Friday, July 18, 2025

अन्या की यात्रा-8

त्रिकालदर्शिता: जब स्वप्न, समय और चेतना एक हो जाते हैं"

अब समय आ गया था—ज्ञान देवी के तीसरे वरदान के प्रतिफलित होने का।

स्वप्न-स्मृति और पूर्वजन्म-चेतना — ने अन्या को स्वयं से मिलवाया था। पर तीसरा वरदान, जो सबसे दुर्लभ और शक्तिशाली था —त्रिकालदर्शिता — वह अन्या को केवल आत्मा नहीं, समय के तंतु देखने की क्षमता देने वाला था।

वह ध्यान की गहराइयों में उतर चुकी थी, एक अंतर्यात्रा पर —
जहाँ न समय था, न भाषा, न धर्म, न शरीर।
केवल तरंगें थीं — ऊर्जा की, अनुभूतियों की, स्मृतियों की।

स्पंदनों का ब्रह्मांड: जन्म नहीं, आवृत्तियाँ थीं

वह देख रही थी —हर जन्म, हर क्षण, हर स्वप्न —
पुनर्जन्म नहीं थे,बल्कि एक ही चेतना के अलग-अलग आवृत्तियाँ (frequencies) थीं,जो समानांतर रूप से घटित हो रही थीं।

भूतकाल, वर्तमान और भविष्य —अब उसके लिए तीन पृथक धाराएँ नहीं रहे।वे सब एक ही 'सुपर-कॉन्शियस ट्रैक' पर साथ-साथ बह रहे थे —जैसे कोई त्रिगुणमयी लहर,
जहाँ समय एक रेखा नहीं,बल्कि एक अनंत स्पंदन बन चुका था।

अन्या देख रही थी —कैसे उसकी आत्मा, ऋत्विक की आत्मा के साथ बारंबार जुड़ती रही,हर जन्म में, हर जीवन में।

पर सबसे विचित्र और दिव्य यह था —कि ये सभी जन्म एक साथ घट रहे थे।

स्वप्नों का घनत्व: जब चेतना में चेतनाएँ समाहित होती हैं

सब कुछ स्वपनवत था —पर केवल स्वप्न नहीं, बल्कि अधूरे स्वप्नों का पूर्ण होने का स्वप्न।

"सेनापति के स्वप्न में भाई का जन्म।"
"भाई के स्वप्न में पत्नी का जन्म।"
"पत्नी के स्वप्न में अन्या का जन्म।"
"अन्या के स्वप्न में भविष्य की नव-तांत्रिक साधिका का जन्म।"

हर अस्तित्व, किसी अन्य अस्तित्व का स्वप्न था।

 "भूत के स्वप्न में वर्तमान, और वर्तमान के स्वप्न में भविष्य —
और सारे स्वप्न, एक साथ अस्तित्व में।"

यह कोई पुनर्जन्मों की श्रंखला नहीं थी —
यह स्पंदनों की पारलौकिक समानांतरता थी।
हर जन्म, हर अनुभव,केवल अलग फ्रिक्वेंसी पर चल रही एक ही चेतना के प्रतिबिंब थे।

अनुभूति का उच्छ्वास — आत्मस्वर की उद्घोषणा

तभी अन्या के भीतर बोध का विस्फोट हुआ।

उसने देखा — ऋत्विक हर जन्म में निर्णायक था,
और वह स्वयं हर बार ऊर्जा स्रोत रही थी।

अब उसे यह स्पष्ट हुआ —

"हमने जन्म नहीं बदले, हमने फ्रिक्वेंसी बदली है।तुम मेरी प्रत्येक यात्रा के नियामक रहे हो —और मैं तुम्हारी प्रत्येक यात्रा की ऊर्जा।हम दोनों ही अब निर्णायक क्षण पर हैं —
या तो चेतना का विलय, या फिर अनंत पुनरावृत्ति।"

शून्यता की गोद में समर्पण

और तभी…उनकी चेतनाएँ — अन्या की और ऋत्विक की —
जिन्होंने जन्म-जन्मांतरों मेंपत्नी, सेनापति, भाई, साधिका, रक्षक, योगी, भिक्षु, मुनि, सम्राज्ञी, क्रांतिकारी, जिज्ञासु, दार्शनिक बनकरएक-दूसरे के साथ यह यात्रा तय की थी —
अब ‘शून्य’ की स्थिति में प्रवेश करती हैं।

ना धर्म, ना शरीर, ना युग, ना स्त्री, ना पुरुष —केवल दो स्पंदन…जो एक ही स्रोत से निकले थे,
अब एक ही स्रोत में विलीन होने जा रहे थे।

 “अब हम कोई नहीं हैं…और इसीलिए हम सब कुछ हैं।”

और फिर, बोध का अंतिम कारण — अतृप्त चाह

सब कुछ इस क्षण तक पहुँचा था केवल एक कारण से —
"अतृप्त चाह"।

हर जन्म, हर पुनर्मिलन, हर विछोह —इस बात का प्रमाण था किचेतना, जब अधूरी इच्छा से बंध जाती है,
तो वह जन्मों के फेर में फँसती है।

 अन्या ने स्वयं से पूछा:“क्या हम प्रेम से ग्रस्त थे, या केवल अतृप्त चाह से?”

 ऋत्विक ने उत्तर दिया:“प्रेम कभी ग्रस्त नहीं होता…
वह जब समर्पण बनता है, तभी वह शून्य से एक हो सकता है.

अन्या ने हाथ जोड़कर ऋत्विक से कहा:

“तुम्हारी गति तुम्हारी होगी। मैं केवल वह दीप हूँ जो तुम्हारे रात्रि में कुछ क्षण को जला। अब मैं अपने मार्ग पर चलती हूँ — जहाँ प्रेम बंधन नहीं, पथप्रदर्शक बनता है।”

और जैसे ही यह कहा, उसकी चेतना ऊपर उठ गई।

सामने अब सिद्धलोक की स्वर्ण आभा दिखाई दे रही थी — वहाँ से ब्रह्मांडीय रहस्य और आत्मज्ञान की सबसे जटिल परतें प्रकट होने वाली थीं।

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