Wednesday, November 6, 2024

आसां नहीं समझना हर बात आदमी के

 आसां नहीं समझना हर बात आदमी के,

कि हंसने पे होते वारदात आदमी के।

दिन में हैं बेचैनी और रातों को उलझन,
संभले नहीं संभलते दिनरातआदमी के।

दोगज जमीं तक ना हासिल है अक्सर,
बिगड़े हुए से होते हालात आदमी के।

औरों पे करे शंका ना खुद पे है भरोसा,
रुके कहां रुके है सवालात आदमी के?

सीने में दफन है जाने कितने अंगारे?
सुलगे हुए से होते जज्बात आदमी के।

दोगज कफ़न तक के छोड़े ना अवसर,
कि ख्वाहिशें बहुत हैं दिनरात आदमी के।

खुदा भी इससे हारा, इसे चाहिए जग सारा,
अजीब सी तबियत है जात आदमी के।

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