो चाचाजी, आप ऋषि हो?”

चाचाजी (हँसकर):“नहीं बेटा, बस दफ्तर में कभी-कभी ऋषि जैसी चुप्पी साध लेता हूँ!”

बेटा:“पापा, मेरे दोस्त ‘वेदांत त्रिवेदी’ का नाम क्यों रखा गया?”

मैं (थके स्वर में):“वेदांत मतलब वेदों का सार, त्रिवेदी मतलब तीन वेद पढ़ा हुआ… पर बेटा, पढ़ाई नाम से नहीं, मेहनत से आती है!”

बेटा (व्यंग्य में लिपटी मासूमियत):“मतलब लोग बड़ा नाम रखकर भी उतने बड़े नहीं निकलते?”

मैं (मुस्कुराकर):“कभी-कभी हाँ, पर ज़्यादातर ये परंपरा की निशानी है… जैसे शादी के कार्ड पर 'सादर निमंत्रण' लिखा होता है, चाहे मेहमान आएँ या न आएँ!”

अब बेटे ने छोड़ा सबसे घातक प्रश्न:

बेटा:“पापा, ‘झा’ का मतलब क्या होता है?”

पूरा घर जैसे स्टैच्यू हो गया!मैं (गहरी साँस लेकर):

“बेटा… ये मैं कल बताऊँगा!” बेटा (शक भरी मुस्कान के साथ):

“पक्का?”

मैं:“पक्का!”

सच कहूँ तो मुझे आज तक नहीं पता “झा” का असली मतलब क्या होता है…

इसलिए अब सोच रहा हूँ बेटे को कहूँ—

बेटा, नाम रख लो ‘मिश्रा’,
क्योंकि कम से कम ये बताने में दिक्कत नहीं होगी कि:“बेटा, मिश्रा मतलब… मिश्रण! जैसे हँसी, तर्क, परंपरा, आधुनिकता—सबका मज़ेदार संगम!”

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