Tuesday, November 5, 2024

आदमी का आदमी होना बड़ा दुश्वार है

 रोज उठकर सबेरे पेट के जुगाड़ में,

क्या न क्या करता रहा है आदमी बाजार में।
सच का दमन पकड़ के घर से निकलता है जो,
झूठ की परिभाषाओं से गश खा जाता है वो।

औरों की बातें है झूठी औरों की बातों में खोट,
और मिलने पे सड़क पे छोड़े ना दस का भी नोट।
तो डोलते हुए जगत में डोलता इंसान है,
डिग रहा है आदमी कि डिग रहा ईमान हैं।

झूठ के बाज़ार में हैं खुद हीं ललचाए हुए,
रूह में चाहत बड़ी है आग लहकाए हुए।
तो तन बदन में आग लेके चल रहा है आदमी,
आरजू की ख़ाक में भी जल रहा है आदमी।

टूटती हैं हसरतें जब रुठतें जब ख्वाब हैं,
आदमी में कुछ बचा जो लुटती अज़ाब हैं।
इन दिक्कतों मुसीबतों में आदमी बन चाख हैं,
तिस पे ऐसी वैसी कैसी आदतें गुस्ताख़ है।

उलझनों में खुद उलझती ऐसी वैसी आदतें,
आदतों पे खुद हैं रोती कैसी कैसी आदतें।
जाने कैसी आदतों से अक्सर हीं लाचार है,
आदमी का आदमी होना बड़ा दुश्वार है।

No comments:

Post a Comment

My Blog List

Followers

Total Pageviews