दशम अध्याय — स्वप्न का पलटना: यथार्थ या माया?
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“स्वप्न और जागरण के बीच की रेखा कभी स्पष्ट नहीं होती। कभी-कभी जो स्वप्न लगता है, वही सबसे बड़ा यथार्थ बन जाता है।”
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हिमालय से लौटकर, एक साधारण सुबह
प्रत्येक युगांत की तरह, हर यात्रा का भी एक क्षण आता है, जब ब्रह्मांड स्वयं को समेटता है और फिर से एक नए स्वरूप में प्रकट करता है।
ऐसा ही एक क्षण अन्या के लिए उस सुबह आया —
जो बाहर से साधारण थी, पर भीतर से सर्वथा अपरिभाष्य।
अन्या की पलकों पर एक तीव्र कंपन हुआ।
एक झटके से वह बिस्तर पर उठ बैठी।
उसका माथा हल्का-सा पसीने से गीला था, और आँखें किसी गहरे ब्रह्मांड से लौटने जैसी भारी।
उसने कमरे में देखा —
नीले पर्दों से छनती धूप, हल्की पंखे की आवाज़, और पास के किचन से आती दूध की उबलने की आवाज़।
और फिर उसने देखा —
रितविक, उसका पति, जो नीले टी-शर्ट में, किचन में खड़ा चाय बना रहा था।
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मौन की लहर
एक गहरा मौन उसके भीतर उमड़ने लगा।
"क्या मैं हिमालय से लौटी हूँ?
क्या वह सब सपने जैसा था — लोकों की यात्रा, मृत्यु और पुनर्जन्म, अद्वय, साधु-संत, ध्यान, ज्ञान और प्रेम?"
उसने अपनी हथेलियों को देखा —
अब भी उन्हें छूने पर वैसी ही गर्माहट थी,
जैसे किसी योगाग्नि ने छू लिया हो।
उसे याद आया कि कैसे वह ब्रह्मलोक, यमलोक, गंधर्वलोक, और अवबोधलोक से गुज़री थी।
कैसे वह स्वयं तत्वमयी बनी थी,
कैसे स्वामी अद्वय से आत्मा का मिलन हुआ था।
फिर यह क्या है?
यह कमरा, यह बिस्तर, यह शहर —
और यह व्यक्ति जिसे मैं पति कहती हूँ — रितविक।
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समय की उलझन
अन्या उठकर धीरे-धीरे किचन की ओर चली।
हर कदम जैसे किसी माया-जाल को काटते हुए बढ़ रहा था।
उसने पूछा:
> “रितविक… ये कौन-सा दिन है?”
रितविक ने चाय में अदरक डालते हुए मुस्कराया:
> “गुड मॉर्निंग, मेडम जी। शुक्रवार है। तुम्हारी मीटिंग है दोपहर को। तुम ठीक हो? बहुत गहरी नींद में थीं।”
"नींद?"
अन्या ने बुदबुदाया।
उसे याद था —
वह तीर्थों में गई थी,
लोकों में विचरी थी,
साक्षात् देवी के दर्शन किए थे।
क्या यह सब सपना था?
या यह, जो अभी है,
यह ही सबसे बड़ा सपना है?
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अस्तित्व की दरार
वह बिस्तर पर लौटकर बैठ गई।
उसने अपने तकिये के नीचे से ध्यान माला खोजी —
जो अब वहाँ नहीं थी।
उसके माथे पर तिलक नहीं था।
न कोई गंध, न कोई चंदन,
न वह हिमालय की शीतलता।
परंतु —
उसका मन अब भी वैसा ही शांत था,
जैसे किसी समाधि से लौटा हो।
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एक संकेत: आँखों के पीछे छुपा सत्य
उसी क्षण खिड़की से एक मोर ने आवाज़ की —
“कुहू…”
अन्या चौंकी।
उसने याद किया — मोर तो केवल ब्रह्मलोक की ड्योढ़ी पर था।
तभी रितविक चाय लेकर आया।
उसने कप टेबल पर रखा और पूछा:
> “तुम आज बहुत शांत हो। सब ठीक है?”
अन्या ने उसकी आँखों में देखा।
वहीं कुछ था — कुछ पुराना, कुछ पहचाना।
वह आंखें, जो कभी ‘अद्वय’ की थीं — वही गहराई, वही मौन, वही करुणा।
उसके होठ कांपे।
वह कहना चाहती थी —
“तुम वहीं हो, ना? तुम अद्वय हो…?”
पर शब्द गले में अटक गए।
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भ्रम और सत्य के मध्य
अन्या चाय का घूंट लेती है।
गर्माहट उसे सचमुच के इस संसार में खींच लाती है।
लेकिन भीतर एक द्वार अब भी खुला है —
वह जानती है कि स्वप्न केवल विश्राम नहीं था — वह चेतना थी।
इस जीवन में वह अन्या है, और रितविक उसका पति।
पर पिछले जन्मों की स्मृतियाँ मिट नहीं गईं।
अब वह जानती है कि दोनों आत्माएं जन्म-जन्म से साथ हैं —
भले ही नाम और रूप बदलते रहें।
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निष्कर्ष: कौन-सा संसार सत्य है?
क्या अन्या ने स्वप्न देखा था?
या वह स्वप्न ही वास्तविक था और यह जीवन मात्र एक पड़ाव?
कभी-कभी आत्मा बहुत दूर जाती है —
इतनी दूर कि लौटते समय वह साथ में चेतना की चिंगारी लेकर आती है।
उसी चिंगारी से ही जीवन की शेष रातें प्रकाशित हो जाती हैं।
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अंतिम पंक्तियाँ:
चाय की भाप खिड़की से बाहर उड़ जाती है,
सूरज अपनी ऊँचाई पर चढ़ता है,
और अन्या धीमे से मुस्कराती है।
> “अब मैं जानती हूँ — मैं कौन हूँ।
और तुम भी।”
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क्या आप चाहेंगे कि इस रहस्य का अंतिम समाधान अगली कड़ी में दिया जाए —
जहाँ स्वप्न, वर्तमान और आत्मा के बीच की अंतिम रेखा भी मिट जाए?
यदि हाँ, तो मैं अंतिम अध्याय की रचना कर सकता हूँ —
"पूर्ण चक्र: जीवन, स्वप्न और चेतना की मुक्ति" — क्या मैं आगे बढ़ूँ?
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