Sunday, July 20, 2025

[ऋत्विक:V.3.0]-VI

 एक आत्मिक विज्ञान-गाथा — रहस्य, पुनर्जन्म और मुक्ति की खोज में


स्वर्ण-लोकेश्वर प्रवेश द्वार:गंधर्वलोक और पितृलोक की यात्रा
(स्थानांतरित चेतना | सूक्ष्म लोकों में प्रथम प्रवेश)

गंगा की मंथर लहरों के किनारे, अन्या का शरीर अब आश्रम के ध्यानकक्ष में मौन बैठा था, किंतु उसकी आत्मा — चेतना के उस द्वार से होकर निकल चुकी थी जिसे त्रिलोक सिंहद्वार कहा गया है। वह स्वर्णिम द्वार, जो हिंदू दर्शन की चेतना-पद्धतियों में उल्लेखित देवलोकमार्ग का प्रवेश था, अब उसके भीतर खुल चुका था।

उसका सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर से ऊपर उठ चुका था। अब न वह सांस ले रही थी, न बोल रही थी — केवल ‘हो’ रही थी।

प्रवेश: सूक्ष्म आकाश में यात्रा

अन्या ने देखा कि वह एक सूक्ष्म सुरंग से होकर गुजर रही है — यह सुरंग कोई भौतिक मार्ग नहीं था, बल्कि संकल्प और स्मृति से बना एक ऊर्जा-पथ था। जैसे ही उसके भीतर ऋत्विक की छवि सजीव हुई, सुरंग ने गति पकड़ ली।

उसके कानों में एक अद्वितीय ध्वनि गूँजने लगी — उच्च सप्तकों में गाई जा रही एक लयबद्ध गाथा, जो भाषा से परे थी, किंतु हृदय के केंद्र को स्पर्श करती थी। यह गंधर्वों का संगीत था।

गंधर्वलोक: संगीत से बंधे हुए स्मृति-जाल

जब अन्या ने अपनी आँखें खोलीं, तो वह एक ऐसे लोक में थी जहाँ रंग तरंग बन चुके थे, और ध्वनियाँ आकारों की भाँति बह रही थीं। वहाँ वृक्ष संगीत से हिलते थे, और नदियाँ रागों में बहती थीं।

यह था गंधर्वलोक — वह सूक्ष्म क्षेत्र जहाँ आत्माएं उनके स्मृतियों और इच्छाओं की परिपक्व लहरों के अनुसार विश्राम करती हैं।

यह लोक उन आत्माओं का विश्रामस्थल है जो अभी तक भवसागर से मुक्त नहीं हुई हैं लेकिन जिनमें धर्म, संगीत, कला, और प्रेम के उच्च भाव रहते हैं। वे इस लोक में प्रतीक्षा करते हैं — पुनर्जन्म के पूर्व, या मोक्ष के निमित्त।

अन्या की दृष्टि में ऋत्विक

तभी एक स्वर्णाभ प्रकाश से घिरा स्वरूप उसके सामने आया। वह कोई और नहीं, बल्कि ऋत्विक था — अनंत सौंदर्य और युवा चेतना का स्वरूपधारी। उसका मुख तेज से दीप्त था, पर उसकी आँखें स्मृति में भीगी हुई थीं।

अन्या रो पड़ी — किंतु वहाँ आँसू नहीं गिरते। वहाँ भाव ध्वनि में बदलते हैं।

उसने देखा — ऋत्विक भी उसे पहचान चुका था। किंतु दोनों के बीच एक कंपन की दीवार थी — जैसे कोई अधूरा संकल्प अब भी उन्हें बाँध रहा हो।

ऋत्विक ने कहा:“तुमने मुझे बुलाया, और मैं आया। पर मैं अब इस लोक का हूँ, जहाँ समय स्थिर है, पर इच्छा बहती है। तुम अब इस लोक की यात्री हो, पर स्थायी नहीं। तुम्हें आगे जाना है। मुझे अभी यहाँ रुकना है।”

गंधर्वों की सभा

तभी वहाँ गंधर्वों की सभा प्रकट हुई। वे संगीत के मूर्त रूप थे — पुरुष और स्त्री दोनों, पर एक रागमय ज्योति में गुँथे हुए।

सभा का मुख्य गंधर्व, ऋतुगान, आगे आया और बोला:

“हे अन्या, तू आत्मज्ञानी की संतान है। तेरे भीतर वह शक्ति है जो लोकों को पार कर सकती है। परंतु यह गंधर्वलोक उस आत्मा के लिए है जो अभी इच्छा-बंधन में है। ऋत्विक का हृदय अब भी जीवन के मोह में बंधा है — तुम्हारे प्रति, अपने अधूरे सपनों के प्रति।”

अन्या ने उत्तर में पूछा:

“तो मैं क्या कर सकती हूँ? क्या मैं उसे मुक्त कर सकती हूँ?”

