Sunday, July 20, 2025

[ऋत्विक:V.3.0]-VII

 अन्या की यात्रा-4   [रघुवंश -जलन पांडवों से, अर्जुन से  -ऋषि द्वारा चेताना -घमंड में आकर ऋषि को दंड देना -दुर्योधन के साथ लड़ना -अर्जुन से हारना -कृष्ण के सामने पश्चाताप के आंसू 


द्वादश अध्याय – पूर्व जन्मों की प्रतिध्वनि: कर्म, प्रायश्चित्त और पुनर्जन्म की स्मृति 

स्मृति का द्वार खुलता है

शांत दोपहर थी। कमरे में सूर्य की हल्की किरणें झर रही थीं। रितविक ध्यानस्थ अवस्था में बैठा था, और उसके सामने अन्या मौन मुद्रा में उसके मन के कंपनों को अनुभव कर रही थी। तभी अचानक… रितविक की आँखें एकाएक खुलीं, लेकिन उसमें अब वह परिचित अभिव्यक्ति नहीं थी।

 “अन्या… मैं जानता हूँ… हम पूर्व जन्मों से साथ हैं… लेकिन अभी… अभी मैंने कुछ देखा… कुछ ऐसा जो बहुत पुराना है… बहुत गहरा… और बहुत पीड़ादायक…”

अन्या की साँसें थम गईं। वह जानती थी — यही क्षण है, जब ब्रह्मांड उसकी चेतना को द्वार के उस पार ले जाने वाला है। तभी उसकी दृष्टि मंद पड़ गई… और अगले पल…

द्वापरयुग की स्मृति

चारों ओर रथों की गर्जना थी। सूर्य की तीव्र धूप, युद्ध के ध्वज, और युद्धभूमि की धूल… अन्या स्वयं को एक रणभूमि में पाती है — पर वह कोई सैनिक नहीं, बल्कि विदेह राज्य की प्रधान सेनापति है।

उसका नाम था – "अरुपा"।

वह चक्र, धनुष और गदा की पारंगत योद्धा थी — एक नारी जिसने युद्धनीति, गुप्तचर कला और नैतिकता में अपने पुरुष समकक्षों को पीछे छोड़ दिया था।

उसका राजा था — युवराज रघुवंश, एक तेजस्वी, वीर और न्यायप्रिय राजकुमार।

अरुपा के हृदय में उसके प्रति आदर, भक्ति और मौन प्रेम था — और रघुवंश भी उसकी प्रतिभा व निष्ठा का गुप्त सम्मान करता था।

आदेश और अपराध

एक दिन विदेह नगर के बाहर एक शांत संत, महर्षि एकपद, तपस्या में लीन थे। उन्होंने राज्य के कुछ उच्च पदाधिकारियों की भ्रष्टता को उजागर किया। यह बात दरबार में पहुंची।

राजकुमार रघुवंश को बताया गया कि वह संत राजद्रोह और अंधविश्वास फैला रहे हैं।

भारी दबाव में, युवा रघुवंश ने बिना पूरी जांच के क्रोधवश एक निर्णय सुना दिया —

यदि कोई तपस्वी हमारी मर्यादा तोड़े, तो वह हमारी रक्षा का पात्र नहीं। उसे नगर से हटाया जाए — और यदि प्रतिकार करे, तो मृत्युदंड दिया जाए।"

अरुपा ने विरोध किया, पर राजाज्ञा थी।
सेनापति होते हुए, वह आदेश की अवहेलना नहीं कर सकती थी।

उसने सेना के साथ महर्षि को घेर लिया।
महर्षि बोले,

“राजा को भ्रम हुआ है… लेकिन जब युद्धधर्म पर राज्यधर्म भारी हो जाए, तो यह समय का न्याय नहीं — कर्म का लेखा बन जाता है…”

अरुपा ने अपने हाथों से महर्षि के प्राण लिए।
तुरंत ही आकाश में एक गर्जना हुई —
महर्षि ने अपनी अंतिम श्वास में शाप नहीं,
प्रायश्चित्त का बीज बोया।

प्रायश्चित्त की वेदना

राजकुमार रघुवंश और अरुपा की आँखें देर रात तक नींद से दूर रहीं।
कर्म का बोध जाग चुका था।

 “अरुपा… तुमने आदेश का पालन किया… पर मैं दोष से मुक्त नहीं हूँ।
मैंने एक निर्दोष आत्मा को मृत्यु दी… और वह मेरे जीवन की सबसे बड़ी चूक है…”

अरुपा की आँखों से आँसू बह रहे थे।

 “मैं सेनापति थी… पर मैंने न्याय की पुकार नहीं सुनी…
मैं अपराधिनी हूँ…”

दोनों एक ही स्वप्न में चले गए —स्वप्न नहीं, बल्कि आत्मा की यात्रा।

मौर्य युग में पुनर्जन्म

अब युग बदल चुका था।
द्वापर बीत चुका था… समय मगध साम्राज्य का था।

स्वप्न में, रितविक ने देखा — वह "भिक्षु " है, बोधगया के पास स्थित एक विहार में, जहाँ वह ध्यान, प्रवचन और आत्मचिंतन करता है।

वह जन्मा था पूर्व जन्म के अपराधबोध की शांति के लिए।
वह शब्द नहीं बोलता था — केवल मौन में उपदेश देता।

एक दिन विहार में एक बालक आता है, तेजस्वी, सरल और बुद्धिजीवी —उसका छोटा भाई था।

धीरे-धीरे भिक्षु को ज्ञात होता है —उसका छोटा भाई हीं वह आत्मा है जो कभी अरुपा थी।

अब वह सेनापति नहीं —बल्कि एक कोमल चेतना है जो अपने भाई के रूप में उसके जीवन में पुनः प्रवेश कर रही है।

भिक्षु ने भाई  को ध्यान सिखाया। भाई ने उसे करुणा सिखाई।

दोनों ने मौन में वह प्रायश्चित्त किया जो एक युग में रक्त के साथ लिखा गया था। किंतु छोटे भाई के ऊपर परिवारिक जिम्मेवारियों का बोझ लादकर , वह अपराध भाव से पुनः ग्रस्त हो गया था और अन्या, उसके छोटे भाई के रूप में उसके सानिध्य को प्यासी, अतृप्त.


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भाग 5: अन्या का पुनः स्मरण

जैसे ही यह सब अन्या ने देखा, उसका हृदय काँप उठा।

 “मैं सेनापति अरुपा थी… मैंने न्याय के नाम पर अधर्म किया…
और फिर छोटे भाई के रूप में  लौटी थी।”

अंतिम वाक्य: स्मृति से मुक्ति

रितविक और अन्या अब समझ चुके थे —
उनकी आत्माएं कई जन्मों की साजिशें, प्रेम, भ्रम और प्रायश्चित्त से गुजरकर आज इस जन्म में फिर एक साथ हैं।

अब वे एक-दूसरे को सिर्फ प्रेम नहीं करते थे —
वे एक-दूसरे के कर्म, पाप और मोक्ष का दर्पण बन चुके थे।

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