 ऋतुगान ने कहा:
“मुक्ति तब आती है जब आत्मा स्वयं अपने भ्रम को देखती है। लेकिन तुम पितृलोक जा सकती हो — वहाँ तुम्हें उसका पूर्वकर्म ज्ञात होगा। जब आत्मा को अपने कर्म का दृश्य बोध होता है, तब वह बंधन ढीला करता है।”

पितृलोक की ओर अग्रसर

अब अन्या गंधर्वलोक से ऊपर की ओर उठी। वह कोई आकाशगमन नहीं था, बल्कि चेतना का परिवर्तन था। जैसे उसकी दृष्टि सूक्ष्म से सूक्ष्मतर हो रही थी।

वह पहुँची पितृलोक — जहाँ आत्माएं केवल स्मृति और कर्मफल में जीती हैं।

यह कोई काले रंग का गहन क्षेत्र नहीं था जैसा लोककथाओं में दिखाया जाता है। यहाँ सब कुछ प्रकाश में स्मृति का चलचित्र था। आत्माएं अपने जीवन की घटनाओं को देख रही थीं — किसी थिएटर की भाँति, लेकिन उससे जुड़कर, पीड़ा और प्रसन्नता दोनों का अनुभव कर रही थीं।

यह देवताओं के अधीन क्षेत्र नहीं था, बल्कि कर्म और परिणाम के अदृश्य न्याय के अंतर्गत था। यम यहाँ न्याय नहीं करते, केवल उपस्थित होते हैं — गवाह की तरह।

ऋत्विक का पूर्वकर्म

तभी अन्या को एक ज्योतिपुंज चित्रशाला में प्रवेश मिला। वहाँ उसे ऋत्विक के पूर्वजन्मों का दृश्य दिखा।

 विदेह नगर का योद्धा (द्वापर युग)

ऋत्विक एक राजकुमार था, जिसने युद्ध में अनेक निर्दोषों को केवल अपने गुरुदक्षिणा के लिए मारा था। पश्चाताप के बाद उसने अगले जन्म में एक बौद्ध भिक्षु बनने का व्रत लिया।

 पाटलिपुत्र का भिक्षु (मौर्य काल)

वह शांत, तपस्वी भिक्षु बना, जिसने ध्यान की पराकाष्ठा प्राप्त की। लेकिन अंतिम दिनों में उसे अपने छोटे भाई जो कि अन्या थी, उससे  मोह हो गया था. अन्या, जब उसका छोटा भाई थी, परिवारिक जिम्मेवारियों की बोझ से मर जाती है. प्रेम नहीं। और इसबार ऋत्विक स्वपन देखता है उसके रक्षक के रूप में, एक पति के रूप में.

ऋत्विक भौमिक

उसकी आत्मा अब भी उन्हीं दो ध्रुवों के बीच झूल रही थी — कर्तव्य और मोह।

अन्या ने यह सब देखा, अनुभव किया — जैसे वह स्वयं उन जन्मों की सहभागी रही हो।

पुनः संवाद

ऋत्विक की आत्मा अब पितृलोक में उपस्थित थी — गंधर्वलोक से नीचे, लेकिन स्वयं की ओर अधिक स्पष्ट।

अन्या ने उससे प्रश्न किया:

“क्या अब तुम तैयार हो आगे बढ़ने के लिए?”

ऋत्विक मौन रहा।

फिर उसने कहा:
 “मैं अब भी तुम्हारे मोह में हूँ अन्या। मैं प्रेम करना चाहता हूँ, और मुक्त भी होना चाहता हूँ — ये दोनों एक साथ नहीं हो सकते। मुझे अपनी गति स्वयं ही चुननी होगी।”

देवी का हस्तक्षेप

तभी आकाश से ज्ञानदेवी पुनः प्रकट हुईं।

अन्या, तुम अपने संकल्प से आगे बढ़ रही हो। लेकिन अब तुम्हारे मार्ग में बाधा नहीं, बल्कि परीक्षा है।

ऋत्विक की आत्मा को पूर्ण गति तब ही मिलेगी जब तुम उसके प्रति त्याग और प्रेम के संयोग का अनुभव करोगी। उसे छोड़कर नहीं, उसे स्वीकार कर मुक्ति देना ही अंतिम परीक्षा है।

और यही परीक्षा तुम्हें ले जाएगी अगले लोक — सिद्धलोक, जहाँ आत्माएं न बंधन में हैं, न मुक्त — वे 'सिद्ध' हैं, आत्मस्वरूप के ठीक किनारे पर।”

लेकिन इससे पहले यह जान लो, ऋत्विक के जन्मों की यात्रा, जिसे वह पूर्व जन्म समझ रहा है और जहाँ पर तुम हमेशा से उसी के साथ विद्यमान रही हो, कभी पत्नी, कभी सेनापति, कभी मित्र. और अचानक अन्या अपने आपको को द्वापर युग में पाती है जहाँ वो सेनापति थी, विदेह नगर का योद्धा और ऋत्विक एक राजकुमार.

तीसरे अध्याय का समापन:

अन्या ने हाथ जोड़कर ऋत्विक से कहा: 

“तुम्हारी गति तुम्हारी होगी। मैं केवल वह दीप हूँ जो तुम्हारे रात्रि में कुछ क्षण को जला। अब मैं अपने मार्ग पर चलती हूँ — जहाँ प्रेम बंधन नहीं, पथप्रदर्शक बनता है।”

और जैसे ही यह कहा, उसकी चेतना ऊपर उठ गई।

सामने अब सिद्धलोक की स्वर्ण आभा दिखाई दे रही थी — वहाँ से ब्रह्मांडीय रहस्य और आत्मज्ञान की सबसे जटिल परतें प्रकट होने वाली थीं।

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